क्या हो जब हम ही हमारे गुरु बन जाएं!
अक्सर हम सीखने के लिए,
अपने से किसी बड़े ज्ञानी की खोज में होते है, जो हमसे ज्यादा जानता हो। और हम यह सोचते हैं कि वैसे लोग ही हमें सिखा सकते
हैं, जो हमसे ज्यादा जानते हों।
मुंगेर में अचानक से
टीम के पुराने साथियों का चयन एक संस्था में हुआ। हमारे साथी अब DIET के साथ मिलकर
शिक्षक प्रशिक्षण में अपना योगदान दे रहें
हैं। एक ओर जहाँ खुशी थी वहीं दूसरी ओर प्रशक्षित टीम का चला जाना, एक संघर्षपूर्ण
चुनौती रहा। इस वर्ष हमारे जिले में कार्यक्रम विस्तार की भी योजना थी। हम 60 एडु-लीडर्स के साथ कार्य करने की बजाय
100 एडु-लीडर्स के साथ आगे बढ़ने वाले थे।
जिसकी पूर्ति के लिए
तुरंत नए साथियों का चुनाव किया गया और
अपने कार्यक्रम की संख्या और गुणवत्ता
दोनों को ही बेहतर रखना आसान काम नहीं था। एक मेंटर के रूप में, मुझसे अपेक्षाएं भी
अधिक थी। एक समय था जब टीम के लगभग हर व्यक्ति को लगातार सपोर्ट
की आवश्यकता थी।
मुझे
जो टास्क सबसे ज्यादा परेशान कर रही थी, वो थी सभी साथियों को नियमित रूप से समय दे
पाना और उनके साथ बने रहना। यह न कर पाने में, एक अधूरापन सा
रहता था। और ऐसा लगता था जैसे कि हर समस्या का समाधान मुझे ही देना है। मेरी अनुपस्थिति
में लोग परेशान भी रहते थे।
एक टीम के रूप में बेहतर
कार्य कर पाना, हमेशा ही संघर्षपूर्ण रहता है। हमारी दूसरों से
अपेक्षा भी ज्यादा रहती है। वैसे में एक ऐसे समूह का निर्माण करना जो एक दूसरे के सीखने
और सिखाने की जिम्मेदारी ले, एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। हमने ऐसे ही समूह का निर्माण किया। जहाँ एक साथी
दूसरे साथी के सीखने की जिम्मेदारी ले और उसकी गुणवत्ता में भी भागीदार बनें।
यह कर पाना काफी लाभदायक
रहा। जहाँ साथियों ने इसे एक मौके के रूप में लिया। तुरंत में हुए सुधार के रूप में जहाँ टीम अपने कार्य को 60 से 75 प्रतिशत पूरा
करने में ही परेशान हो जाती थी। वहीं इस प्रक्रिया से कार्य के पूरा होने में 20 प्रतिशत
की वृद्धि देखी गई।
ऐसे प्रयोग ने साथियों
को बेहतर सहयोग प्रदान किया और सीखने-सिखाने के नए मौके भी बनाएं।
अब यह देख कर मुझे खुशी होती है कि समस्याओं की लिस्ट अब कम
हुई है। लोगों का एक दूसरे पर भरोसा बढ़ा है। जो हमें आगे बढ़ने के लिए पर्याप्त है।
अमन
टीम सदस्य, मुंगेर
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