Wednesday, May 29, 2024

मोबिलाइजेशन उतना आसान भी नहीं है, जितना लगता है!

मैं, अमीषा और सुप्रिया हम तीनों डोमनपुरा गाँव में नए एडु-लीडर्स के मोबिलाइजेशन के लिए गए। हमारे क्लस्टर के अन्य साथी आज किसी कारण नहीं जा पाये थे। हमें जिस गाँव में जाना था हमने वहाँ की एडु-लीडर खुशबु भारती से कॉल करके वहाँ की लड़कियों के बारे में जानना चाहा तो पता चला कि वो अपना एग्जाम देने गयी हैं। इस कारण उनसे बात नहीं हो पायी।

हम तीनों सवा नौ बजे दोमनपुर मोड़ पर पहुंचे। गाँव करीब डेढ़ किलोमीटर अन्दर है। बहुत धूप हो रही थी और हमारा पूरा समूह भी साथ नहीं था तो थोड़ी घबराहट भी हो रही थी कि सब कैसे होगा? इसी तरह बातचीत करते हुए हम गाँव पहुँच गए।


शुरुआत में हमें कोई फ़ेलोशिप करने की इच्छुक लड़कियां नहीं मिली। जो मिली उनकी योग्यता कम थी। फिर हमें एक भैया बाइक साइड करते हुए दिखे, हम उन्हीं के पास गए। हमने उन्हें फ़ेलोशिप के बारे में बताया और उनसे पूछा कि क्या आपकी नज़र में ऐसी कोई लड़की है? 


उनकी मम्मी ने हमारे लिए कुर्सियां निकाल कर दी। हमने उन्हें धन्यवाद देते हुए कहा कि हमें फ़ेलोशिप करने की इच्छुक लड़कियों की तलाश है। उन्होंने हमें अपने घर के पास की दो लड़कियों और दो महिलाओं से मिलवाया। हमने उन्हें फ़ेलोशिप के बारे में बताया और आगे चल दिए। 


तेज धूप के कारण गलियों में कोई व्यक्ति नहीं मिल रहे थे और घरों के दरवाज़े भी बंद थे। कुछ दरवाज़े खटखटाने के बाद हमें कोई रेस्पोंस ही नहीं मिला। कुछ दरवाज़ा खोलते तो यह कह देते कि अभी हमारी लड़की पढ़ ही रही है। हमें चार ही लड़कियां अब तक मिली थी जबकि हमें दस लड़कियों की तलाश थी। 


फिर एक दुकान आई तो हमने आम का जूस खरीद कर पिया और गर्मी से थोड़ी राहत पायी। वहां भी हमने फ़ेलोशिप के बारे में बात की परन्तु कोई लड़की नहीं मिली। जब हम गाँव के दो चक्कर लगा कर, निराश और हताश होकर लौट ही रहे थे कि एक अंकल ने हमें पीछे से आवाज़ लगायी। 


और उन्होंने पूछा कि क्या है ये i-सक्षम? कितना पैसा मिलेगा? क्या काम करना होगा?

हमने उन्हें समझाया कि यह कोई जॉब नहीं है। यह एक फ़ेलोशिप है। लड़कियों और महिलाओं की स्किल्स और पर्सनल ग्रोथ का एक अवसर है। हम सहयोग राशि के बारे में बताते ही कि अंकल के प्रश्नों की एक बाढ़ सी आ गयी। इतने प्रश्न तो आज तक किसी ने नहीं किये। 


दो और अंकल और दो भैया वहां बैठे हुए थे। उन्हें भी हमने फ़ेलोशिप के बारे में बताया। वहाँ कि एडु-लीडर के बारे में भी बताया। अधिकतर लोग उन्हें जान भी रहे थे। 


उन्होंने हमसे हमारा परिचय और गाँव का नाम वगैरह भी पूछा। 

एक अंकल तो यह भी बोले कि क्या मिलता है आपको? जो आप इतनी धूप में घूम रहे हैं? 

हमने उनके सभी प्रश्नों का उत्तर दिया। उन्हें यह भी समझाया कि अब हमारी फ़ेलोशिप समाप्त हो रही है और अब हम नए बैच के लिए लड़कियों को खोज रहे हैं।


उन्होंने हमसे फिर से प्रश्न किया कि दो साल बाद क्या? कभी अमीषा उमके सवालों के जवाब देती, कभी सुप्रिया तो कभी मैं।


हमने उन्हें उत्तर दिया कि इस फ़ेलोशिप के दौरान जो लड़कियां आगे पढ़ना चाहती हैं उन्हें सपोर्ट किया जाता है। उन्हें गणित, अंग्रेजी और कम्युनिकेशन स्किल्स जैसे विषय सीखने के लिए प्रेरित किया जाता है।


फिर उनका एक सवाल आता है। 

2700 रूपये में रेगुलर समय देना। और दो साल बाद लड़कियों का घर और खेत के काम में मन नहीं लगेगा। वो आखिरकार घर ही बैठ जायेगी। ना घर की रहेगी ना घाट की! 

जब तक पैसा मिल रहा है काम करेगी। उसके बाद क्या...?


फिर हमने उत्तर दिया कि यह एक फ़ेलोशिप प्रोग्राम है। यदि आपको सीखना है तो ही आप ज्वाइन करेंगें। पैसे कमाने के और भी विकल्प हैं, आप वहां काम कर सकते हैं। हमने उन्हें वीमेन लीडरशिप के बारे में भी बताया। 


अंकल का एक और सवाल आता है कि तुम तीनों इतना दूर क्यों आई हो? क्या जरुरत है इसकी?

हमने उत्त्तर दिया क्योंकि हमें सीखना है और कुछ करना है। इसलिए गाँव से बहार तो निकलना पड़ेगा ना! 


तब कहीं जाकर अंकल माने, और हमारी जान में जान आयी।  


अंकल ने बोला कि अब तुमने मेरे प्रश्न का जवाब अच्छे से दिया है कि “तुम्हें कुछ करना है”।


फिर सुप्रिया ने अंकल को बोला कि हम लोग भी फ़ेलोशिप से पहले अपने ही गाँव के लोगो से बात नहीं कर पाते थे। अब देखिये, दूसरे गाँव आकर चार आदमी के बीच बात कर रहें हैं न, अंकल!

दूसरे अंकल बोले कि वाकई में, लड़के भी दुसरे गाँव में जाकर किसी के घर का पता पूछने में संकोच करते हैं। आपने तो लड़कियां होकर हमारे इतने प्रश्नों का उत्तर दे दिया।


अंकल की बातें सुनकर हमें बहुत मनोबल मिला और खुद पर प्राउड महसूस हुआ। उनके सवाल भी खत्म हुए और उन्होंने हमें अपने घर जाने का रास्ता भी बताया। ताकि हम उनकी भांजी से मिल सकें। 


हम उनके घर पहुंचे और उनकी भांजी से हमें पता चला कि उसने पिछले वर्ष भी फ़ेलोशिप का एंट्रेंस एग्जाम दिया था। इसी लड़की ने हमें चार और लड़कियों से मिलवाया। पतली-पतली संकरी सी गलियों में घर थे। हमने इन्हें फ़ेलोशिप के बारे में बताया और वहां से चल दिए। 


वापस आते समय एक महिला को भी फ़ेलोशिप के बारे में जानकारी दी। उनका बच्चा अभी छोटा है तो वो शायद अगले वर्ष ज्वाइन करें। 


इस तरह हमने नौ लड़कियों का डेटा कलेक्ट किया। जो हमारे आज के लक्ष्य के काफी करीब था।


खुशबू

बैच- 9, जमुई 


शादी ना करने के लिए पापा को मनाया

लवली के पापा, लवली की शादी फिक्स करने का प्लान कर ही रहे थे कि लवली ने अपनी मम्मी को अपने मन की बात बतायी कि उसे शादी नहीं करनी है।

उसकी मम्मी ने उसे ज़ोर से बोलते हुए कहा कि इतनी उम्र हो गयी है, अब नहीं करोगी तो शादी कब करोगी? 

मम्मी ने उनकी बात नहीं सुनी तो लवली ने अपनी दीदी को पापा से बात करने के लिए बोला। दीदी ने भी उनके पक्ष में बात करने से मना कर दिया।


फिर लवली ने सोचा कि मैं यदि आज नहीं बोलूंगी तो शायद मैं कभी नहीं बोल पाऊँगी।


लवली ने हिम्मत करके अपने पापा से बात की। उन्होंने अपने पापा से कहा कि “जो लड़का आपने मेरे लिए देखा है वो मुझसे कम पढ़ा है। मैं उससे शादी नहीं करना चाहती।“

मुझे, मुझसे ज्यादा पढ़ा-लिखा लड़का चाहिए।


पापा बोले कि लड़का कमाता तो है! फिर ज्यादा पढ़ा-लिखा लड़का क्यों चाहिए?


लवली ने उत्तर दिया कि मुझे आगे और पढ़ना है। यदि मेरी शादी हो जाती है तो वो लड़का या उसके परिवारवाले मुझे आगे पढ़ने नहीं देंगे। क्योंकि लड़का ही कम पढ़ा-लिखा है।


लवली की इस बात पर उनके पापा ने विचार किया और उनकी शादी रोक दी। 


लवली 

बैच- 10, जमुई 


कम्युनिटी के 18 लोगों का आयुष्मान कार्ड बनवाया।

मैं आप सभी के साथ कल की क्लस्टर मीटिंग का अनुभव साझा कर रही हूँ। मेरे क्लस्टर का नाम "सोच बदलो जीवन बदलो" है।

मेरा क्लस्टर ‘रामदीरी’ में रखा गया था। मीटिंग माइंडफुलनेस से स्टार्ट हुई। जिसे कराने का मौका शबनम को मिला और वह इसे बहुत अच्छे से कर भी पायी। 


फिर हमलोगो  ने पिछले अजेंडे पर बात की। जो था- “अपने community में कम से कम 20 लोगो का आयुष्मान कार्ड बनवाना”। सभी साथियों ने अपनी-अपनी  बातों को रखा। उन्हें कहाँ चुनौती आयी? उन्होंने क्या अच्छा किया? 


हमारे ग्रुप ने लगभग 50 लोगो तक इसकी सूचना पहुंचाई। इसके बारे में अच्छे से जानकारी दी। और 50 लोगो में से 18 लोगो का आयुष्मान कार्ड बनवा भी दिया। 


हमारे ग्रुप इस अजेंडे के साथ-साथ पिछले अजेंडे को भी साथ लेकर चला। पिछले महीने का अजेंडा था कि किशोरियों को स्कूल से जोड़ना और बच्चों की उपस्थिति पर काम करना। हमलोगो ने इस पर भी बातचीत की और सभी साथियों का अनुभव जाना। 


फिर हमने डिस्ट्रिक्ट लेवल की क्लस्टर मीटिंग का अनुभव साझा किया। जो दो साथी डिस्ट्रिक्ट लेवल के क्लस्टर के लिए गये थे उन्होंने अपना अनुभव साझा किया। जिसमें एक मैं थी और एक अमृता दीदी थी। मैंने अपने अनुभव में बताया कि डिस्ट्रिक्ट लेवल के मीटिंग में हमने लक्ष्य रखने के ऊपर बात की थी और हम अपने क्लस्टर को कैसे एक प्रभावशाली क्लस्टर कहेंगें- इस बात पर भी चर्चा की।

 

इस सब के बाद हमलोगो ने अपना बढ़ते कदम साझा किया और MIS पर अपने peer में साथी को फीडबैक दिया। इस तरह हमारी इस माह की क्लस्टर मीटिंग संपन्न हुई।


प्रतीक्षा कुमारी, 

बैच-10, बेगूसराय 


मेरे गाँव के लोग चाहते हैं कि अब उनकी लड़की भी कमाना सीखे!

नमस्ते दोस्तों, 

मैं आप सभी के साथ i-सक्षम में जुड़ने से पहले और अब के बीच का स्वयं की सोच और विचारों में आये बदलाव के कुछ उदाहरण आपके साथ साझा करना चाहती हूँ। यह कुछ ऐसी बातें होंगीं जो हो सकता है कि किसी को सही ना लगे, परन्तु मैंने इन्हें जिया है, इन्हें महसूस किया है और इनके लिए खुद से, घरवालों से, अपने समाज से तर्क-वितर्क किया है। तो इन्हें आपके सामने रखना और अपनी समझ और गहरी करना मेरा उद्देश्य है।

मैं बेगूसराय के एक छोटे से गाँव चक्कापर की रहने वाली हूँ। हमारे गाँव में अमूमन लड़के-लड़कियों की शादी 14 से 20 वर्ष की उम्र में हो जाती है। हालाँकि कुछ एक-दो लड़के 20 की उम्र के बाद भी शादी कियें हैं परन्तु लड़कियों की शादी तो 20 वर्ष तक हो ही जाती है।

मैं भी उसी गाँव की बेटी हूँ  तो मेरे परिवारजनों की सोच भी वैसी ही है। मैं अपने गाँव की इकलौती लड़की हूँ जिसने 22 वर्ष की होकर भी अब तक शादी नहीं की है। इसी कारण मैं गाँव-समाज के बहुत लोगो की नज़र आ गयी हूँ। आये दिन मेरे लिए रिश्ते आ जाते हैं। i-सक्षम से जुड़ने से पहले मुझे यह सब सही ही लगता था। क्योंकि मैं बचपन से यही सब देख कर बड़ी हुई थी। अगर कोई मेरे लिए रिश्ता भी लेकर आता था तो मैं विरोध नही करती थी क्योंकि मुझे वो गलत लगता ही नहीं था!





अभी मैं बीते दो साल से i-सक्षम से जुड़ी हूँ और इससे पहले मैं प्राइवेट स्कूल में पढ़ाती थी। मैं अपने गाँव की पहली ही लड़की हूँ जो घर से निकल कर, कोचिंग चला कर या इसी तरह से काम करके अपने लिए कुछ रूपये कमाती है। i-सक्षम से जुड़ने के बाद धीरे-धीरे मुझमें बदलाव आना शुरू हो गया। बहुत छोटी-छोटी बातें हैं, जिनके माध्यम से मैंने यह बदलाव महसूस किया। समाज के जो नियम पहले मुझे सही लगते थे वो मुझे गलत लगने लगे। जब मुझे गलत लगने लगा तो मैं विरोध करने लगी। 

जैसे- जातिवाद गाँव की बड़ी एक समस्या:

ऐसा नहीं है कि जातिवाद सिर्फ ऊँची कास्ट के लोग ही करते है। हर वो कास्ट जातिवाद करती है जो यह सोचे कि उनके नीचे एक कास्ट है। समझने के लिए जैसे हम ओबीसी में आते है जो जनरल कास्ट वालों से नीचे आता है। 

तो हम भी  एससी कास्ट में जो लोग आते है उन लोगों से भेदभाव करते हैं।  हालाँकि मैंने कभी ऐसा  भेदभाव नहीं किया मैंने अपने आस-पास ये होता हुआ देखा है।


लेकिन मैंने इस चीज का कभी विरोध भी नहीं किया। क्योंकि इस सन्दर्भ में मेरा कोई विचार ही नहीं था। 

अब मैं बिकुल अलग हो गई हूँ। इस तरह की दकियानूसी सोच का पालन जब भी मैं अपने घर के लोगो को करते हुए देखती हूँ तो मैं उनको तर्क के साथ गलत और सही बताती हूँ। 


एक बार नवरात्रि का दिन था और मेरी मम्मी को धान उगाने के लिए मिट्टी की जरूरत थी। रास्ते से एक एससी (दुसाध) जाति का एक आदमी श्री गंगा जी जा रहा था। तो मेरी मम्मी ने उसे ही मिट्टी लाने के लिए बोल दिया। जब उस व्यक्ति ने मिट्टी लाकर दी तो मेरी चाची ने देख लिया और उसके जाने के बाद मेरी चाची, मेरी मम्मी से बोली कि वो तो दुसाध जाति का था। “भगवान के लिए मिट्टी है उसके हाथ का छुआ हुआ थोड़े न लेंगे”। 

मेरी मम्मी को नहीं पता था कि मिट्टी उससे नही मंगवानी थी। मैंने ये सारी बातें सुनी और मुझे बहुत तेज गुस्सा आया। मैंने चाची के सामने ही मम्मी को बोला कि जब जनरल कास्ट के लोग हमारे साथ ऐसा करते है तो हमलोग को कितना बुरा लगता है? 

और हम अभी क्या कर रहे है?  हम भी तो वही कर रहे हैं। अपने से नीची कास्ट के  लोगो के साथ वही भेदभाव कर रहे हैं, जिससे उन्हें बुरा लगे। 

जिस गंगा जी में हमलोग जाते है छठ पर्व के दिन पूजा करने के लिए वो लोग भी उसी दिन उसी गंगा जी में पूजा करने के लिए जाते हैं। क्या उससे हमलोग नही छुआते हैं? 

और तुम्हीं तो कहती हो कि सभी मनुष्यों को भगवान ने बनाया है तो भगवान इतने बुरे तो नहीं हो सकते कि जिस मनुष्य को वो खुद बनायें, उसी से भेदभाव करें। 


वोटिंग के अधिकार पर विचार विमर्श: 

मेरे घर के, गाँव के लोग- जाती, धर्म, मंदिर, मस्जिद के नाम पर वोट देते हैं। मैंने कभी उनलोगो को समझाने की कोशिश भी नहीं की कि यह गलत है। 

हालाकि गाँव के लोगो को तो मैं समझा ही नहीं पाती। लेकिन मैंने कभी अपने घर के लोगो को भी समझाने की कोशिश नहीं की। क्योंकि मुझे इस बारे में कोई आईडिया ही नहीं था कि क्या गलत है?  और क्या सही!


अभी मैं इन मुद्दों पर भी घर में बहस कर लेती हूँ। तुम्हारी इसी सोच के कारण देश कभी भी विकास नहीं कर पाता है। मैं अपनी बातो से अपने परिवार के लोगो को कॉन्फिडेंस में भी ले लेती हूँ। शुरू-शुरू में बहस होती है लेकिन लास्ट में सबको मेरी बात सही लगती है। क्योंकि मेरी बातों में तर्क होता है, मैं ऐसा नहीं कहती हूँ कि मुझे सही लगता है इसलिए सही है। और आप भी मेरी बात माने। मैं उन्हें उदाहरण के साथ सही गलत बताती हूँ। और अपना मत बनाने का समय देती हूँ।

 

राह चलते समय कमेंट का जवाब:

पहले मैं किसी के भी ज्यादा मुँह नहीं लगती थी। चाहे मैं सही रहूँ या गलत! कोई मुझे कुछ भी बोल के चला जाता था। 

राह चलते हुए कोई लड़का यदि मुझे कुछ बोल दे तो न ही मैं उसे कुछ जवाब दे पाती थी और न ही अपने परिवार वालो को इस बारे में बताती थी। 


लेकिन अब मैं कुछ अलग ही तरह से उनको जवाब देती हूँ। अगर राह चलते मुझे कोई कुछ बोल दे तो मैं उनसे लड़ती नही हूँ। बल्कि उनके सामने जाकर पूछती हूँ कि क्या दिक्कत है आपको? 

और आप मुझे ऐसा क्यों बोला? हालाँकि कभी-कभी मैं गुस्सा में भी आ जाती हूँ। लेकिन मेरे समझाने की टोन वही रहती है। मैं पूरी कोशिश करती हूँ कि मैं नम्रता से बात करूँ। 


परिवारजनों के विचारों में आया परिवर्तन: 

इस सबके अलावा सबसे बड़ा परिवर्तन मेरे परिवार वालो में देखने को मिला। जब कभी भी कोई मेरे लिए रिश्ता लेकर आता था तो मेरी मम्मी उत्सुक हो जाती थी कि अब इस बार इसकी शादी कर ही देंगे। 

(क्योंकि उनको लगता था कि पूरे गाँव में एक मेरी ही बेटी बची है, जो इस उम्र तक कुंवारी है।) 


और जब मैं इस चीज का विरोध करने लगी तो वो लोग मुझसे भी बहस कर लेते थे। बहुत ज्यादा बहस होती थी। कभी-कभी तो मैं खूब रोती थी। लेकिन धीरे-धीरे मेरे काम को देखते हुए वो लोग भी मुझे समझने लगे। 

अभी कुछ दिन पहले मेरे परिवार में दादी का देहांत हो गया था। तो सभी रिश्तेदारों का आना हुआ। उन्हीं में से किसी ने कहा कि आंचल की उम्र बहुत ज्यादा हो गयी है। इसकी शादी के बारे में अभी तक सोचे हैं या नहीं?

तो मेरी मम्मी ने उत्तर दिया कि लड़का देखते तो है पर अभी तक कोई वैसा अच्छा लड़का मिला नही है जो इसके लायक हो। 


तो फिर उन्होंने कहा पूरी तरह से परफेक्ट लड़का-लड़की थोड़ी न किसी को मिलते हैं।

और इसकी उम्र तो गांव में सबसे ज्यादा हो गई है। इस उम्र की कोई भी लड़की नहीं बची है। लड़कियों को इतनी उम्र तक कुंवारी रखना ठीक नहीं है। 


तो उनको मेरी मम्मी ने जवाब दिया कि कोई मोटरी (समान से भरा थैला) थोड़े ही है जो किसी को भी जाकर थमा दें। मेरी बेटी पढ़ी लिखी है और ऊपर से अपना खर्चा भी खुद उठाती है। गाँव के स्कूल में पढ़ाने जाती है संस्था में भी काम करती हैं। इसके बाद और कुछ बड़ा भी करेगी। उसका एक इंटरव्यू बचा हुआ है अभी! (गांधी फेलोशिप के बारे में बता रही थी क्योंकि मैने उन्हें इसके बारे में बताया था।) 


उसके बाद मेरी मम्मी बोली कि यहां तो लड़कियों की 17-18 वर्ष में शादी बच्चे सब हो जाते हैं। उससे तो अच्छा ही है न कि मेरी बेटी अपने पैरों पर खड़ी है, आगे बढ़ रही है। और कुछ कमा भी रही है। 

ऐसा सुनते ही सामने वाले सभी लोगो का मुँह बंद हो गया! 


मेरे गाँव में उतना कुछ खास परिवर्तन नही आया। लेकिन हाँ अब बहुत लोग ये जरूर चाहते है कि उनकी बेटी का खर्च उठाना सीखे।  

जो पढ़ी-लिखी है, लेकिन घर में बैठी है। इसके अलावा बहुत सारी लड़कियां जो मेरे गाँव की है वो मुझसे प्रेरित हुई है। उनको भी लगता है कि अगर वो 10th या 12th करके बैठी रही तो उनकी भी शादी हो जायेगी इसलिए वो सब भी बाहर निकलना चाहती हैं।


आँचल

बैच-10, बेगूसराय


इंटरडिस्ट्रिक्ट ट्रेनिंग्स से बढ़ रही है मोबिलिटी

नमस्ते साथियों, 

जब हमें CIMP की वर्कशॉप के लिए दो दिन के लिए मुजफ्फरपुर जाना था तो मैं थोड़ी घबरा रही थी। गया से मुजफ्फरपुर का रास्ता लगभग दस घंटे का है। हम शोर्ट टर्म स्टार्टअप कोर्स के लिए CIMP द्वारा आयोजित ऑफलाइन क्लासेज करने गए थे। गया से जाने वाले लोगों में चार महिलाएँ, एक पुरुष और एक बच्चा शामिल थे। लेकिन हम सभी में से किसी ने मुज़फ्फरपुर देखा हुआ नहीं था तो हमें थोड़ा डर लग रहा था। हम सभी पहली बार ट्रेनिंग के लिए मुज्ज़फरपुर जा रहे थे। 

जब लोकेशन वाइज लीड (lead) लेने की बात आयी तो नम्रता दीदी को मैंने बिना सोचे-समझे हाँ बोल दिया। इस कार्य के लिए हमारी लोकेशन से कोई भी आगे नहीं आया था। मुझे डर भी लग रहा था और मुझे यह भी पता था कि मैं रिस्क ले रही हूँ। 

मैं पटना से आलावा कहीं गयी नहीं हूँ। और पटना भी मैंने i-सक्षम से जुड़ने के बाद जाना सीखा। इससे पहले मैं अपने ज़िले से बाहर जाने के लिए पापा या भैया के साथ जाती थी।

कुछ तकनीकी कारणों से हमारी डायरेक्ट ट्रेन टिकट नहीं बन पायी थी। इस कारण हमें गया से मुज़फ्फरपुर पहुँचने के लिए सात-आठ बार वाहन बदलने पड़े। 

हमने एक ट्रेन का सफ़र किया, एक बस और चार ऑटोरिक्शा। इनकी मदद से हम अपने गंतव्य पर पहुंचें। गर्मी बहुत थी परन्तु साथियों के कारण यह सफ़र बहुत ही यादगार रहा और अब मैं कह सकती हूँ कि मैं पटना के अलावा भी अन्य डिस्ट्रिक्स आराम से जा सकती हूँ।

मुस्कान कुमारी

बैच- 9, गया


शाम चार बजे हुई PTM

जब मैं PTM कराने के लिए अपनी कम्युनिटी में गयी तो अभिभावक कहने लगे कि उनके पास मीटिंग ज्वाइन करने का समय नहीं है। मैंने उनसे बात करके जाना कि उन्हें समय कब मिलेगा? तो उन्होंने शाम का समय दिया। इसलिए हमने शाम चार बजे की ही मीटिंग रखी।

मैंने 14 अभिभावकों को PTM के लिए आमंत्रित किया। शाम को 11 अभिभावक मीटिंग में शामिल हुई। हमने उन्हें PTM के बारे में जागरूक किया। सभी को उनके बच्चे की प्रोग्रेस बतायी। अभिभावकों का कहना था कि जो आप हमारे बच्चों को पढ़ाते हैं वो बच्चे घर आकर हमारे साथ साझा करते हैं। जिसे सुनकर मुझे ख़ुशी हुई। 

इस PTM का उद्देश्य इन अभिभावकों को शिक्षा के प्रति जागरुक करना था तथा जो अभिभावक पढ़ना चाहते हैं, जैसे- हिंदी सीखना, हस्ताक्षर करना आदि। उन्हें एक जगह भी लाना था। इसकी शुरुआत हमने आज से ही की। सभी महिलाओं को हस्ताक्षर करना सिखाया। 

जो अभिभावक नहीं आये थे, मीटिंग के बाद हम उनके घर उनसे कारण जानने गए। सभी ने कुछ न कुछ कारण बताया और कहा कि अगली बार पक्का आयेंगें। 

रुमाना परवीन 

बैच- 10, गया


मोबाईलाइजेशन करते समय 300 घरों में मिली सिर्फ 3 दसवीं पास लड़कियाँ

अप्रैल के अंतिम सप्ताह में मैं (प्रमोद कुमार) और श्रृंखला दीदी बांके बाज़ार के परसाचुआ-बिकोपुर गाँव में एडु-लीडर्स के मोबिलाइजेशन के लिए गए थे।

हम जिस गाँव में गए वो चारों तरफ से पहाड़ और हरे-भरे पेड़ों से घिरा हुआ था। हमें एक जगह चार-पाँच महिलायें बैठी हुई दिखी। हमने उन्हें अपनी संस्था का और अपना परिचय दिया। 

जब हमने उनसे प्रश्न किया कि क्या आपके गाँव में ऐसी लड़कियां और महिलाएं हैं जिन्होंने दसवीं और बारहवीं की परीक्षाएँ पास की हुई हों?


उन्होंने उत्तर दिया कि यहाँ तो कोई इतना ज्यादा पढ़ता नहीं है। क्योंकि उनका मानना था कि गाँव के स्कूल में पढ़ाई नहीं होती है और आसपास कोई कोचिंग या ट्यूशन सेंटर भी नहीं है। यदि कोई पढ़ता भी है तो वो कहीं बाहर जाकर रूम लेकर पढ़ता है। 


यहाँ रहने वाले बच्चे तो किसी तरह पाँचवी या आठवीं कक्षा तक पढ़ते हैं। उसके बाद या तो घर के काम-काज में लग जातें हैं या उनकी शादी हो जाती है। 


हमने एक बार और अच्छे से पूछा कि क्या सही में कोई नहीं मिलेगा? उन्होंने उत्तर दिया कि कोई भी जाति की महिला चलेगी क्या? (वैसे तो यह प्रश्न भी हमारे लिए अजीब था।) 

परन्तु हम आगे बढ़े। हमने उन्हें पूछा कि कितनी जातियाँ रहती हैं यहाँ? 

उन्होंने उत्तर दिया कि “तीन”।

हमने उन्हें बताया कि किसी भी जाति की लड़कियां या महिलाएं हो सकती हैं। 

इतने में उन्होंने हमें बताया कि एससी, ओबीसी और मुस्लिम समुदाय के लोग यहाँ रहते हैं।


इतनी बातों के बाद हमने आगे बढ़ने का सोचा। उस गाँव में करीब 200 से 300 घर थे। हमने बहुत प्रयास किया परन्तु पाया कि अधिकतर लोग पांचवीं या आठवीं तक ही पढ़े थे। बहुत घर घूमने के बाद हमें तीन कैंडिडेट मिले जिसमें दो दसवीं पास थी और एक ने बारहवीं की हुई थी। 


बारहवीं की हुई लड़की और एक व्यक्ति से हमने बात की और इस विषय पर चर्चा की कि इतनी जनसंख्या होने के बाद भी इस गाँव में शिक्षा की स्थिति खराब है और हम चाहते है कि आप जैसे पढ़े हैं। यहाँ की महिलाएं और लड़कियां भी आगे बढ़ें। आप उनके लिए एक मग्दार्शंक का कार्य करें। 


हमने उन्हें अपनी संस्था के बारे में जानकारी साझा की और उनका बायोडाटा लेकर हम वहां से चल दिए। बहुत धूप और गर्मी होने के कारण और अधिक समय वहां बिताना हमारे स्वास्थ्य को भारी पड़ सकता था।


प्रमोद 

गया


Tuesday, May 28, 2024

कविता- सुनना पड़ेगा

सुनना पड़ेगा, 

जीतोगे तो तारीफ

हारोगे तो ताने, 


सहना पड़ोगा, 

अपनो से अपमान

गैरों से  सम्मान, 


लड़ना पड़ोगा, 

वक्त-हालात और किस्मत से

तुम्हें आसानी से कुछ न मिलेगा, 


छीनना पड़ोगा, 

मेहनत से

किस्मत से...


सोनम कुमारी 

बैच- 10 A, मुंगेर