Wednesday, July 24, 2024

मुझे सक्षम बना रही है फ़ेलोशिप- निभा

आज मैं आप सभी के साथ अपने जीवन की कुछ विशेष बातें, जिनका मुझ पर प्रभाव पड़ा है, साझा रही हूँ। कक्षा एक से पाँच तक मेरी बड़ी बहन ने मेरी पढ़ाई में मदद की। जब मैं कक्षा छः में गयी तो मुझे कोचिंग पढ़ने का मौका मिला जो घर से कुछ दूरी पर था।

 

तीन महीने बाद जब कोचिंग में टेस्ट (test) हुआ तो मैं उसमें टॉप 10 में आयी। जिससे वहाँ के स्टूडेंट मेरे से सही से बातचीत करने लगे और धीरे-धीरे मेरे दोस्त बनने लगे। एक बार मेरी कोचिंग में एक टेस्ट हुआ। जिसमें मैं प्रथम आई और मुझे जूनियर इंग्लिश ग्रामर (English Grammar) की किताब मिली। वहाँ एक लड़की थी जो मुझे पसंद नहीं करती थी, मेरे ऐसे प्रथम आना और पुरस्कार मिलना उसे अच्छा नहीं लगा।


एक दिन मैं कक्षा से बाहर गयी हुई थी। जब वापस आयी तो मैंने देखा कि मेरी चीजें नीचे फेंकी हुई थी। जब मैंने सबसे पूछा कि यह किसने किया है?


वो ज़ोर से चिल्लाने लगी और बोली कि मैंने किया है।


दूसरे दिन उसने अपने पापा को बुलाया और उस कोचिंग के डायरेक्टर से बात करके मुझे कोचिंग से निकलवा दिया। उसके पापा ने इस काम के लिए कुछ पैसे भी दिए। मुझे बहुत बुरा लगा था। कोचिंग से निकाले जाने के बाद मैंने खुद से ही घर में पढ़ाई करना ज़ारी रखा।

 

मैंने दसवीं की परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की। ग्यारहवीं में मैंने जीवविज्ञान विषय लेने का सोचा और मन बनाया कि किसी अच्छे बाहर के शिक्षक से जीवविज्ञान पढूंगी। इसी बीच मेरी दीदी की शादी हो गयी और मैं अकेले पड़ गयी। पापा की तबियत भी ज्यादा खराब होने के कारण 20 दिन ता क्वो हॉस्पिटल में ही भर्ती रहे।


घर की आर्थिक स्थिति इतनी बिगड़ गयी कि मैं बाहर जाकर पढ़ना तो दूर, घर में ही पढ़ाई पर ध्यान नहीं दे पायी। इस तरह बिना पढ़े ग्यारहवीं निकल गयी और 2020 में (बारहवीं में) मेरी दीदी और दादी का देहांत कोविड-19 के कारण हो गया था।

 

उस समय घर में बिना किसी के दिशा-निर्देश के पढ़ाई करना मेरे लिए कठिन हो रहा था। मेरे पास स्मार्ट फ़ोन या इन्टरनेट जैसी सुविधाएँ भी नहीं थी जिसके माध्यम से मैं घर में पढ़ाई कर पाती। फरवरी 2021 में मैंने बारहवीं की परीक्षा अछे अंको से उत्तीर्ण की।

 

फिर मैंने बीएससी कोर्स में कॉलेज में नामांकन कराया और घर पर ही रहकर पढ़ने लगी। 2022 में i-सक्षम के कुछ लोग मेरे घर आये तब मुझे फ़ेलोशिप के बारे में जानकर बहुत ख़ुशी हुई थी। आज मैंने अपनी फ़ेलोशिप के डेढ़ वर्ष पूरे कर लिए हैं, मुझे इस बात पर भी गर्व है।

 

पहले मैं अकेले रहना पसंद करती थी। लोगो से बातें करना, हँसना, मिलना-जुलना मुझे पसंद नहीं था। कम्युनिटी में जाकर बात करना तो बहुत बड़ी बात थी। मुझ में आत्म-विश्वास की बहुत कमी थी। मैं अपने लिए आवाज तक नहीं उठा पाती थी।

 

वहीँ आज मैं अपने लिए तो क्या दूसरों के लिए भी पक्ष ले सकती हूँ। घर से बाहर अकेले जा सकती हूँ। ना सिर्फ तेघरा, बेगूसराय या बाज़ार बल्कि पटना तक अपना डी.एल.एड का एग्जाम देने अकेले ही गयी थी। कम्युनिटी के लोगो से किसी भी टॉपिक पर बात कर सकती हूँ। मैं अपने निर्णय खुद लेने में सक्षम हुई हूँ और परिवार के लोग भी मेरी बातें मानने लगे हैं।


मुझे बच्चों को सिखाने का भी एक अवसर मिला, जो मुझे बहुत पसंद भी आया।


 


यह सब बदलाव हो पाए क्योंकि हमारा अलग-अलग तरीकों से क्षमतावर्धन के सेशंस (sessions) होते रहते हैं। जैसे- आइडेंटिटी, ताकत और कमजोरी, आइसबर्ग, एजेंसी आदि। बढ़ते कदम, बडी टॉक और वीकली कॉल्स में छोटे-छोटे गोल बनाकर उनपर आगे बढ़ने से भी मुझे खुद में बहुत सुधार दिख रहे हैं।


अभी फ़ेलोशिप के छ: महीने और बाकी हैं और मैं भी अभी बहुत कुछ सीखने के लिए आतुर हूँ।

 

निभा

बैच-10, बेगूसराय


अभिभावकों ने दूसरे जिले जाने के लिए किया मना, पर मैंने हार नहीं मानी!

मैं नौवें बैच की गया जिले की एडु-लीडर ‘रेखा’ अपना सिलेक्शन (selection) बडी इंटर्न (Buddy Intern) के रूप में होने के कारण बहुत खुश और गौरवान्वित महसूस कर रही हूँ।

जब मैंने अपनी इस उपलब्धि के बारे में और साथ में आये अन्य जिलों में काम करने जाने के अवसरों के बारे में अपने घरवालों को बताया तो मेरे दादा-दादी बहुत खुश हुए। उन्होंने मुझे अच्छा काम और नाम करने का आशीर्वाद दिया। परन्तु मेरे मम्मी-पापा ने मुझे इस कार्य को करने के लिए मना कर दिया।


मेरे पापा का कहना था कि “इसी जिले में यदि कोई काम मिल रहा हो तो कर सकती हो। किसी और जिले में काम करने के लिए जाना पड़ रहा है तो काम छोड़ दो”!


मैंने भी अपनी बात अपने मम्मी-पापा के सामने रखी। मैंने पापा से एक सवाल करते हुए कहा कि पापा, मैं अपना काम छोड़ दूंगी। पर शर्त यह है कि आप मुझे हर महीने 10 हज़ार रूपये दीजियेगा। 


पापा ने उत्तर दिया कि जितना तुम्हारा खर्च है, उतना हम दे देंगें।


मैंने कहा पापा आप ध्यान से सुनकर बताइए कि क्या आप मुझे मेरा पूरा खर्चा (10 हज़ार रूपये) देने के लिए तैयार हैं? 

थोड़ी देर के लिए पापा कुछ नहीं बोले। 


फिर कुछ देर बाद कहते हैं कि “ठीक है”। यह तुम्हारा निर्णय है, थोड़ा और सोच-विचार कर लेना। अपने घर की स्थिति से भी तुम परिचित ही हो। 


पापा यह बात इसलिए बोले क्योंकि मैं घर की अकेली लड़की हूँ। मेरा कोई भाई-बहन नहीं है। मैंने भी पापा को आश्वासन दिया कि ठीक है पापा। मेरी वजह से आपको या मम्मी को किसी तरह की कोई भी दिक्कत नहीं होगी।


इस तरह से मैंने अपने घरवालों को मनाया। गर्मी में 46 डिग्री तापमान वाले दिन मैं मुंगेर जिले में बडी इंटर्न इंडक्शन को अटेंड (attend) करने के लिए रवाना हुई। गर्मी और लू के कारण यह सफ़र मुश्किलों भरा जरुर रहा पर वो कहते हैं ना... 


लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती, 

कोशिश करने वालो की हार नहीं होती।



रेखा कुमारी

बडी इंटर्न, गया


“महिलाओ के अधिकार”- सोच व कविता

वही समाज, जो महिलाओं को रोज नए ताने मारता है। उसी समाज के सामने आप ज्ञान एवं कौशल के माध्यम से उनके इस तानाशाही एवं पित्रसत्तामक सोच को बदलने के लिए कुछ ऐसा कर जाते हैं कि वही लोग अपने घर की महिलाओं को भी आपके जैसा बनाने का सोचने लगते हैं। तो मानो सच में अपनी “जीत” प्रतीत होती है।

कहते हैं ना कि यदि किसी महिला के पास अपनी आवाज़ हैं तो वह एक मजबूत महिला हैं। इसे मैंने अपने जीवन में सार्थक होते हुए देखा हैं।


i-सक्षम के इस सफ़र में बहुत सारी महिलाओं ने जब अपने ही घर की दीवारों में अपने लिए आवाज़ उठाना शुरू किया तो पहले तो घरवालों से और फिर समाज में बहुत सारी चुनौतियों का सामना करना पड़ा। 


लेकिन जब अपने अधिकार के लिए खड़ी रहीं, डटी रहीं, तो वही समाज बाद में उन्हें अपने गाँव के रोल मॉडल के रूप में देखता है।


इसी सोच के साथ मैं एक कविता प्रस्तुत करना चाहता हूँ।


“महिलाओं के अधिकार”


आवाज़ मैंने उठाई, अपने ही घर की दीवारों में,

समाज की रुखी निगाहों से बदबदाई मैं।


मेरी आवाज़ को बदचलन, घरवाले कहते थे,

पर धीरे-धीरे समझे, वो भी अब समाज कहते हैं।


स्वतंत्रता की हवा में, बढ़ रहा है घर मेरा,

Voice and Choice से, बना नया रंग हमारा।


उड़ी ऊँची राहों पर, महकते हैं सपने,

आज़ादी की पहचान में, बदलते हैं किस्मतें।


धर्मवीर कुमार

बडी, गया


मनीषा की कोशिशों से नमन बाकी विषय भी पढ़ रहा है

आज मैं आपलोगो के साथ एक बच्चे की कहानी साझा कर रही हूँ। जिसका नाम नमन कुमार है और राजकीय प्राथमिक विद्यालय दरधा चौसज कक्षा 2 का छात्र है। उसके पिता जी का नाम रवि साह है, माता का नाम रजनी देवी है। नमन गणित में बहुत तेज है वो अभी कक्षा 2 में गया है।

                   


नमन जब कक्षा एक में था तब ही वह कक्षा तीन के गणित के प्रश्न हल कर लेता था। जब मेरी बडी (राधा कुमारी) कक्षा अवलोकन के लिए जाती थी तब भी नमन तीसरी कक्षा के प्रश्न हल करने की जिद करता था। 


मेरे विद्यालय जाने के बाद उसमें काफी बदलाव आयें हैं। जैसे पहले वो विद्यालय आना पसंद नहीं करता था। बहुत छुट्टियाँ करता था। लेकिन अब रोज़ विद्यालय आता है। 


पहले सिर्फ गणित ही पढ़ने की जिद किया करता था, लेकिन मेरे समझाने के बाद अब ध्यान से बाकी विषय भी पढ़ता है और होमवर्क भी करके आता है। 


मैंने उसे समझाया कि आपको सफल होने के लिए सभी विषयों का ज्ञान होना आवश्यक है। हिंदी और अंग्रेजी विषय में उसे अल्फाबेट्स और ‘अ से य’ तक ही वर्णमाला का ज्ञान था। परन्तु अभी उसे दिनों के नाम, महीनों के नाम और हिंदी में शब्द पढ़ना भी आ गए हैं। 


उसके व्यवहार में भी परिवर्तन आया है। जैसे सभी से आदरपूर्वक बात करना और अपने साथियों की मदद करना। इस तरह की बातें पहले उसमे कम ही ओब्सर्व (observe) करने को मिलती थी। 


मनीषा कुमारी

बैच-10, मुज्ज़फ्फरपुर


नीतू अपनी कक्षा, गाँव और अभिभावकों की सोच में ला रही है बदलाव

जब मैं पहली बार प्राथमिक विद्यालय मुर्रा मनिका गयी तो मैंने देखा कि कक्षा पाँच तक के बच्चे मौजूद होने के बाद भी शिक्षिका ही प्रार्थना करा रही थी। इस बात पर मैंने शिक्षिका से बात करके एक पहल की। कुछ बच्चों को प्रार्थना याद करवाई और तबसे ही मेरे विद्यालय में पहली और दूसरी कक्षा के बच्चे प्रार्थना करा रहे हैं।

पहले मेरे विद्यालय के बच्चे शिक्षक अभिभावक मीटिंग (PTM) के बारे में नहीं जानते थे। लेकिन जब मैंने उन्हें इस बारे में बताया तो अब बच्चे स्वयं ही अपने अभिभावकों को विद्यालय आने के लिए प्रेरित करते हैं। लगभग 20 अभिभावकों की उपस्थिति PTM में दर्ज होती है। 


मेरे विद्यालय में शिक्षण सामग्री (TLM) की भी कमी थी। जबसे मैं विद्यालय जा रही हूँ तबसे अपने हाथ से बनी शिक्षण सामग्री का उपयोग कक्षा में बच्चों को कराती हूँ। इससे बच्चे बहुत मन लगाकर पढ़ते हैं और इस कार्य के लिए प्रधानाध्यापक ने भी मुझे प्रोत्साहित किया था।


जब मुझे पता चला कि मेरे मुर्रा मनिका (गाँव का नाम) की कुछ महिलाओं को अपना नाम तक लिखना नहीं आ रहा है। तो मैंने निश्चय किया कि मैं रविवार के दिन इस कार्य के लिए समय निकालूँगी। हर सप्ताह मैंने दो-तीन महिलाओं को नाम लिखना सिखाने का टारगेट लिए और अब तक मैं अपने गाँव की दस महिलाओं को नाम लिखना सिखा पायी हूँ। इस कार्य को करने के लिए मुझे एक-एक महिला के घर जाकर सिखाना पड़ा। परन्तु मैं खुश हूँ कि उन सभी ने अपना नाम लिखना सीखा। 


नीतू कुमारी

बैच- 10, मुज्ज़फ्फरपुर


महिलाओं के साथ शिक्षा के महत्त्व पर चर्चा हुई

साथियों, ‘उड़ान की नई सोच’ बांद्रा ब्लॉक क्लस्टर में बैच 10 के साथियों के द्वारा यह तय किया गया था कि पीरापुर मुशहरी टोला की पांच ऐसी लड़कियों को चिन्हित कर स्कूल जाने के लिए प्रेरित करेंगे, जो स्कूल नहीं जाती हैं।

इस गोल (goal) को पूरा करने के लिए जब सभी साथी मुशहरी टोला में गए तो उन्हें कई तरह की मुसीबतों का सामना करना पड़ा। जैसे गाँव में लोग उन्हें अपशब्द भी कह रहे थे। लेकिन इस क्लस्टर की एडु-लीडर्स ने हार नहीं मानी। 


उन्होंने उन लड़कियों को इकठ्ठा कर ही लिया, जो स्कूल नहीं जाती थी। साथ में गाँव की महिलाओ को भी इकठ्ठा किया।

जब एडु-लीडर्स इन सभी को स्वयं का उदाहरण देकर शिक्षा के महत्त्व को समझा रही थी तो समुदाय के लोग विद्यालय और शिक्षकों के प्रति अपनी उदासीनता साझा कर रहे थे। उनका कहना था कि विद्यालय परिवार बच्चों पर ध्यान नहीं देता है। 


हमने इस बात को यह उत्तर देते हुए समझाया कि आप नियमित रूप से अपने बच्चों को विद्यालय भेजेंगें तो इस तरह की समस्या नहीं आएगी। 


महिलाओं को शिक्षा का महत्त्व समझाते हुए हमने कहा कि आपके बच्चे जब विद्यालय जायेंगें तभी शिक्षित होंगें और अपने अधिकारों के प्रति जागरूक रहेंगें। उनका भविष्य भी उज्जवल होगा और एक अच्छे नागरिक के रूप में उभरेंगें। 

इन्हीं बातों को सुनकर उन्होंने अपने बच्चों को विद्यालय भेजने का प्रण लिया। 


अंशु 

बैच-10, मुजफ्फरपुर


Tuesday, July 23, 2024

पेड़ पर कविता

फल के कारण लोग लगाता 
पर काम लोग का बड़ा है आता।

धूप पानी से लड़ कर बढ़ता

ठंडी धूप बरसात है सहता।


जब लोग का पेट भर है जाता

तब काट के नीचे इसे गिराता।


फिर भी मुंह से उफ्फ न करता

सबकुछ यूं ही चुप चाप है सहता।


बनकर लकड़ी आग जलाता 

लोग इसपर है भोजन पकाता।


दवा के रूप में बन है जाता 

सब मरीजों को शिफा दिलाता।


बनकर कागज खुद को दिखलाता

लोगों को विद्वान बनाता।


आओ पेड़ को हम लगाते 

अपने जिवन को बढ़ाते।


शाहिला 

बैच-10, मुंगेर 


सुकन्या समृद्धि योजना के बारे में जागरूकता

नमस्ते साथियों,  

मैं अपने क्लस्टर में बने हुए गोल “सुकन्या समृद्धि योजना के बारे में महिलाओं को बताना” को पूरा करने के लिए अपने समुदाय में निकली तो सबसे पहले मेरे घर के बाहर मम्मी के साथ कुछ महिलाएँ बैठी थी। मैंने उनसे ही बातचीत करना सही समझा।

मैंने उनको इस योजना के बारे में बताते हुए कहा कि सुकन्या समृद्धि योजना का फॉर्म दस साल की लड़की तक का भर सकते हैं। इसके लिए आपको साल में 250 रुपये जमा करना हैं। इसकी राशि आपको 18 साल के बाद मिलेगी। यह फॉर्म आप पोस्ट-ऑफिस में जा कर भर सकते हैं। इसके अलावा इसके साथ लगने वाले डाक्यूमेंट के बारे में भी मैंने बताया।

फिर मैं आगे बढ़ी, तो एक महिला मिली। मैं उनसे ऐसे ही बात करने लगी। हमें बात करते देख एक और महिला और उसके पीछे एक दादी भी आ गयी। जब मैंने उनसे पूछा कि आपलोगो को “सुकन्या समृद्धि योजना” के बारे में पता है?

तो वो बोली नहीं, ये क्या होता हैं? 

तब मैंने उनको सब कुछ बताते हुए कहा कि ये फॉर्म आप पोस्टऑफिस से भर सकते हैं। 

फिर मैं घर आ गयी। तो कुछ देर के बाद वो दादी आई और बोली कि बेटी हम ना भूल गए।

उन्होंने अपनी बहु से फोन माँगा और अपनी बेटी को कॉल करने के लिये बोला। दादी को जो भी याद था वो उन्होंने अपनी बेटी को बताया।

और मुझे बोला कि मेरी बेटी आपसे बात करना चाहती है। तब मैंने उनकी बेटी से बात की और सारी चीजों की जानकारी उन्हें दी।

कुल मिलाकर सुकन्या समृद्धि योजना के बारे में मैंने 8 महिलाओं को जानकारी दी। 

मोंटी 

बैच-10, मुंगेर 


गाँव-समाज में कुछ गलत होने पर बहुएँ उठा रही हैं अपनी voice

कुछ दिनों पहले की बात है। मेरे घर के पास एक 18-19 साल का लड़का है, जो हमेशा नशा में रहता है। आस-पड़ौस में लड़ाई- झगड़ा भी करता रहता है। एक दिन उसके मम्मी-पापा ने परेशान होकर पास के कुछ लड़कों से शिकायत की और वो सब उसके घर पर जाकर मारपीट करने लगे।

मेरे बेटे ने मुझे यह सब आकर बताया कि अमर (बदला हुआ नाम) को सब मार रहे हैं। पहले तो मैंने यह बात नजरंदाज की। क्योंकि मेरे घरवालों को इन सब मामलो में मेरा बोलना पसंद नहीं है। इतना झगड़ा देख कर मैं खुद को रोक नहीं पाई और मैं उसके घर पर पहुँच गई।


वहाँ पर चार-पाँच लड़के उसे बहुत बुरी तरह से मार रहे थे। मुझे उस पर दया भी आ रही थी और गुस्सा भी आ रहा था। फिर भी मैं उसकी माँ के पास गई और बोली, सब मिलकर आपके बेटे को मार रहे हैं। 

आप जाकर उनको रोकिए, न!


उसकी माँ का जबाब सुनकर मैं दंग रह गई, जब वो बोली कि उसको भूत आता है, इसका यही इलाज है। 


यह बात सुनकर मैं घर तो आ गई। लेकिन मेरा मन नहीं मान रहा था। कुछ देर में उन लड़को को किसी ने हटा दिया। 


थोड़ी देर बाद वो सब मेरे घर के सामने, पेड़ से बांध कर उस लड़के को मरने लगे।, काफ़ी भीड़ इकट्ठा हो गयी। सब तमाशा देख रहे थे, अब मुझसे रहा नहीं गया।


मैंने उनसे कहा कि ये सब गलत है। किसी को इस तरह से मारना सही नहीं है। अमानवीय भी है। सब कहने लगे कि मर्दों के बीच में किसी औरत को नहीं बोलना चाहिए। 


तब मैंने सोचा कि औरत और मर्द की परिभाषा अभी समझाती हूँ। मैंने अपना शस्त्र निकाला और मोबाइल से सबका वीडियो बनाने लगी।

जब सबकी नजर मुझ पर गई तो बोले, ये गलत है। तब मैंने उन्हें कहा कि ये जो आपलोग कर रहे हैं, क्या यह सही है? 


कानून व्यवस्था नाम की कोई चीज होती है। अगर इस बच्चे को भूत पकड़ा है तो ओझा के पास ले जाइए, और अगर ये मानसिक तनाव में है तो डॉक्टर से इलाज करवाएं। 

लड़ाई-झगड़ा इसका समाधान नहीं है। आप सब जितने लोग यहाँ तमाशा देख रहे हैं, सभी फँस जायेंगें। 


मैंने उसकी माँ को भी बहुत सुनाया। कैसी माँ है खड़े होकर देख रही है? अगर ये सब बंद नहीं किए तो ये video viral कर दूँगी। 


मेरे घर में सब मुझे बहुत डांटने लगे, मैं बोली चुप रहिए।

हाँ, मैं बोलूँगी।

क्या कर लेंगे सब देखती हूँ कि कौन क्या कर लेता है।? 


मेरे सामने गलत होगा तो मैं बोलूंगी ही, जो होगा देखा जायेगा। सबको लगा अब ये किसी की नहीं सुनेगी बेकार ही है बोलना। उसके बाद मेरे जेठजी ने आकर उस लड़के की रस्सी खोल दी और उसकी माँ को बोले कि ले जाइए इसको नहला कर सुला दीजिए। 


जब ये सामान्य हो जाए तो डॉक्टर से दिखा दीजिए। फिर धीरे-धीरे सब अपने अपने घर चले गए और मेरे घर कुछ लोग गुस्से में थे, तो कुछ लोग खुश थे। 


मेरा बेटा मेरे कंधे पर हाथ रख कर और हँस कर बोला मम्मी “voice and choice for every woman” मैं भी हँस कर उसके गले लग गई।

 

रक्षिता सिन्हा

बैच- 10,मुंगेर 


पर्यावरण का सन्देश- कविता

पर्यावरण का संदेश

हरी-भरी ये धरती प्यारी,

इसकी रक्षा है हमारी जिम्मेदारी।


नदियों का कल-कल बहना,

स्वच्छ हवा का महकना।


पेड़-पौधों की हरियाली,

जीवन में लाए खुशहाली।


जीव-जंतुओं का बसेरा,

सुरक्षित हो उनका घेरा।


प्रकृति हमें देती है,

सभी कुछ जो जीने के लिए है।


संभालें हम इसे मिलकर,

तभी बच पाएगा ये सुंदर।


प्रदूषण को दूर भगाएं,

स्वच्छता का दीप जलाएं।


संवेदनशील बनें पर्यावरण के लिए,

साथ चलें एक बेहतर भविष्य के लिए।


आओ मिलकर संकल्प लें,

धरती को स्वर्ग सा बनाए रखें।


पर्यावरण दिवस है याद दिलाता,

प्रकृति का सम्मान हमसे जोड़ता।


रश्मि 

बैच-9, मुंगेर 


आयशा औए हलिमा का अब पढ़ाई में मन लगने लगा

नमस्ते साथियों,

आज मैं आपलोगों के साथ समुदाय में किया गया एक कार्य साझा करना चाह रही हूँ। इमेज में दिखाई दे रही बच्चियों के नाम ‘आयशा और हलिमा सुल्ताना’ हैं। इन दोनों बच्चियों को विद्यालय से जोड़ पाना ही मेरी उपलब्धि है।



आयशा जो कि विद्यालय में कुछ बोलने से बहुत डरती थी यहाँ तक कि घर में भी बहुत कम बोलती थी और पढ़ाई में तो इसका बिलकुल ही मन नहीं लगता था। मैं हमेशा विद्यालय से निकल कर थोड़ा समय कम्यूनिटी में भी देती थी। मैं पिछले तीन महीने से आयशा के साथ मेहनत कर रही थी ताकि मैं इसमें थोड़ा बदलाव ला पाऊँ। 


जिससे कि इसका मन पढ़ाई में लगे और ये विद्यालय आना शुरू कर दे। इससे लगातार बात और मुलाकात से निकलकर आया कि यदि मैं इन्हें हर महीने एक कॉपी लिखने के लिए दूँ, तब ये विद्यालय आएगी। आयशा को विद्यालय से जोड़ने के लिए मैंने इसकी बात मानी और हर महीने इन्हें एक कॉपी पेन/पेंसिल देने लगी। परिणामस्वरूप ये बच्ची मन लगाकर पढ़ने लगी। इसी तरह ये आगे बढ़ने लगी और थोड़ा बोलने भी लगी।  

इसी तरह ‘हलिमा’ भी थी। जिसके पास किताबे नहीं थी। 


हलिमा की माँ कुछ महिलाओं के साथ मेरे घर पर आई और बोलने लगी कि “मेरी बेटी को विद्यालय में किताब नहीं मिली है। मेरी बेटी रोती रहती है”।


आप सर से बात करके इसे किताब दिलवा दीजिए न। 


तो मैंने कहाँ आंटी आपलोग भी विद्यालय आइए और सर से बात कीजिए

आपलोग भी सीखिए, थोड़ा बाहर निकलिये। 


तब वो बोली, बेटा तुम विद्यालय तो जाती हो ना?

तुम ही सर से बात करके मेरी बेटी हलिमा को किताब दिलवा दो। 


फिर मैंने कहा ठीक है हम दिला देंगे।

पर आप भी विद्यालय आइए और सर से मिलिये। 


वो विद्यालय तक आई, पर उस समय किताब उपलब्ध नहीं थी।


इस केस में मेरी उपलब्धि यह भी रही कि जो महिलायें कभी मोहल्ले से बाहर नहीं जाती थी, उन्हें मैं विद्यालय से जोड़ पाई। उसके बाद मैंने सर से बातचीत करके आयशा और हलिमा को विद्यालय से किताब भी दिलवाई।


मैंने प्रधानाध्यापक से अनुमति लेकर किताबे ढूंढी जो विद्यालय में ही एक बक्से में पड़ी हुई थी। इसका प्रभाव यह देखने को मिला कि विद्यालय बंद रहने के बाबजूद भी ये बच्चियाँ मेरे घर तक पढ़ने के लिए आ रही हैं। हर रोज शाम पाँच बजे से सात बजे आती हैं और दोनों गृहकार्य भी पूरा करती हैं। 

ये बदलाव देख कर इनके अभिभावक भी बोलते हैं कि हम तो थक ही गए थे बोलते-बोलते, लेकिन आपने अपनी मेहनत और लगन से इनका पढ़ने में मन लगने लगा


ये दोनों अब इतनी खुशी के साथ पढ़ाई करती हैं कि मुझे भी अपनी बचपन याद आ गयी। क्योंकि मैं भी विद्यालय जाने में बहुत डरती थी। 


इसी तरह मैं हमेशा बच्चों, ल़डकियों, महिलाओं से जुड़ी रही, जिससे मुझे सामुदायिक कार्य करने में काफी मदद मिली। मेरे परिवारजन भी ऐसे सामाजिक काम को करने में मेरी सहायता करते हैं। ये बदलाव मेरे लिए भी बहुत महत्वपूर्ण था। 


अब बहुत सारी महिलाएँ मेरे घर तक आती हैं और मुझसे खुलकर मदद मांगती हैं। खुद के कार्य खुद से करते देख, मैं बहुत खुश होती हूँ और हिम्मत मिलती है कि मैं और थोड़ी आगे बढ़ कर हर महिला को सक्षम बना पाऊँ। ताकि वे अपनी कार्य को खुद करें और अपने बेटियों को बढ़ने और पढ़ने दे। उन्हें भी आजादी मिले। 


निखत 

बैच-9,मुंगेर