Monday, May 13, 2024

नाज़िया और खुशबू का कम्युनिटी बोंड (bond)

मैं अपने क्लस्टर के काम को करने के लिए सप्ताह में दो दिन अपने समुदाय में जाती हूँ। जिसमें औरतों को हस्ताक्षर करना,लड़कियों को पढ़ाई से जोड़ना, बच्चों को स्कूल से जोड़ना, स्कूल में PTM करवाना और इसके अलावा भी अनेक कार्यों को करती हूँ। 

इन कार्यों को करने के दौरान मैंने कम्युनिटी को नज़दीकी से जाना जैसे लड़कियों के मनोभाव क्या हैं, समाज को किन कौशलों की आवश्यकता है जिससे लोग स्वयं को सक्षम समझे आदि। ये सभी अनुभव मेरे लिए भी नए थे।

A close up of a child

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इस बार मैं आपके साथ ऐसे ही एक अनूठे अनुभव को आपके साथ साझा करना चाहती हूँ। मेरी कम्युनिटी में एक ‘नाज़िया’ नाम की बच्ची रहती है। जब भी मैं फील्ड विजिट पर जाती थी तो नाज़िया मुझे बड़े ध्यान से देखती रहती थी। एक दिन मैंने उसे पास बुलाया और थोड़ी बात की। 

वहाँ के लोग कहने लगे कि ये तो किसी के पास नहीं जाती है। फिर जब-जब मैं फील्ड वर्क के लिए कम्युनिटी में निकलती थी तो उससे दो मिनट बात जरुर करती थी। हम दोनों का एक-दूसरे के प्रति लगाव बढ़ने लगा। आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि नाज़िया मात्र दो वर्ष की ही है। मुझे भी नाज़िया से मिलना अच्छा लगने लगा। 

एक दिन मैं नाज़िया को अपने घर भी लायी थी। शाम तक उसे अपने घर में रखा। वो बिलकुल नहीं रोयी। एक-बार भी उसने अपने मम्मी-पापा को याद नहीं किया। 

सच कहूँ तो मुझे भी नाज़िया से बहुत लगाव हो गया है। मैं जब भी कम्युनिटी जाती हूँ, उससे जरुर मिलती हूँ।

खुशबू

बैच-9, मुंगेर                                                                                                                                                 


नौवीं कक्षा की गुड़िया की शादी होने से रुकवायी

कुछ दिनों पहले मेरे मामा जी की बेटी ‘गुड़िया’ जो नौवीं कक्षा में पढ़ती है, वो हमारे घर आई थी। उसकी उम्र अभी 16 साल ही है तो वो अपनी दादी के साथ यहाँ आई थी।  

मेरे ही गाँव के एक बुजुर्ग को गुड़िया अपने लड़के के लिए पसंद आ गयी। वो लड़का डिवोर्सी था। उन्होंने हमारे घर उसके लिए रिश्ता भिजवा दिया और साथ में बोला कि हम लोग दहेज में कुछ नहीं लेंगें। कोई शगुन तिलक नहीं और ना ही कोई सामान।

यह सुनकर सब लोग उसकी शादी के लिए ऐसे खुश होने लगे, मानो कितना एहसान किया हो। घरवाले बोल रहे थे कि गुड़िया के तो जैसे भाग ही खुल गए। और सब लोग शादी के लिए मान भी गए।



मुझे यह सब कुछ ठीक नहीं लगा तो मैंने अपनी मम्मी से बात करना सही समझा। मम्मी ने मुझे डाँटते हुए कहा कि तुम अभी छोटी हो। 


तुम इन सब बातों में मत पड़ो!

तुम्हें दुनियादारी की समझ कहाँ हैं। ऐसे रिश्ते बार-बार नहीं आते हैं। उनकी एक भी माँग नहीं है। फिर मैंने उन्हें समझाया कि गुड़िया अभी पढ़ ही रही है। उसकी उम्र भी शादी करने की नहीं है।


मम्मी ने यह बात मामा जी को बताई। परन्तु मामा नहीं माने। 


फिर मैंने मामा से बात की। उन्हें सब बताया कि वो लड़का कैसा है? शराब पीकर, गाली-गलोच करता है और अपनी पहली पत्नी के साथ मारपीट भी करता था। इसी कारण तो उनका डिवोर्स हुआ था। उसकी पत्नी तो चली गयी वो अभी भी यही सब करता है। 

क्या आप चाहते हैं कि गुड़िया के साथ ऐसा हो? 

अभी गुड़िया की उम्र भी नहीं है शादी की। उसे पढ़ने दीजिये। पढ़-लिख कर कुछ अच्छा करेगी तो तो रिश्ते अपने आप आयेंगें। 

वो मेरी बात मान गए और उन्होंने कहा कि गुडिया अभी आगे की पढ़ाई पूरी करेगी। यह रिश्ता यहीं पर रुक गया और मैं इसे रुकवा कर बहुत खुश महसूस कर रही थी।


सानिया

बैच-10, मुज़फ्फरपुर


सृष्टि अब कक्षा में बोलने लगी है - राधा

जब आकांक्षा (एडु-लीडर, बैच 10) अपने विद्यालय पहली बार गयी थी तो उनका ध्यान अपनी कक्षा की एक बच्ची ‘सृष्टि’ पर पड़ा। उसकी और ध्यान इसलिए गया कि उसका हाव-भाव, शरीर, कक्षा में बैठने का तरीका और व्यव्हार बाकी बच्चों से अलग था। वो कुछ मायूस सी भी दिख रही थी। कुछ दिनों में आकांक्षा को समझ आ गया कि यह बच्ची डरी-सहमी सी रहती है। गरीबी रेखा के नीचे आने वाले घर में जन्मी सृष्टि के पिता मजदूरी करते हैं और माता गृहणी हैं।


पहली बार तो काफी पूछने पर भी सृष्टि कुछ नहीं बोली थी परन्तु धीरे-धीरे आकांक्षा ने उसके लिए अलग से रणनीति बनाना शुरू किया। 

A person looking at a map

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गतिविधि के माध्यम से गणित, अंग्रेजी जैसे विषय समझाना शुरू किया। और कुछ ही दिनों में सृष्टि में बदलाव देखा गया। वो अब बोलने लगी है, अपनी बात रखने लगी है। माइंडफुलनेस और गतिविधियों में भाग लेती है। 


एक दिन प्रधानाध्यापिका सभी कक्षाओं के दौरे पर थी तो उन्होंने सृष्टि को गतिविधि में भाग लेते देखा तो वो आश्चर्यचकित हो गयी। उन्होंने अपना फ़ोन निकाल कर सृष्टि की एक विडियो भी रिकॉर्ड की। वो इस बात को सराह रही थी कि सृष्टि अब कक्षा में बोलने लगी है। मुझे भी प्रधानाध्यापिका से शाबाशी मिली। मैं फ़ेलोशिप के माध्यम से एक बच्ची के जीवन में कुछ तो योगदान दे पायी, मुझे इस बात से संतुष्टि भी मिलती है।


राधा

कम्युनिकेशन बडी, मुज़फ्फरपुर


विद्यालय का भवन टूटने पर बच्चों में ख़ुशी का माहौल

आज (29.03.2024) जब मैं विद्यालय पहुँची तो बाकी दिनों के अपेक्षा में बच्चे बहुत खुश नज़र आ रहे थे। कारण आप तस्वीर मे देख सकते है। यह तस्वीर मध्य विद्यालय हरिहरपुर की है।

हमारे विद्यालय मे एक टूटा हुआ बहुत ही पुराना जर्ज़र भवन था। यह विद्यालय के बीचो-बीच था और विद्यालय में पर्याप्त संख्या में कक्षाएँ भी थी।बच्चों के खेलने-कूदने के स्थान पर यह भवन आ रहा था। इसलिए भी इस का टूटना अनिवार्य था। कम जगह होने के कारण स्कूल में कोई कार्यक्रम नहीं हो पाता था। मुझे इस बात का आभास तब हुआ जब मैंने स्कूल में बाल-उत्सव कराने का प्रस्ताव रखा और जगह नहीं होने के कारण मैं बाल-उत्सव नहीं करा पायी। मुझे इस बात का बहुत दुःख भी हुआ था।



यह कार्य डीएम की अनुमति के बिना नहीं संभव हो सकता था। प्रधानाध्यापिका ने चार-पाँच बार डीएम को पत्र लिखा और तब जाकर अनुमति मिली।


कहा जाता है कि जब कुछ नया होता है, नया बनता है तब लोग खुश होते हैं। लेकिन आज मैंने इसके विपरीत बच्चों में ख़ुशी देखी है। बच्चे ही नहीं विद्यालय से जुड़ा हर व्यक्ति खुश है।


कारण स्पष्ट है कि बच्चों को खेलने के लिए के मैदान मिलेगा। शिक्षकों को इस बात की ख़ुशी है कि उन्हें अब किसी कार्यक्रम को करने में समस्या नहीं होगी। प्रधानाध्यापिका को ख़ुशी है कि उन्हें और पत्र नहीं लिखने होंगें। और मुझे ख़ुशी है कि बाल-उत्सव जैसे कार्यक्रम के लिए अब पर्याप्त जगह हो गयी है।


मुस्कान कुमारी

बैच-9, गया


कविता- मिलकर एक पहचान बनाएं

चलो आओ साथ मिले मिलकर एक पहचान बनायें

कर देंगे हम ऐसा काम जो किसी ने सोच ना होगा 

हम हैं काली हम हैं दुर्गा हमी से चलता ये संसार हमारा..

चलो आओ साथ मिले मिलकर एक पहचान बनाएं.. 

सूरज जैसी आग बनेंगे, नई रौशनी का नाम बनेंगे..

अब नहीं सोचेंगे कि लोग क्या कहेंगे?

केवल सुनेंगे अपने सपनों की आवाज़

नहीं डरेंगे नहीं डरेंगे लोगों की बातों से नहीं डरेंगे..


चलो आओ साथ मिले मिलकर एक पहचान बनाएं.. 

सोना जैसा उभरेंगें हीरे जैसा उभरेंगें 

हम हैं आज की नारी नया कुछ कर दिखायेंगे 

साथ मिलकर तोड़ेंगे हर एक दीवार हम 

अपने सपनों को आगे बढ़ाएंगे 

अगर कोई आएगा हमारे सपनों के बीच भूल जाएंगे कोई है हमारा..


चलो आओ साथ मिले मिलकर एक पहचान बनाएं.. 

ऐसा बनाएंगे आत्मविश्वास ना टूटेगा ना टूटने देंगे 

जो हमें नीची नजरों से देखेगा, दिखा देंगे 

अवतारी ना अबला ना बेचारी हम हैं 

आज के युग की नारी हैं, 

जब हम ही जननी हैं तो क्यों मार दिया जाता है 

जन्म लेने से पहले, नहीं रखेंगे कोई आशा 

अब खुद से लड़ेंगे, लेंगे अपना अधिकार 

चलो आओ साथ मिले मिलकर एक पहचान बनाएं..


चंचला कुमारी

बैच-10, गया 


सेशन में जाने के लिए सीखना पड़ा टिकट बुक करना

 जब मैं मार्च में CIMP का कोर्स कर रही थी तो प्रत्येक सेशन में कुछ नया सीखने को मिल रहा था। हमारे प्रोफेसर ___________ हमारे सेशंस ऑनलाइन ही लेते थे। हमारी संस्था के अन्य छः साथी भी इस कोर्स को कर रहे थे। जिनके नाम इस प्रकार हैं- रश्मि, निखत, नेहा, प्रियंका, सरिता और शिवानी। 


A group of women standing together

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लेकिन पहली बार कोर्स के दौरान ऐसा हुआ कि हमारा दो दिन (5-6 अप्रैल) का सेशन मुज़फ्फरपुर में ऑफलाइन रखा गया। इस सेशन को अटेंड करने के लिए हम सभी एडु-लीडर्स को खुद से ट्रेन की टिकट बनवा कर खुद ही जाना था। मुझे तो छ: साथी होते हुए भी ऐसा महसूस हो रहा था कि जैसे मुझे अकेले भेजा जा रहा हो! क्योंकि हम सभी पहली बार ट्रेन से जाने वाले थे। हमारे साथ कोई बडी और मेंटर नहीं जा रहे थे। मुझे मन में डर भी लग रहा था कि हम छः लड़कियां (अकेले) यात्रा कैसे करेंगीं। 

परन्तु मैंने किसी तरह लम्बी सांस लेकर, आगे बढ़ने का निश्चय किया। 

सबसे पहले मुझे मेरे एक साथी द्वारा टिकट बनाने का काम दिया गया। हमने तय किया कि एक ही आई-डी से छ: टिकट बनायीं जाएँ तो हमें सीट आसपास मिलने की सम्भावना प्रबल होगी। हम थोडा सहजता से जा पायेंगें।

इस कार्य को करने में नम्रता दीदी और अमन भैया ने मेरी बहुत मदद की। मुझे टिकट बुक करने वाली एप्लीकेशन का नाम बताया और प्रोसेस के बारे में जानकारी दी। 

मैंने अपने परिवारजनों से भी मदद ली। फिर अपना और अपने पाँचों साथियों का टिकट एक साथ बुक किया। इस कार्य करने में जब मैं सफल हुई तो मेरा मनोबल बढ़ा और मुझ में इस यात्रा को करने के लिए और भी आत्मविश्वास जागा।

रश्मि 

बैच-9, मुंगेर


घरवालों के साथ Voice and choice पर चर्चा और अमल

मैं अपने अन्दर हुए Voice & Choice के कारण आये बदलाव का एक अनुभव साझा कर रही हूँ। मुझे फ़ेलोशिप करते हुए डेढ़ वर्ष हो गया है और इस फ़ेलोशिप में मुझे मेरे अन्दर बहुत सारे बदलाव आते दिखें हैं। मेरे अन्दर बदलाव आ रहें हैं और मैं इन्हें पहचान पा रही हूँ यह भी एक बदलाव है। 

मैं कुछ दिन पहले मेरे और परिवार के बीच हुई बात का एक संक्षेप वर्णन आपके साथ साझा कर रही हूँ। पहले तो मैंने अपनी माँ से Voice & Choice पर बात की। और कुछ दिन लगातार इस पर बात करने से वो इस कांसेप्ट को भी समझ गयी। मेरे परिवार को किसी कारणवश बाहर जाना था और मेरी परीक्षा और सेशन भी उन्ही दिनों में प्रस्तावित था। मेरी माँ एक महीने से मुझसे बोल रही थी कि तुम भी चलना साथ। तुम्हें यहाँ अकेले नहीं छोड़ कर जा सकते।

मैंने भी लगभग एक महीने तक अपनी माँ और 3-Cs की सहायता से ये बताने की पूरी कोशिश की कि मेरे लिए परीक्षा और सेशन ज्यादा महत्वपूर्ण है। 

पढ़ने में यह बात सरल लग रही हो सकती है परन्तु एक महीने तक लगातार एक ही टॉपिक पर अपने अभिभावकों को समझाना मेरे लिए बहुत कठिन था। हर रोज़ कोई नया बहाना या कोई नयी बात बीच में लाकर मेरी आवाज़ को अनदेखा किया जा रहा था। मैं फिर भी हार नहीं मान रही थी। 

A group of women sitting on the ground

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मैं खुद को भी समझा रही थी कि पहले तो चलो मेरे पास शब्द नहीं होते थे। मुझे अपनी बात व्यक्त करना नहीं आता था। परन्तु आज मैं वो लड़की हूँ जिसके पास बहुत शब्द है अब अपनी आवाज को रखने के लिए। अब मैं पीछे नहीं रह सकती।  

आज मेरा पूरा परिवार मेरी आवाज की महत्ता समझकर मुझे मेरे कार्य के लिए छोड़ कर अपने उद्देश्यपूर्ति के लिए निकले। यह तब मुमकिन हो पाया जब मैं पहले खुद से लड़ी और फिर 3Cs की मदद से अपने परिवार को समझाया।

मेरे लिए यह चुनौती आसान नहीं थी। परन्तु इसके कारण मेरा हौसला दुगुना हो चुका है। आज मैं, ना सिर्फ अपने, बल्कि अपने परिवारजन के लिए भी voice & choice के प्रति सोचने का माध्यम बन रही हूँ।

रश्मि 

बैच-9, मुंगेर


अकेले दिल्ली आने-जाने की यात्रा का अनुभव

 मैं आप सभी साथी के साथ अपने दिल्ली जाने आने के अनुभव को साझा करने जा रही हूँ। दिल्ली में मेरी दीदी और जीजा जी एक दशक से रहते हैं। जब भी उन लोगों से बात होती तो बोलते थे कि आ जाओ दिल्ली घूमने के लिए। मैंने भी इस बार बोल दिया कि मेरी टिकट बना दो और 10 फरवरी की मेरी टिकट बन भी गयी। 

मैंने पूरे आत्मविश्वास के साथ अपने माता-पिता को बिना बताये ये टिकट बनवा ली। थोडा-बहुत डर तो था मन में परन्तु यह भी पता था कि हिम्मत करुँगी तो पहुँच ही जाऊँगी। और यह आत्मविश्वास मेरे भीतर किशनगंज की यात्रा से आया। हालाँकि मेरे साथ टीम के सदस्य भी थे। 

जब मैंने अपनी माँ को दिल्ली जाने के बारे में बताया तो वो मुझे बहुत तेज से डाँटने लगी। 

माँ बोली कि तुम्हें समझ नहीं आता क्या? 

तुम अकेले कैसे जाओगी? 

गाँव के लोग क्या बोलेंगें?

मुझसे तरह-तरह के प्रश्न करने लगी।

मैंने अपनी माँ को समझाया कि गाँव के लोग तुम्हें ताने देने के आलवे कुछ नहीं दे सकते हैं उनका यही काम है।

स्मृति दीदी और आँचल दीदी का उदाहरण देते हुए उन्हें समझाया कि ये दोनों भी तो दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरू अकेले आती-जाती हैं। तो मैं क्यों नहीं जा सकती? 

एक समय था जब तुम्हे लगता था कि मैं अकेले जमुई भी नहीं जा सकती! फिर भी तुमने मुझपर विश्वास करके मुझे जाने का मौका मुझे दिया। तो इस बार भी मुझपर विश्वास करो, मैं जा सकती हूँ।

इतना कहने की देर थी। माँ ने मेरी तरफ से पापा से भी बात की। मेरे पापा ने मुझसे कोई प्रश्न नहीं किया। उन्हें मुझ पर विश्वास था कि मैं जा सकती हूँ। इस तरह से मैं अपने माँ-पापा की सहमति से दिल्ली के लिए निकल पड़ी।

जब मैं अपनी सीट पर बैठी थी तो मैं अपने आस-पास के लोगों को नोटिस कर रही थी कि कौन क्या कर रहा है? किसके साथ है? तभी मुझे कुछ लड़कियाँ दिखीं जो अकेले ही थी। उन्हें देखकर मेरी हिम्मत बढ़ी। 

अगली सुबह मैं नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उतरी तो मेरे जीजा जी मुझे लेने आये हुए थे। हम दोनों साथ हुए और मैं पहली बार मेट्रो पर चढ़ी। दिल्ली में घूमने की अच्छी सुविधा है। प्रत्येक दो मिनट में मेट्रो आती है।

दिल्ली एक महानगर है। वहाँ के लोग, रहन-सहन उनका माइंडसेट (mindset) जमुई के लोगो से बहुत अलग है। सब अपनी दुनियाँ में खुश हैं। ऐसा लगता है मानो किसी को किसी से कोई मतलब नहीं है। लोग खुले विचारों के हैं। दिल्ली में लड़कियाँ टोटो, रिक्शा और कार आदि खुद ड्राइव करती हैं जो यहाँ जमुई में देखने को नहीं मिलता है। मुझे यह सब देखकर बहुत अच्छा लगा। 

दिल्ली में क़ुतुब मीनार,इंडिया गेट, लोटस टेम्पल, मुग़ल गार्डन और भी बहुत सारी जगहों पर मैं घूमी। बहुत सारी शॉपिंग भी की। जो सबसे अच्छी शॉपिंग की जगह मुझे तिलक मार्किट लगी और सबसे अच्छा घूमने की जगह मुझे क़ुतुब मीनार और मुग़ल गार्डन लगा।

फिर 29 फरवरी को अकेले दिल्ली से अपने घर आई और अपने माँ-पापा के साथ खूब सारे किस्से-कहानियाँ शेयर की।

सोनम कुमारी 

बडी, जमुई


बच्चों का एडु-लीडर के साथ अनोखा जुड़ाव

आज मैं आपको बच्चों के साथ खेली गयी होली का अनुभव साझा कर रही हूँ। मैं जब घर से ऑफिस आती-जाती हूँ तो रास्ते में उन बच्चों का घर पड़ता है जिन्हें मैं फ़ेलोशिप में पढ़ाती थी। बच्चे जब भी हमें देखते थे तो हेल्लो दीदी, गुड मोर्निंग दीदी. टाटा, बाय-बाय दीदी बोल देते थे। कभी-कभी बच्चे मुझे रोककर पूछते हैं कि मैं अब क्यों नहीं पढ़ाती हूँ? 

मैंने उन्हें बोला करती कि दूसरी दीदी तो पढ़ाती है न? तो बच्चे बोलते थे कि हाँ, पढ़ाती है पर आप भी आईये ना! मेरे पास उनके इस प्रश्न का कुछ जवाब नहीं होता था।

जब बच्चे रास्ते में ख़ुश होकर मुझे गुड मॉर्निंग दीदी बोलते थे तो और भी दूसरे बच्चे उनके पीछे बोलते थे तो वहाँ के आस-पास के लोग मुझे और बच्चे को देखने लगते थे। 

कुछ नए लोग जब देखते तो उनके चेहरे का भाव एक प्रश्न पूछता सा दिखता था। कभी-कभी इसकी वजह से घबराहट महसूस होती थी। लेकिन जब बच्चे पीछे से दीदी बोलते तो मैं एक बार पलटकर उन्हें एक मुस्कुराहट के साथ जरूर देखती, जिससे बच्चे के चेहरे पर एक बार फिर मुस्कुराहट आ जाती और ये देखकर मुझे बहुत अच्छा लगता। 

आज जब मैं शाम 5 बजे ऑफिस से घर आ रही थी तो कुछ बच्चे सड़क के कुछ दूरी पर खेल रहे थे। खुशी ने जैसे ही मुझे आते देखा तो दूर से ही आवाज लगाई।

दीदी, रुकिए!

मोनिका दीदी, रुकिए!

आपको अभी रंग लगाएंगे। फिर मैं रुक गई। बाकी बच्चे जो खेल रहे थे, सब खेलना छोड़कर मेरे पास आ गए। घर से अबीर भी लेकर आए। एक-एक करके सबने मुझे अबीर लगाया और मैंने सभी से अबीर लगवाया।

बच्चे मेरे पैर छूने लगे। एक को मना करती, तब तक दूसरा बच्चा पैर छूने लगता। फिर बच्चों ने कहा कि दीदी अब आप हमलोग को रंग लगाइये।

फिर मैंने भी सभी को रंग लगाया। एक सेकंड के लिए मुझे लगा कि आस-पास के जो लोग देख रहे हैं वो क्या कहेंगे!

लेकिन इस बार फिर मैंने सिर्फ अपने मन और बच्चो के मन की सुनी। और एक-दूसरे को अबीर लगाकर होली खेली। जितना अच्छा मुझे आज की बासी होली अपने पुराने बच्चे दोस्तो के साथ खेलकर लगा उतना अच्छा मुझे कल और इसके पहले ऑफिस की होली नहीं लगी थी। मुझे आज भी बच्चो से बहुत स्नेह मिल रहा है ये महसूस करके मुझे बहुत अच्छा लग रहा था। 

मोनिका कुमारी

बडी इंटर्न, जमुई


समुदाय का विकास, समुदाय के सहयोग से ही संभव है।

 बंद सामुदायिक पुस्तकालय, पुनः संचालित

इस बात को कृतार्थ करते हुए, दौलतपुर के क्लस्टर 'सपनों की उड़ान' ने एक बंद पड़े सामुदायिक लाइब्रेरी का पुनः संचालन कर साबित किया है।

एडु-लीडर्स का क्लस्टर महिलाओं का ऐसा समूह है, जो समाज में 'Voice and choice for every woman' को प्रमोट करता है। क्लस्टर का कार्य स्थानीय समस्या का चुनाव कर उसके लिए प्रत्येक महीने छोटे-छोटे लक्ष्य बनाकर संगठित होकर काम करना है और समाज में सकारात्मक बदलाव लाना है। जमुई, मुंगेर, मुजफ्फरपुर, गया और बेगूसराय में हमारी संस्था के करीब 30 से ज्यादा ऐसे क्लस्टर समूह हैं।

‘सपनों की उड़ान’ क्लस्टर ने दौलतपुर के पंचायत प्रतिनिधियों से मिलकर, एक पुस्तकालय का पुनः सञ्चालन करवाया। इस कार्य में वहाँ के वार्ड मेंबर और स्थानीय लोगों का काफी सहयोग मिला। अब इसके उपयोग के लिए लोग तैयार हैं। इसका मुख्य उद्देश्य स्थानीय महिलाओं को एक साधन भी मुहैया कराना था, जिससे उन्हे पढ़ने में सहयोग मिल सके।

सोचने योग्य:

अक्सर गाँव में आपको एक बंद पड़ा भवन मिल जाएगा। जिसे लोग पुस्तकालय के नाम से जानते होंगें। इस भवन का निर्माण किसी ने एक शिक्षित समाज का सपना देखते हुए किया होगा। हमारा प्रयास ऐसे ही भवनों को फिर से ज्ञान की पूँजी बढ़ाने का स्त्रोत बनाना है। जिससे एक शिक्षित समाज का भी निर्माण हो सके। लेकिन यह धीरे-धीरे निजी कार्यों या फिर समाज के अन्य कार्यों के प्रयोग में आने लगा और इसके मुख्य कार्य से ये पूर्ण रूप से वंचित होता चला गया। आज ऐसी सुविधाओं के लिए लोग शहरों के तरफ कूच कर रहे हैं।

यह हमारा पहला प्रयास था। हम ऐसे और प्रयास करने के लिए तैयार हैं।

अमन प्रताप सिंह 

मेंटर, जमुई 


चलंत पुस्तकालय में जुड़े 50 से ज्यादा बच्चे और अभिभावक

कहते हैं मानव अगर चाहे तो क्या नहीं कर सकता। वो पहाड़ तोड़ कर सड़क बना सकता है और आसमान में सुराग तक कर सकता है। 

मैं एक चलंत पुस्तकालय के बारे में बताना चाहता हूँ। 28 मार्च, पिछले क्लस्टर मीटिंग ( क्लस्टर का नाम- सपनों की उड़ान) में इस बारे में प्लानिंग और लक्ष्य तय किया गया था। इसकी शुरुआत सरारी के अनुसूचित समुदाय से की गई। 

जब हम समुदाय में पहुँचे तो ग्रामीण और बच्चे तरह-तरह की बातें कर रहे थे। वो अंदाज़ा लगाने कि कोशिश कर रहे थे कि हम क्या करने आये हो सकते हैं। कुछ बच्चे बोल रहे थे कि जादूगर का खेल होगा, कुछ बोले रहे थे कि नाच-गाना होगा और कुछ कहना था कि पूजा होगी।

समुदाय के बीचों-बीच एक चबूतरा भी था। जैसे ही हम सभी उस चबूतरे के पास पहुँचे। वहाँ पर बैठी एक महिला हमें देखकर अपने घर की तरफ गयी और उन्होंने घर से झाड़ू लाकर चबूतरे को साफ़ कर दिया। 


 

फिर हम सभी जो किताबें लेकर गए थे उन्हें जैसे ही बैग से निकाला तो सभी बच्चे ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगे कि अरे हम सब तो पढ़ेंगे। ये लोग तो झोले में किताबें लायें हैं! 

मज़ा आएगा!

फिर कुछ साथी किताबें लगाने लगे तो कुछ साथी सभी बच्चों को गोल घेरे में बिठाने लगे। फिर हमने बच्चों को दो ग्रुप्स में विभाजित किया। उन्हें वर्कशीट देकर उन्हें कार्य सौंपा। बच्चे अपने कार्य में लग गए। यह सब उनके अभिभावक भी करीब से देख रहे थे। कुछ देर बाद हम सभी ने Read Aloud की प्रैक्टिस की। 

पहले ज्योति ने “मिठाई” का पठन किया, पिंकी ने “मिली का गुब्बारा”, पूनम ने “गोलगप्पे” और प्रियंका ने TLM का उपयोग किया। बच्चों में read aloud का खूब आनंद लिया। 

सिर्फ बच्चे ही नहीं, वहाँ बैठे अभिभावक भी कहानी सुनने का आनंद ले रहे थे। कुछ बच्चे किताबें पढ़ने के लिए स्वयं आगे आये। उन्होंने हमसे पढ़ने के लिए किताबें माँगी। 

हमारे चलंत पुस्तकालय की सोच और इतनी प्रतिभागिता देखकर हम सब भी बहुत खुश थे। इस पुस्तकालय में करीब 40 से अधिक बच्चे और 10 अभिभावक हमारे साथ जुड़े। 

राजाराम कुमार

बैच-1, जमुई