इस खबर ने मन को दो हिस्सों में बाँट दिया—एक तरफ उत्साह, क्योंकि पहली बार बिहार से बाहर जाकर कुछ सीखने को मिलेगा, और दूसरी ओर भावनाओं की लहर, क्योंकि बच्चों से दूर जाना था।
लेकिन दिल ने समझाया— “अगर कुछ नया करना है, तो इस एक कदम से शुरुआत करनी होगी।” तैयारी बहुत पहले से शुरू हो गई थी, लेकिन जैसे ही यात्रा की तारीख नज़दीक आई, ट्रेन टिकट कन्फर्म नहीं हुई। मन में असमंजस था—जाऊं या न जाऊं? लेकिन जैसे ज़िंदगी हर बार रास्ता देती है, वैसे ही आखिरी वक्त पर टिकट मिल गया, और मैंने डर को पीछे छोड़ सफ़र शुरू कर दिया।
जो आशीर्वाद मैं उन्हें देती थी, आज वही मुझसे कह रहे थे—“बेस्ट ऑफ लक, मम्मी!”
वहां देश के अलग-अलग कोनों से लोग आए थे—हर कोई अपने समुदाय, बच्चों और समाज के लिए कुछ न कुछ कर रहा था। सबकी बातें सुनकर लगा, “कितना कुछ है जो हम मिलकर कर सकते हैं।” भाषा अलग थी, पर दिलों की बातें एक जैसी थीं। अपनापन, इज़्ज़त और सहयोग ने हम सबको एक धागे में बाँध दिया।
जो वहां सीखा—वो सिर्फ जानकारी नहीं थी, वो जीवन का अनुभव था। लोगों की सोच, उनका काम, और उनका जज़्बा देखकर मुझे लगा— “मैं भी इससे कम नहीं हूं।” मेरे भीतर के आत्मविश्वास ने जैसे एक नई उड़ान भर ली।
वापसी की यात्रा आसान थी, क्योंकि इस बार मैं अकेली नहीं थी— मेरे साथ था नया आत्मविश्वास, नई सोच और कई ऐसे साथी, जिनसे अब गहरा जुड़ाव था। उनमें से एक रवि सर थे, जो मानो अंधेरे में एक चिराग की तरह मेरा मार्गदर्शन कर रहे थे।
एक कदम, एक हिम्मत, और फिर वही उड़ान जो ज़िंदगी को एक नई ऊँचाई देती है।
बडी (मुज़फ्फरपुर)