Saturday, October 19, 2024

गुमसुम-सी लड़की और उसका विद्यालय

आज मैं एक एडु-लीडर द्वारा किए गए बदलाव की कहानी आप सबके साथ साझा कर रही हूँ। मुस्कान, हसनपुर प्राथमिक विद्यालय की एडु-लीडर है। वह अपने विद्यालय के बच्चों में जो बदलाव लाई, वह प्रेरणादायक है।

जब मुस्कान पहली बार इस विद्यालय में आई, तो उसने देखा कि बच्चे पढ़ाई में रुचि नहीं लेते थे। वे केवल खेलकूद में व्यस्त रहते थे और किताबों से दूरी बनाए रखते थे। विद्यालय का वातावरण भी बहुत उत्साहवर्धक नहीं था। मुस्कान ने धीरे-धीरे बच्चों से दोस्ती करनी शुरू की। वह खेलों में उनकी रुचि को समझते हुए उनके साथ समय बिताने लगी और इस तरह उनका रिश्ता मजबूत हो गया।

रिश्ता मजबूत होने के बाद मुस्कान ने पढ़ाई को खेल के रूप में प्रस्तुत किया। उसने छोटे-छोटे कहानियों और गतिविधियों के माध्यम से बच्चों में पढ़ाई के प्रति रुचि जागृत की। बच्चों ने इन गतिविधियों से प्रेरणा ली और देखा कि पढ़ाई भी खेल की तरह मज़ेदार हो सकती है। धीरे-धीरे, बच्चों ने पढ़ाई में भी रुचि लेना शुरू कर दिया।

विद्यालय का माहौल अब बदलने लगा था। गांव में हुई शिक्षक-अभिभावक बैठक में यह चर्चा होने लगी कि अब बच्चे पहले की तरह विद्यालय में बैग रखकर बाहर नहीं घूमते। उनकी बातचीत और रहन-सहन में भी बदलाव दिखने लगा।

पहले, मेरे विद्यालय में जब प्रार्थना होती थी, तो उसे जबरन ताली बजा-बजाकर करवाया जाता था। जब स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस मनाया जाता था, तो बच्चे उत्साहित नहीं होते थे और खुद से कुछ करने में रुचि नहीं दिखाते थे। फिर एक स्वतंत्रता दिवस आया, और मुस्कान ने बच्चों को समझाया कि पहले पढ़ाई में भी रुचि नहीं थी, लेकिन अब वे पढ़ाई कर पा रहे हैं, तो बाकी चीजें भी उनके लिए आसान होंगी। यह सुनकर बच्चे उत्साहित हो गए और बार-बार के प्रयासों से अब वे खुद प्रार्थना करवाते हैं। स्वतंत्रता दिवस पर वे नारे लगाने और गाना गाने के लिए भी उत्सुक रहते हैं।

इन छोटे-छोटे प्रयासों से बच्चों में बड़ा बदलाव देखने को मिला और इससे मुस्कान का आत्मविश्वास भी बढ़ा।

नेहा कुमारी 

बडी, मुजफ्फरपुर

हमारा स्कूल सबसे प्यारा

सुपर है, सुपर स्कूल हमारा!

वहां जाओगे जब तुम,
सपनों का संसार मिलेगा,
जीवन का आधार मिलेगा।

सुपर है, सुपर स्कूल हमारा!
खेल का मैदान बड़ा सुहाना,
हर खेल का सामान निराला।
पढ़ने का एक अलग मज़ा,
लिखने की दुनिया भी है सजा।

सुपर है, सुपर स्कूल हमारा!
वहां जाओगे जब तुम,
हर दिन बनेगा खास,
सुपर है, सुपर स्कूल हमारा!

सलोनी

बैच-9, मुजफ्फरपुर


Friday, October 18, 2024

एडु-लीडर के भविष्य को संवारने के लिए, दोस्त ने उसकी माँ को मनाया

मेरा नाम खुशबू है। मैं प्रीति की दोस्त हूँ और मैं यह लेख प्रीति के बारे में साझा कर रही हूँ। प्रीति एक चौगाईन गाँव की लड़की है। उसने i-सक्षम संस्था में दो वर्ष की फेलोशिप पूरी की है। फ़ेलोशिप के उपरांत वो कुछ समय घर में रह रही थी। वह कोई जॉब इत्यादि नहीं कर रही थी परन्तु अपनी आगे की पढ़ाई जरुर कर रही थी।

एक शाम की बात है। वह शाम मेरे जीवन की सबसे परेशानी वाला रात में से एक थी। अचानक मेरे फ़ोन में आदित्य सर का कॉल आया। उनके कॉल का मतलब हमेशा किसी न किसी नई चुनौती से होता है। मैंने जैसे ही कॉल उठायी, सर ने मेरी तारीफ की। मुझे एहसास हुआ कि मेरे कार्यों ने उनका विश्वास जीत लिया है।  


उसके बाद सर ने अपनी बात रखी। उन्होंने बोला कि ‘प्रीति को किशनगंज भेजना है’ किसी भी तरह से उसे गाँव से बाहर निकालना हैं। 


आदित्य सर की बातों से मुझे समझ आ रहा था कि वो बहुत चिंतित हैं। मैंने उन्हें अपनी तरफ से हर संभव कोशिश करने का आश्वासन दिया।


मैंने सर को आश्वस्त तो कर दिया परन्तु मैं पूरी रात सो नहीं पायी। क्योंकि मैं भी प्रीति के घरवालों को जानती हूँ। 

पूरी रात मेरा मन बस यही सोचता रहा कि प्रीति की माँ को कैसे मनाया जाए? उन्हें कैसे समझाया जाए?


मैं सुबह 4 बजे ही उठ गयी और प्रीति के घर जाने के लिए तैयार हो गयी। प्रीति की माँ मुझे देखते ही बोली कि आप आ ही गयी! परन्तु उनकी आँखें नम थी और चेहरा उदास था। मैंने उन्हें समझाया कि देखिये आंटी, यदि आज आप प्रीति को मौका देती हैं तो वह जरुर कुछ बड़ा कर सकती है। 

पर वो मान ही नहीं रही थीं। उनके आँसुओ ने मुझे भी हिला कर रख दिया।



जब मैंने देखा की प्रीति की माँ को मनाना इतना आसान नहीं है, तो मैंने आदित्य सर को कॉल किया। सर ने उन्हें समझाने के लिए बहुत तरीकों से प्रयत्न किया। 


उन्होंने यह तक कहा कि याद कीजिये जब प्रीति पेट में थी तब आपने कितने कष्ट सहे? 

कुछ अच्छा करने के लिए थोड़ा-बहुत सहन तो करना पड़ता ही है। आखिरकार सर की बातों का प्रीति की माँ पर प्रभाव पड़ा और प्रीति की माँ मान गई। 


उसी दिन प्रीति और मैं बस में बैठ गए। प्रीति बार-बार पीछे मुड़कर अपनी माँ को देख रही थी, मानो उसका दिल वहाँ छूट गया हो। मुझे डर था कि कहीं वह अपना मन न बदल ले और वापस घर न चली जाए। जब ट्रेन चल पड़ी और मैंने प्रीति को ट्रेन में बैठा हुआ देखा, तब जाकर मुझे संतोष हुआ। 


मैं खुद भूखी-प्यासी थी, लेकिन दिल में एक अजीब सा सुकून था। मुझे खुद पर गर्व महसूस हो रहा था कि मैंने वह काम कर दिखाया, जिसके लिए सर ने मुझ पर भरोसा किया था। 


अगले दिन मुझे यह सुनकर बहुत ख़ुशी हुई कि प्रीति ने वह हासिल कर लिया जिसके लिए हम तीन-चार दिनों से प्रयासरत थे मेरे लिए यह गर्व का पल था कि मैं इस यात्रा में उसकी मदद कर पायी


खुशबू कुमारी 

बडी इंटर्न, गया


प्राइवेट स्कूल में नामांकन होने की आशंका से सरकारी स्कूल से नामांकन कटा

आज मैं तीन स्कूलों और गांवों में गई, जहाँ का अनुभव साझा करना चाहूंगी। सबसे पहले, मैं महापुर गांव गई और सीमा दीदी को साथ लेकर गई क्योंकि यहाँ दो लड़कियाँ थीं जो बिल्कुल भी सुनने को तैयार नहीं थीं। जब भी उन्हें स्कूल ले जाने की कोशिश की जाती, वे या तो जंगल चली जातीं, या कहीं छिप जातीं, या फिर घर में ही रहतीं। उनके माता-पिता भी अब थक चुके थे क्योंकि वे भी उन्हें समझाने की कोशिश करते, लेकिन लड़कियाँ सुनती ही नहीं थीं।

जब हमने उनकी माँ से बात की, तो वह बोलीं कि उन्होंने कई बार बच्चियों को स्कूल भेजने की कोशिश की है, लेकिन वे नहीं सुनतीं और उल्टा लड़ने लगती हैं। इस स्थिति को देख हम भी असमंजस में थे कि अब क्या किया जाए!

आज जब हम वहाँ गए तो एक लड़की जिसका नाम काजल कुमारी था, की भाभी से बात की। उन्होंने बताया कि काजल धान की रोपाई के लिए दूसरे गांव गई है और आठ दिन बाद वापस आएगी। हमने उनसे कहा कि आप काजल को स्कूल क्यों नहीं भेजतीं, तो भाभी ने जवाब दिया कि हम उसे समझाते हैं लेकिन वह नहीं मानती।

फिर हम दूसरी लड़की के घर गए। उसकी माँ ने बताया कि वह प्राइवेट स्कूल में पढ़ाई कर रही है। हमने कहा, "ठीक है, लेकिन कम से कम हफ्ते में दो दिन तो उसे सरकारी स्कूल भेज सकते हैं, ताकि उसका नामांकन कटा न हो।" इस पर उनकी माँ ने हामी भरी, लेकिन आधार कार्ड में गलती की वजह से समस्या थी। हमने उन्हें आधार कार्ड लेकर नाम चढ़वाने को कहा, लेकिन उन्होंने समय की कमी का हवाला दिया।


इसके बाद हम M.S. वृंदावन स्कूल गए, जहाँ प्रिंसिपल से बात की। उन्होंने बताया कि एक बच्ची का नाम उन्होंने काट दिया है क्योंकि वह प्राइवेट स्कूल में पढ़ने जाती है। हमने उनसे कहा कि बच्ची अब से नियमित रूप से सरकारी स्कूल आएगी, इसलिए उसका नामांकन वापस चढ़ा दें। लेकिन प्रिंसिपल ने कहा कि जब तक वह लगातार दो महीने स्कूल नहीं आएगी, तब तक नामांकन नहीं होगा। हमने बच्ची के अभिभावकों को भी बुलाया, लेकिन प्रिंसिपल नहीं माने। हमने दो घंटे तक बैठकर उनसे रिक्वेस्ट (request) की, लेकिन कोई हल नहीं निकला। अंत में, हमने वहाँ दो अन्य बच्चों का रिटेंशन किया।

इसके बाद, P.S. महापुर स्कूल में दो बच्चों का रिटेंशन हुआ। फिर हम सांवला गए, जहाँ एक बच्ची का रिटेंशन करना था। उसकी माँ ने बताया कि बच्ची बहाने बनाती है कि उसकी कॉपी नहीं है और स्कूल नहीं जाती। जब हम मैडम को लेकर गए, तो पता चला कि वह बच्ची मानसिक रूप से दिव्यांग है। मैडम ने कहा कि वह स्कूल नहीं जा पाएगी, इसलिए हम बेवजह परेशान हो रहे हैं।

अंजना वर्मा
मैत्री प्रोजेक्ट, गया


गया: मैत्री प्रोजेक्ट के तहत रिटेंशन की चुनौतियाँ और प्रयास

मैत्री टीम की ट्रेनिंग के बाद, मैंने और साक्षी दीदी ने मिलकर गया टीम के सदस्यों को रिटेंशन के तरीकों के बारे में सिखाया। सबसे पहले, सभी को PMS सिस्टम में लॉगिन कराया गया और रिटेंशन के नियमों को अच्छे से समझाया गया। नियम यह था कि केवल उन्हीं बच्चों का रिटेंशन किया जाए, जो पहले से ही स्कूल आ रहे थे। जो बच्चे लंबे समय से स्कूल नहीं आ रहे थे, उन्हें बाद में रिटेंशन किया जाएगा, जब वे नियमित रूप से स्कूल आना शुरू कर देंगे।


सभी एडू लीडर्स ने अपने-अपने कक्षाओं में बच्चों की जाँच की और जो बच्चा नियमित रूप से स्कूल आ रहा था, उसका रिटेंशन किया। इस प्रक्रिया में कई चुनौतियाँ सामने आईं। एक दिन, जब सभी एडू लीडर्स स्कूल से ऑफिस आए, तो उन्होंने अपनी-अपनी चुनौतियों को सभी साथियों के सामने रखा। हर किसी की समस्या अलग-अलग थी। इसके बाद, सभी साथियों ने मिलकर इन चुनौतियों का समाधान खोजा।

भालुहार गाँव की चुनौती:

भालुहार गाँव में एक बच्ची थी, जो प्रतिदिन स्कूल जाती थी। जब वहाँ के प्रधानाध्यापक अशुतोष कुमार से हमारे प्रयासों में मदद करने की बात कही गई, तो उन्होंने इसे अस्वीकार कर दिया। जब खुशबू दीदी और प्रीति दीदी वहाँ गईं, तो प्रिंसिपल ने कहा कि वे हमें नहीं जानते और उन्होंने डाटा देने से मना कर दिया। प्रमोद भैया भी वहाँ गए, लेकिन स्थिति नहीं सुधरी।

प्रीति दीदी और मैंने मिलकर योजना बनाई कि हम दोनों खुद वहाँ जाएँगे। जब हम पहुँचे, तो प्रिंसिपल ने फिर से वही व्यवहार किया। लेकिन हम धैर्यपूर्वक उनसे बात करते रहे। हमने कक्षा में जाकर सभी बच्चों को बुलाया और प्रिंसिपल को स्थिति समझाई, लेकिन उन्होंने फिर भी डाटा देने से मना कर दिया। अंत में, कक्षा के शिक्षक ने सहयोग किया और हमें डाटा दिया।

B.T. बिगहा की समस्या:

B.T. बिगहा गाँव में चार बच्चे ऐसे थे, जिनमें से दो बच्चे गाँव छोड़ चुके थे, और बाकी दो बच्चे पढ़ाई के लिए तैयार नहीं थे। गया की पूरी टीम ने मिलकर इन बच्चों को प्रेरित करने का प्रयास किया। जब हमने उनकी माँ से बात की, तो उन्होंने कहा कि बच्चे पढ़ाई के लिए तैयार ही नहीं हैं, और उन्होंने भी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।

जीविका दीदी से मदद:

जब माता-पिता से बात करने पर भी कोई सुधार नहीं हुआ, तो मैं और प्रमोद भैया जीविका दीदी (सुनीता कुमारी) से मदद लेने गए। हम तीनों फिर से बच्चे के घर गए। जब हम पहुँचे, तो बच्ची की माँ घर पर नहीं थी, और पापा ने बात करने से मना कर दिया। फिर बच्ची की दादी ने भी यह कहकर बात टाल दी कि जब बच्ची पढ़ना नहीं चाहती, तो उसे छोड़ दीजिए।
जीविका दीदी ने बच्ची से कहा, "अगर तुम नहीं पढ़ोगी, तो माँ-पापा को पुलिस पकड़कर ले जाएगी।" लेकिन बच्ची ने फिर भी मना कर दिया और बोली, "अगर जेल भी जाना पड़े, तो चले जाएँगे, लेकिन पढ़ने नहीं जाएँगे।" इस पर हम तीनों उदास हो गए, लेकिन हमने हार नहीं मानी।

परिणाम और सीख:

रिटेंशन की अंतिम तिथि आ गई थी, और हमें कुछ बच्चों को छोड़ना पड़ा। इस अनुभव से हमने सीखा कि कुछ बच्चों को शिक्षा के प्रति जागरूक करने के लिए लगातार प्रयास करने की आवश्यकता होती है।

श्रृंखला कुमारी
मैत्री प्रोजेक्ट, गया


मैत्री प्रोजेक्ट में दो वर्षों का अनुभव- अभिषेक

नमस्ते साथियों,

मैं बैच पाँच का फेलो था। फेल्लोशिप समाप्त होने के बाद मेरा चयन मैत्री प्रोजेक्ट में हुआ। मुझे अभी भी याद है कि इस प्रोजेक्ट में चयन होने के कारण मुझे बहुत ख़ुशी हुई थी। शुरूआत में गाँव में सर्वे (survey) करने में कठिनाई हो रही थी परन्तु धीरे-धीरे मुझे यह कार्य करने में मज़ा आने लगा।

मैत्री प्रोजेक्ट: आउट ऑफ़ स्कूल (Out of school) लड़कियों को स्कूल से जोड़ना और उनका रिटेंशन (retention) करना इस प्रोजेक्ट का अहम उद्देश्य है। 

प्रोजेक्ट की अवधि 21 सितम्बर 2022 से 31 अगस्त 2024 थी। मैंने अपनी पञ्चायत तक के सभी गाँव नहीं देखे थे, और मैत्री प्रोजेक्ट के अंतर्गत मैंने मुंगेर जिले के चार ब्लॉक क्रमशः बरियारपुर, धरहरा, मुंगेर सदर, और जमालपुर के लगभग एक सौ गाँवों का सर्वे किया। जमुई के कुछ गाँव भी मेरे सर्वे का हिस्सा रहे। 

समस्याएँ और समाधान: 

सर्वे करने के दौरान हमारी टीम के साथियों को बहुत परेशानियाँ हो रही थी। जैसे- सर्वे के दौरान, सम्मानपूर्वक बात ना करना, डांट कर भगा देना और बदतमीज़ी करना आदि। 

  • परेशानियों के साथ-साथ मदद के हाथ भी आगे आये। मदद करने वाले लोगो में मुखिया, वार्ड सदस्य और आम ग्रामीण लोग थे। 

  • शिक्षा के प्रति बच्चों और अभिभावकों में जागरुकता की कमी भी एक अहम समस्या रही।

  • हम ऐसे गाँवों में भी गए जहाँ तक किसी प्रकार की कोई सड़क नहीं जाती है, पक्के घर नहीं हैं। इस प्रकार के कुछ गाँव मन कोटिया, गोपाली चेक, ब्लॉक धरहरा में है। यहाँ लड़कियों को विद्यालय आने-जाने को लेकर अलग समस्याएँ थी। उनके अभिभावक भी इन समस्याओं के बारे में नहीं जानते थे। जिसको हमने अभिभावकों से लगातार बात करके हल किया।

  • जब हम आर.एन. मुसहरी टोला (बदला हुआ नाम) की दो बच्चियों का नामांकन कराने के लिए उन्हें विद्यालय लेकर गए तो वहाँ के प्रधानाध्यापक का कहना था कि आप दोनों गोरा होने वाली क्रीम (Fair&Lovely) लगा कर ही विद्यालय आ सकते हैं। ऐसे शब्द सुनकर किसी भी बच्ची का मनोबल टूट जाता। हमारी टीम ने दोनों पक्ष के साथ लगातार समय दिया और जातिवाद को किनारे करने के लिए बहुत समझाया।

  • गौरीपुर में हमारे काम करने के तरीके को लेकर भी प्रश्न उठाये गए। हम बच्चियों को स्कूल पहुँचाने के लिए जिस शिद्दत से लगे थे, उसे देखकर ग्रामीणों को लगने लगा कि अवश्य ही इन लोगो को (मैत्री टीम के सदस्यों) बच्चों के नाम पर विद्यालय में आने वाली राशि, अन्य सामान इत्यादि का हिस्सा मिलता होगा। उनका यह भी कहना था कि आधा तो विद्यालय के शिक्षक ही खा जाते हैं। हमने इस मानसिकता पर चोट की। अपने प्रयासों की एक विडियो बनाकर, सभी ग्रामीणों को उसे दिखाया। तब जाकर विश्वास अर्जित किया।

हितधारकों का व्यवहार: 

विद्यालयों के प्रधानाध्यापकों का अधिकतार बार ऐसा व्यवहार दिखा कि इस कम्युनिटी विशेष के बच्चों का नामांकन नहीं करते हैं। जिसके कई कारण पाए गए- 

  • बच्चे भट्टे पर मजदूरी करने चले जाते थे। अभिभावकों को इससे सहूलियत होती थी। क्योंकि घर पर उनकी देखभाल करने के लिए कोई नहीं बचता था।

  • अभिभावकों को नामांकन कराने हेतु लगने वाले दस्तावेजों का ज्ञान नहीं था।

  • आधार कार्ड ना बना होने के कारण विद्यालय बच्चे का नामांकन नहीं लेते थे।

  • बच्चियों के पास वर्दी ना होने के कारण उन्हें शिक्षक और प्रधानाध्यापक द्वारा कक्षा में बैठने नहीं दिया जाता था। 

  • जब हम किसी गाँव में सर्वे (survey) करने जाते थे तो कभी-कभी हमें आउट ऑफ़ स्कूल गर्ल्स (Out of School Girls) का डाटा देने से मना कर देते थे और तरह-तरह के झूठें आरोप भी हम पर लगाये जाते थे। उदाहरण के लिए जैसे कि हम डेटा बेच देंगें, या हमें कुछ आर्थिक रूप से कोई पैसा मिलने वाला हो!

क्या पद्धतियाँ काम आयीं?

  • गतिविधि के माध्यम से कम्युनिटी के लोगो को जोड़ना काफी कारगर साबित हुआ। 

  • बच्चियों का रिटेंशन (retention) करने में बाल-उत्सव, ग्राम सभा, शिक्षक-अभिभावक बैठक (PTM) जैसे इवेंट्स (events) काम आये।

  • अभिभावकों और ग्रामीणों के साथ ज्यादा समय और शिक्षा की जागरूकता सम्बंधित जानकारी देकर इंटरवेंशन (intervention) करना पड़ा। 

  • गर्मियों की छुट्टियों में जब बिहार सरकार द्वारा मिशन दक्ष चलाया जा रहा था, तब हमारी टीम भी दोपहर में दो घंटे बच्चियों को समुदाय में जाकर पढ़ाते थे।

  • अभिभावकों और विद्यालयों के बीच बातचीत करने से थोड़ा गैप (gap) कम हुआ।

इतना सब करने के बाद भी बच्चों के लिए प्रतिदिन विद्यालय जाना सरल नहीं था। हर गाँव-टोले की अलग-अलग समस्याएँ हैं, रिटेंशन के लिए निरंतर प्रयास करते रहना आवश्यक है। जो मैं और मेरी टीम कर ही रहे हैं।

मैत्री प्रोजेक्ट के दो वर्ष मेरे लिए मेरी लर्निंग जर्नी (learning journey) के अहम वर्ष रहेंगें। इन दो वर्षो में मैंने कम्युनिटी को, कम्युनिटी की समस्याओं को करीब से जाना है, जो मुझे जीवन पर्यंत इनके समाधानों पर विचार करने के लिए प्रेरित करेगा।

अभिषेक

टीम सदस्य, मुंगेर


Thursday, October 17, 2024

i-सक्षम में एक वर्ष की यात्रा- MG-ML से ट्यूशन पढ़ाना हुआ आसान

मुझे i-सक्षम से जुड़े हुए लगभग एक वर्ष पूरा होने वाला है। इस एक वर्ष में मैंने बहुत कुछ सीखा है, स्वयं में बहुत से बदलाव से बदलाव देखें हैं, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं।

  • अब मैं हजारों की भीड़ में खुद को सबसे अलग महसूस करती हूँ।

  • दस लोगों के सामने अपनी बातों को रख पाती हूँ और उन्हें समझा पाती हूँ। 

  • सामने वाले व्यक्ति की भावनाओं को समझ पाती हूँ और अपनी भावनाएँ समझा पाती हूँ।

  • स्वयं के लिए सही-गलत का चुनाव कर पाना।

  • खुद की गलतियों में सुधार कर पाना।


जब मैं इन चीजों को खुद में देख पा रही हूँ तो मुझे खुद पर बहुत गर्व महसूस हो रहा है। यह मेरे लिए बहुत बड़ी बात है।


मैं एक-दो महीने पहले का एक छोटा सा अनुभव आपके साथ शेयर कर रही हूँ। पहले जब मैं छ:-सात बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती थी तब मैं उनके दो घंटे के ट्यूशन के समय को सही से मैनेज (manage) नहीं कर पाती थी। मुझे खुद ही लगता था कि मैं उन बच्चों को ठीक से नहीं पढ़ा पाती हूँ। हालाँकि मेरे पास विषय (हिन्दी, अंग्रेजी और गणित) का ज्ञान तो था परन्तु पढ़ाने का सही तरीका नहीं पता था। 


ट्यूशन वाले बच्चों की कक्षा भी अलग-अलग होती है और उनका स्तर भी अलग-अलग होता है। जिस कारण मैं समझ नहीं पाती थी कि दो घंटे में एक साथ उन्हें कैसे पढ़ाऊँ?


फिर एक दिन हमारा Multi-grade Multi-level Class (MG-ML) का सेशन हुआ और सेशन से मेरी समझ काफी बेहतर बन पाई कि मैं इसे अपने ट्यूशन में सभी बच्चों को बेहतर ढंग से कैसे पढ़ा सकती हूँ। मैंने MG-ML के सभी नियम अपनी कक्षा में फ़ॉलो (follow) किए और आज मेरे पास 15 बच्चे ट्यूशन पढ़ रहें हैं। अब मुझे भी कोई समस्या नहीं होती और बच्चे भी मेरे पढ़ाने के तरीकों को पसंद करते हैं। मैं अपनी इस प्रोग्रेस (progress) से बहुत खुश हूँ और इसे सीखने से मेरा जीवन थोड़ा आसान हुआ है।


“जीवन में हर चीज आसान नहीं होती बल्कि हमें आसान बनानी पड़ती है”। मुझे अपने जीवन में क्या, कब, और कैसे करना है यह सवालों के जवाब मैं दूसरों से पूछती थी, लेकिन जब से i-सक्षम संस्था मेरे जीवन में आयी है तब से मुझे इन सवालों के जवाब स्वयं ही मिल जाते हैं।


शीतल कुमारी 

बैच 10, जमुई