Wednesday, July 16, 2025

"ख़ुशी की जिद और वर्षा की जीत"

आज सुबह मै हमेशा की तरह ऑफिस के लिए निकली थी। टोटो में बैठकर अपने-अपने ख्यालों में थी की तभी मेरी नज़र एक लड़की पर पड़ी, वो साईकिल चला कर स्कूल जा रही थी। पर वो कोई साधारण लड़की नहीं थी। वो थी वर्षा।

आप पूछेंगे - वर्षा कौन हैं ? - तो सुनिए , वर्षा की कहानी है, जिसने हालातो से हार मान ली थी। लेकिन फिर किसी और लड़की की हिम्मत ने उसे दोबारा खड़ा कर दिया। 

वर्षा , मुंगेर के एक गॉव रामनगर (भागिचक) की लड़की है। सातवीं कक्षा के बाद उसकी पढाई छुट गई थी। उसी समय वर्षा के पिता का देहांत हो गया था ,घर में बस माँ और दो बहनें थी। माँ एक छोटी सी दुकान चलाकर जैसे-तैसे घर चलाते थे। पढाई फिर से शुरू करने का न तो हौसला था न ही कोई सहारा। 

और फिर उसकी जिंदगी में आई-सक्षम की एडू-लीडर ख़ुशी जो बैच-11 की है, यह आई-सक्षम संस्था में काम करती हैं। ख़ुशी बहुत ही मेहनती और जिद्दी लड़की, जिस काम को ले कर ठान लेती है, तो पीछे नहीं हटती हैं। 

अक्टूबर-नवंबर का महीना था। हमारे क्लस्टर में तय हुआ कि हम उन किशोरियों को फिर से स्कूल भेजेंगे, जिन्होंने किसी कारण से पढ़ाई छोड़ दी है। उसी अभियान के दौरान खुशी को वर्षा मिली।
जब खुशी ने वर्षा की माँ से बात की तो जवाब साफ थी। अब क्या पढ़ेगी? सात साल हो गए। मुश्किल से घर चलता है, पढ़ाई के लिए समय और पैसे कहाँ हैं?
लेकिन खुशी हार मानने वालों में से नहीं थी। उसने समझाया कि सरकार की तरफ़ से लड़कियों को छात्रवृत्तियाँ मिलती हैं, कई योजनाएं हैं। फिर उसने वर्षा से सीधा पूछा। क्या तुम फिर से पढ़ना चाहती हो?
वर्षा की आँखों में हल्की-सी चमक आई। वो बोली। मन तो है दीदी, पर स्कूल में दाखिला मिलेगा क्या? मेरे पास तो टीसी भी नहीं है। खुशी मुस्कराई और कहा , तुम साथ दो, बाकी मै आपको मदद करूंगी। खुशी ने स्कूल से लेकर DRCC ऑफिस और कोर्ट तक पहुँची । चार दिन DRCC के ऑफिस में, तीन दिन कोर्ट में — वो तब तक नहीं रुकी जब तक वर्षा की टीसी नहीं मिल गई। कुछ दिन बाद मिलने के बाद ख़ुशी ने वर्षा का मई में स्कूल में दाख़िला करवाए , तो जून की गर्मियों में, सात साल बाद, वर्षा फिर से स्कूल गई। 
आज जब मैंने उसे साइकिल से स्कूल जाते देखा, तो ऐसा लगा जैसे उम्मीद सचमुच साइकिल चला रही है। खुशी ने सिर्फ़ एक बच्ची की पढ़ाई शुरू नहीं करवाई। उसने उसके भविष्य का रास्ता खोला।
हम एक ऐसे समाज की कल्पना करते हैं जहाँ हर लड़की के पास अपनी आवाज़ हो, अपनी पसंद हो, और वह किसी दूसरी लड़की की ताक़त भी बन सके।
स्मृति , बड्डी
मुंगेर





Monday, July 7, 2025

किस्से-कहानिओ की "किताबी चौपाल"

बिहार की  चरमराई शिक्षा वयवस्था की कहानी किसी से छुपी नहीं है, ऐसे में किसी पिछड़े गॉव में लाइब्रेरी जैसे सुविधा के बारे में सोचना थोड़ा नामुनकिन सा लगता है, आई-सक्षम पिछले 10 सालो से बिहार के 5 जिलों में ऐसे ही अतिपिछड़े पॉच सौ गॉव के महिलाओ को अपनी वौइस् एंड चॉइस रख कर एक लीडर बनाने में मदद कर रही है।
ऐसे ही सशक्त महिलाएं और लड़किया समूह बना कर सामाजिक बदलाव में अपना भागीदारी दिखा रही है, गया जिले के जयपुर गॉव में ऐसे ही एक समूह (सर्वोदय क्लस्टर) ने अपने गॉव में सामाजिक बदलाव के उद्धारहण प्रस्तुत किया है। सर्वोदय क्लस्टर यह मानता है की समाज में शिक्षा की जागरूकता आवशयक है। इस आधार पर सर्वोदय क्लस्टर ने अपने समुदाय में एक सार्वजानिक  लाइब्रेरी खोलने की कोशिश की जिसमे समुदाय के सभी वर्गो के लिए जगह सुनिश्चित की गई। 
एक ऐसी लाइब्रेरी, जो बच्चों से लेकर बुज़ुर्गों और महिलाओ तक , सबके लिए हो।" बात सिर्फ किताबों की नहीं थी। हम ऐसी जगह चाहते थे – जहाँ बच्चे आकर कहानियाँ पढ़ें कुछ गतिविधियां करे, महिलाएँ अपने लिए समय निकालें और नए कौशल सीखे, बुज़ुर्ग आकर अख़बार पढ़ें और बच्चो के साथ अपना अनुभव साझा करे साथ ही साथ लाइब्रेरी में अपना योगदान दे। सभी की सलाह लेकर हमने लाइब्रेरी का नाम रखा — "किताबी  चौपाल",

26 जून को सर्वोदय क्लस्टर ने "किताबी चौपाल" का उद्घाटन जयपुर स्कूल की अध्यापिका (बिनीता कुमारी) जी के हाथों करवाया। सर्वोदय क्लस्टर का लाइब्रेरी में  250 किताबों का लक्ष्य था, पर नजदीकी सरकारी स्कूल और ब्लॉक रिसोर्स सेण्टर के सहयोग से किताबी चौपाल की शुरुआत 300 किताबो से हुई। 
“किताब चौपाल “ में अब सिर्फ किताबें नहीं, बल्कि अख़बार, चित्रकथाएँ, बाल पत्रिकाएँ, और बातचीत के मौके भी होंगे। हम चाहते हैं कि – बच्चे अपनी कल्पनाओं को पंख दें, महिलाएँ आत्मनिर्भर बनें, बुज़ुर्ग अपनी कहानियाँ सुनाएँ, और युवाएँ एक नई दिशा खोजें।
यह लाइब्रेरी सिर्फ एक कमरा नहीं है, यह उम्मीदों की चौपाल है, बदलाव का स्टेशन है।
स्वाती कुमारी,
बड्डी,गया

Wednesday, July 2, 2025

"सोच में बदलाव" – एक बहू, एक सास और तीन पीढ़ियों की कहानी

सुनिए  साथियों, जमाना कितना बदल रहा है ना... लेकिन असली बदलाव तब दिखता है जब घर-परिवार के लोग अपनी सोच बदलें। ऐसा ही कुछ मैंने खुद अपनी आँखों से देखा और दिल से महसूस किया।

हमलोग हाल ही में जमुई में i-सक्षम में “बडी प्रशिक्षण” में गए थे। चार दिन का प्रशिक्षण था। बहुत कुछ नया सीखने को मिला। लेकिन सबसे बड़ी सीख तो एक कहानी ने दी... एक सास, एक बहू और एक प्यारी सी पोती की।
हमारी साथी नेहा दी भी वहाँ आई थीं। लेकिन अकेली नहीं — अपनी सासू माँ और बेटी रूपम के साथ। पहले तो मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। मन में सवाल उठा कि अरे, नेहा दी की सासू माँ भी यहाँ? वो भी ट्रेनिंग में?

क्योंकि मैं नेहा दी की कहानी पहले से जानती थी। याद है, 2024 के फाउंडेशन डे पर मैंनें उनके जीवन पर नाटक लिखा था। तब जान पाई थी कि नेहा दी की पढ़ाई एक वक्त पर रोक दी गई थी। दसवीं में थीं तब उनकी सासू माँ ने साफ कहा थे,

"दसवीं पढ़कर क्या करेगी? बकरी ही तो चराएगी!"
सोचिए, कैसी तकलीफ हुई होगी नेहा दी को। लेकिन वक़्त बदला... हालात बदले... और सबसे बड़ी बात — सोच बदली।
अब वही सासू माँ... अपनी बहू का हाथ पकड़कर जमुई ले आईं। बोलीं
"तू सीख, मैं रूपम को संभाल लूंगी।"

ये सिर्फ साथ आना नहीं था दीदी... ये था तीन पीढ़ियों का बदलाव। सासू माँ ने पूरे मन से नेहा दी का साथ दिया। पोती रूपम उनके गोद में खेलती रही और नेहा दी सारा ध्यान लगाकर ट्रेनिंग में सीखती रहीं।


ट्रेनिंग खत्म होने के बाद मैं उनके पास गई। धीरे-धीरे बातें होने लगीं। और उनकी बात सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए। वो बोलीं —
"हाँ, पहले गलती हुई हमसे। सोचा था पढ़ाई से क्या होगा। पर अब समझ आई है। चाहे बेटी हो या बहू, पढ़ाई सबसे जरूरी है। आज गांव में लोग कहते हैं — देखो, आपकी बहू समाज में काम करती है, लड़कियों को समझाती है, लोगों की मदद करती है। तो मन गर्व से भर जाता है।"

नेहा की सासु माँ ने पिछले बातो को कहते-कहते उनकी आँखें भर आईं। फिर बोलीं —
"नेहा ने हमारे घर की सोच बदल दी है।"
सच कहूँ साथियों, उस दिन मैंने महसूस किया कि बदलाव सिर्फ किताबों में नहीं होता। जब हम किसी की कहानी को जीते हैं, उसे अपने आस-पास होते हुए देखते हैं, तब असली असर होता है।
ये सिर्फ नेहा दी का सफर नहीं था... ये हर उस लड़की की कहानी है जो लड़ती है, सीखती है और समाज की सोच बदल देती है।
"जब सोच बदले, तब ही असली बदलाव आता है"
स्मृति, टीम मुंगेर।

Saturday, June 21, 2025

"माँ बोली — अब हमारी बेटी हमारे से आगे जाएगी"

आज की मदर्स मीटिंग (Mother meeting) कुछ अलग ही रही। कुल 10 किशोरियों की माएँ आई थीं — हर चेहरे पर अपनापन, कुछ झिझक, लेकिन दिल में बहुत कुछ कहने की चाह।
जैसे ही मीटिंग शुरू हुई, मैंने सबसे पहले हाथ जोड़कर सबका स्वागत किया। बोली — "आप सबका आना हमारे लिए बहुत कीमती है।" फिर धीरे-धीरे बातों का सिलसिला शुरू हुआ। हमने पूछा  "आपको क्या करना अच्छा लगता है?" किसी ने कहा – "खाना बनाना", कोई बोली – "सिलाई", तो किसी को बच्चों को पढ़ाने में मज़ा आता है। उस पल मुझे महसूस हुआ, हर माँ के पास एक हुनर है, बस उसे पहचानने और अपनाने की ज़रूरत है।
बात जब उनके सपनों तक पहुँची, तो माहौल थोड़ा भावुक हो गया। कई माओं की आंखों में अधूरे सपनों की चमक थी। एक माँ बोली, “मैं डॉक्टर बनना चाहती थी, लेकिन पंद्रह साल में शादी हो गई।” दूसरी बोली, “मुझे टीचर बनना था, पर घर वालों ने पढ़ने ही नहीं दिया।”
लेकिन इस अधूरेपन के बीच एक नई उम्मीद भी दिखी — उन्होंने कहा, “अब हम नहीं चाहते कि हमारी बेटियाँ जल्दी शादी करें। हम उन्हें पढ़ाएंगे, आगे बढ़ाएँगे।”
फिर हमने किशोरी कार्यक्रम और लाइफ स्किल्स के बारे में बताया — कि कैसे अब लड़कियाँ खुद के लिए फैसले लेना सीख रही हैं, और दस लोगों के बीच अपनी बात रखने की हिम्मत जुटा रही हैं। माओं को ये सब जानकर बहुत अच्छा लगा। एक माँ तो मुस्कुरा कर बोली, “अब लगता है कि हमारी बेटी हमारे से भी आगे जाएगी।”

मीटिंग के बीच मैंने अपना परिचय भी दिया। बताया कि मैं “i-सक्षम" से जुड़कर बदली — जो लड़की कभी अकेले घर से बाहर नहीं निकलती थी, वही अब मीटिंग ले रही है, सबके सामने खड़ी होकर बात कर रही है। ये मेरे लिए छोटा नहीं, बहुत बड़ा बदलाव है।

रौशनी कुमारी,
बैच-12 , बेगूसराय
एडू लीडर



"सुनना भी एक सहयोग है"

10 तारीख को मेरे पति ने थोड़े परेशान होकर मुझसे बात की। उन्होंने बताया कि उनका 2 लाख रुपये का टारगेट अभी तक पूरा नहीं हो पाया है। मैंने उन्हें ध्यान से सुना और कहा, “चलिए कल एक घंटा बैठते हैं, सिर्फ आपके टारगेट पर बात करेंगे।”
अगले दिन शाम 7 बजे हम दोनों शांत मन से बैठे। मैंने उनसे पूछा —
सबसे बड़ी चुनौती क्या है?
उन्होंने कहा, “दवाइयों की बिक्री नहीं हो रही। डॉक्टरों से बात नहीं बन पा रही है।
मैंने उन्हें खुलकर बोलने का मौका दिया, उनके जवाबों को गहराई से सुना और फिर साथ बैठकर सोचा कि आगे क्या किया जा सकता है।
उन्होंने खुद ही समाधान निकाले —
 डॉक्टरों से समय पर मिलना होगा,
उनसे अच्छे से संवाद करना होगा,
जरूरत पड़ी तो सीनियर की मदद लेनी होगी।
हमने सिर्फ एक घंटे की बडी टॉक की, लेकिन उस बातचीत का असर ऐसा हुआ कि 22 मई तक उनका टारगेट 3 लाख पार कर गयाकुछ दिन बाद उन्होंने मुस्कराते हुए कहा —
"तुम्हारी वजह से मेरा टारगेट पूरा हुआ... मुझे तुम पर गर्व है।"
यह सुनकर मेरा दिल भर आया। मैंने उस दिन महसूस किया कि कभी-कभी किसी को बस सुन लेना, उसकी बात समझ लेना ही सबसे बड़ी मदद होती है।
 यह मेरा छोटा-सा बडी टॉक अनुभव था, लेकिन मेरे लिए सीख और गर्व से भरा एक बड़ा पल बन गया
पिंकी कुमारी
बैच 10A, जमुई

Friday, June 20, 2025

"गांव की बेटियां अब खुद बनाएंगी ईमेल और पूछेंगी सवाल Chat GPT से"

गांव की वो गर्म दोपहर थी, जब चारों ओर धूप फैली हुई थी, लेकिन मेरे मन में एक अलग ही रौशनी थी — उम्मीद की, हिम्मत की, और कुछ नया कर दिखाने की। मुझे गहराई से ये एहसास दिलाया कि जब हम खुद आगे बढ़ने की ठान लेते हैं, तो हमारे अंदर एक ऐसी चमक पैदा हो जाती है, जो न सिर्फ़ हमें राह दिखाती है, बल्कि दूसरों के लिए भी रास्ता रोशन कर देती है। खुद पर भरोसा और दूसरों के लिए प्रेरणा बनना — शायद यही असली नेतृत्व है।
बात शुरू हुई जब मुझे एक महीने का लक्ष्य क्लस्टर मीटिंग में काम मिला — 10 लड़कियों को ईमेल आईडी बनाना सिखाना। शुरुआत में सोचा, "क्या मैं कर पाऊंगी?" लेकिन जैसे-जैसे काम में डूबी, हिम्मत भी बढ़ती गई। अब तक 8 लड़कियों को सिखा चुकी हूं, बाकी भी तैयारी है सिखने को ले कर,


इस दौरान एक और रोचक मोड़ आया — एग्जाम चल रहे थे और लड़कियां मुझसे पूछतीं,
दीदी! आप इतना बढ़िया जवाब कहां से लाती हो?” मैं मुस्कराई और बताया — एक App है “Chat GPT” नाम है इसका, जहां से मैं जवाब पाती हूं, और तुम भी सीख सकती हो।” कई लड़कियां हैरान भी हुईं और उत्साहित भी। उन्हें तकनीकी (Techology) से जोड़ने का पहला कदम यही था इसी हफ्ते मंडे मीटिंग में मैंने सीखा — Google Meet से ऑनलाइन मीटिंग कैसे करें, ग्रुप में किसी को टैग कैसे करें।
ये सब चीज़ें पहले जादू जैसी लगती थीं, अब आसान हो गई हैं। लेकिन हर सफर सीधा नहीं होता... कुछ चुनौतियां भी आईं: जब खुद की पढ़ाई करनी होती है और साथ में दूसरे बच्चों का होम विज़िट भी करना हो — तो समय और ऊर्जा दोनों की परीक्षा होती है। इस हफ्ते ने मुझे ये यकीन दिया कि — "अगर इरादा सच्चा हो, तो गांव की बेटी भी तकनीकी (Techology) में किसी से कम नहीं।"


अब आगे की राह साफ़ है – और लड़कियों को डिजिटल टूल्स सिखाना है, अभिभावकों से संवाद बनाए रखना है, और खुद को लगातार बेहतर बनाते रहना है। ये सफर लंबा है... पर मेरा हौसला उससे भी बड़ा है।
नीतू ,एडू लीडर
बैच-11 
गया

Monday, June 16, 2025

मुज़फ्फरपुर की गलियों से जयपुर तक: मेरी उड़ान की शुरुआत

मुज़फ्फरपुर की गलियों से शुरू हुई मेरी कहानी, एक साधारण-सी ज़िंदगी से निकलकर एक नई दिशा की ओर बढ़ी। घर-परिवार, बच्चों की देखभाल और अपने छोटे से संसार में ही सारा समय बीतता था। लेकिन मन के एक कोने में हमेशा कुछ नया जानने, कुछ बड़ा करने की एक हल्की सी टिमटिमाहट थी।
और फिर एक दिन, जैसे वो टिमटिमाहट एक रोशनी बन गई—जब मुझे जयपुर जाने का मौका मिला।
इस खबर ने मन को दो हिस्सों में बाँट दिया—एक तरफ उत्साह, क्योंकि पहली बार बिहार से बाहर जाकर कुछ सीखने को मिलेगा, और दूसरी ओर भावनाओं की लहर, क्योंकि बच्चों से दूर जाना था।
लेकिन दिल ने समझाया—  “अगर कुछ नया करना है, तो इस एक कदम से शुरुआत करनी होगी।” तैयारी बहुत पहले से शुरू हो गई थी, लेकिन जैसे ही यात्रा की तारीख नज़दीक आई, ट्रेन टिकट कन्फर्म नहीं हुई। मन में असमंजस था—जाऊं या न जाऊं? लेकिन जैसे ज़िंदगी हर बार रास्ता देती है, वैसे ही आखिरी वक्त पर टिकट मिल गया, और मैंने डर को पीछे छोड़ सफ़र शुरू कर दिया।
पाटलिपुत्र स्टेशन पर जब ट्रेन में बैठी, तो पहली बार बिल्कुल अकेली थी। पर परिवार की आवाज़ें फोन पर मेरे साथ थीं। और बच्चों ने जिस प्यार से मुझे टीका लगाकर विदा किया, उसने मेरी हिम्मत को कई गुना बढ़ा दिया।
जो आशीर्वाद मैं उन्हें देती थी, आज वही मुझसे कह रहे थे—“बेस्ट ऑफ लक, मम्मी!”
नई दिल्ली से जयपुर का सफर रात के अंधेरे में था, लेकिन मन के भीतर एक नई रोशनी थी। शहर अजनबी था, रास्ता अनजाना, लेकिन मन कह रहा था—  “डर के आगे जीत है।” ओला बुक की, और पति की आवाज़ कॉल पर मेरे साथ थी। होटल पहुंचते ही जब रिसेप्शन पर किसी ने मुस्कुराकर कहा— “आप बिहार से हैं? मैं भी वहीं से हूं”, तो एक अजनबी शहर में जैसे कोई अपना मिल गया।
मीटिंग का पहला दिन बेहद खास था।
वहां देश के अलग-अलग कोनों से लोग आए थे—हर कोई अपने समुदाय, बच्चों और समाज के लिए कुछ न कुछ कर रहा था। सबकी बातें सुनकर लगा, “कितना कुछ है जो हम मिलकर कर सकते हैं।” भाषा अलग थी, पर दिलों की बातें एक जैसी थीं। अपनापन, इज़्ज़त और सहयोग ने हम सबको एक धागे में बाँध दिया।
जो वहां सीखा—वो सिर्फ जानकारी नहीं थी, वो जीवन का अनुभव था। लोगों की सोच, उनका काम, और उनका जज़्बा देखकर मुझे लगा— “मैं भी इससे कम नहीं हूं।” मेरे भीतर के आत्मविश्वास ने जैसे एक नई उड़ान भर ली।
वापसी की यात्रा आसान थी, क्योंकि इस बार मैं अकेली नहीं थी— मेरे साथ था नया आत्मविश्वास, नई सोच और कई ऐसे साथी, जिनसे अब गहरा जुड़ाव था। उनमें से एक रवि सर थे, जो मानो अंधेरे में एक चिराग की तरह मेरा मार्गदर्शन कर रहे थे।
"आई-सक्षम" मेरे लिए सिर्फ एक संस्था नहीं रही, वो मेरे पंख बन गई। पहले जहां मैं सिर्फ अपने जिले तक सोचती थी,अब राज्य पार करने का हौसला रखती हूं। मैंने खुद को एक नए रूप में जाना— मजबूत, आत्मनिर्भर और उम्मीद से भरी। अब मेरा सपना है—  जो कुछ भी मैंने सीखा, वो अपने साथियों तक पहुंचाऊं। क्योंकि बदलाव की शुरुआत हमसे होती है।
एक कदम, एक हिम्मत, और फिर वही उड़ान जो ज़िंदगी को एक नई ऊँचाई देती है।
लवली सिंह
बडी (मुज़फ्फरपुर)

Friday, June 13, 2025

"कदम छोटा था, असर गहराई तक गया"

कहानी उन तीन किशोरियों – निशा, पारो और क्रांति की है, जिनके एडमिशन के लिए मैं लगातार प्रयास कर रही थी।

हर बार जब मैं उनके घर जाती, मैं सिर्फ एक ही बात कहती –
“अपने बच्चों को पढ़ने का पूरा मौका दीजिए, पढ़ाई से ही उनका भविष्य संवरेगा।”

आर्थिक परेशानियां बार-बार सामने आईं, लेकिन मैंने हार नहीं मानी।
हर बार मैं नंदनी का उदाहरण देती – उसी गांव की एक SC समुदाय की लड़की, जो आज बिहार पुलिस की तैयारी कर रही है।

मैं कहती – “अगर नंदनी कर सकती है, तो आपकी बेटी भी कर सकती है।” कभी-कभी लगता कि शायद मेरी बातें अनसुनी रह जाएंगी, लेकिन दिल में एक भरोसा था कि एक दिन जरूर समझेंगे।

और फिर वो दिन आया – उस किशोरी का एडमिशन हो गया। लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हुई। एडमिशन के बाद वह सेशन में नहीं आ रही थी। मेरा मन थोड़ा परेशान था। मैं खुद उसके घर गई, उसके पेरेंट्स से मिली। उन्होंने कहा –“हां दीदी, अब हमारी बेटी स्कूल जा रही है।”
उस पल मेरे चेहरे पर जो मुस्कान थी, वो शब्दों में बयां नहीं कर सकती। और फिर, कुछ दिन बाद जब मैंने पारो, क्रांति और निशा से मिलकर देखा कि वो लड़की सच में स्कूल जा रही है, पढ़ाई कर रही है, मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा।
उसकी आंखों में चमक थी, उसके शब्दों में आत्मविश्वास था – “मैं स्कूल जाकर बहुत खुश हूं।वो एक पल मेरे लिए अनमोल था – जैसे मेरी मेहनत रंग लाई हो।
यह कहानी सिर्फ एक बच्ची की नहीं है।
यह हर उस लड़की की कहानी है जो सिर्फ एक मौके की तलाश में है। और यह कहानी हर उस इंसान की भी है – जो बिना थके, बिना रुके, लड़कियों के लिए वो मौका बना रहा है।
"क्योंकि जब कोई एक लड़की आगे बढ़ती है, तो उसके साथ एक पूरा समाज आगे बढ़ता है।"
निशा भारती 
जमुई