Friday, April 18, 2025

क्या आपने कभी बच्चों को खुद की पसंद-नापसंद समझते देखा है? मीना मंच ने यह मुमकिन कर दिखाया!

मैं पूनम कुमारी, गया ज़िले से हूँ। इस समय मैं एडू लीडर का भूमिका में काम कर रही हूँ और आज मैं आप सबके साथ मीना मंच का एक खास पल साझा कर रही हूँ।
दिन था शुक्रवार। उस दिन शेरघाटी ब्लॉक के मध्य विद्यालय ब्राउन स्कूल में मीना मंच का कार्यक्रम आयोजित किया गया था। 
जब मै क्लास में गए तो वहां पर दो लड़की जो की ब्लैक बोर्ड पर मीना मंच का पोस्टर बना रहे थे। 
जब मै पिछले बार मीना मंच करवाए थे , तो उस समय 13 से 15 लड़कियां के साथ मीना मंच करवाए थे इस फ़रवरी महीने में कुल मिलाकर 30 किशोरी लड़कियां ने मीना मंच में शामिल हुए हैं।  कार्यक्रम की शुरुआत हुई — सभी लड़कियाँ गोल घेरे में बैठ गईं। फिर मैंने उनसे पूछा, "आप लोग जानती हैं हम आज यहाँ क्यों इकट्ठा हुए हैं?"
एक-एक करके लड़कियाँ बोलने लगीं — "दीदी, आज मीना मंच का कार्यक्रम है... दीदी, इसमें क्या होता है?... ये क्यों ज़रूरी है?"  मैंने उन्हें समझाया कि मीना मंच के ज़रिए हम नई-नई बातें सीखते हैं, अपने अंदर की ताक़त को पहचानते हैं, और एक-दूसरे से जुड़ते हैं।
मीना मंच में कक्षा 6th से 8th लड़कियाँ के साथ करते हैं-
इसके बाद हमने एक माइंडफुलनेस एक्टिविटी की जिसका नाम था — इंद्रधनुष के रंगइसमें लड़कियाँ को इंद्रधनुष के सात रंगों में से किसी एक रंग का नाम लेना था, फिर उस रंग की कोई वस्तु ढूंढ़कर उसे छूना और उसका नाम बताना था। जैसे ही मैंने शुरुआत की, सारी लड़कियाँ खड़ी हो गईं और बहुत उत्साह से हिस्सा लेने लगीं। स्कूल की मैडम भी वहाँ आकर देखने लगीं और उन्होंने भी बच्चों को बहुत सहयोग किया।
मजेदार गतिविधि की
पसंद और नापसंद वाला खेल। दो कोने बनाए गए — एक 'हाँ' वाला और एक 'ना' वाला।मैंने सवाल पूछे —"सुबह उठना पसंद है?" "डांस करना पसंद है?", "लड़ाई करना पसंद है?" जो लड़कियाँ पसंद करती थीं, वो 'हाँ' वाले कोने में जातीं और जो नहीं, वो 'ना' वाले में।
इस खेल से लड़कियाँ बहुत खुश हुईं और बार-बार बोलने लगें — "दीदी, और करवाईए ! बहुत मजा आ रहा है!"इसके बाद मैंने सबको कहा कि अब आप लोग कागज़ पर चित्र बनाइए — "जो चीज़ पसंद है, वो बनाओ और जो नहीं पसंद है, वो भी।
"एक लड़की बोली — "दीदी, मै चित्र  बनाएंगे और लिखेंगे भी।"मैंने कहा —"बिलकुल! जो तुम्हें ठीक लगे, वैसे  ही बनाई

उसके बाद ,
तीन-तीन लड़की के समूह बनाए। सबने अपने चित्र दिखाए, एक-दूसरे की पसंद-नापसंद को समझा।जब मैंने पूछा कि इस गतिविधि को करके कैसा लग रहा है, तो एक लड़की ने बोली —

"दीदी, अब समझ में आया कि मुझे क्या पसंद है और क्या नहीं, और साथ ही दूसरों के बारे में भी जाना— अच्छा लगा,  एक और बोली — "उत्साहित महसूस हुआ, प्रेरणा मिली।"
आखिरी में मैंने पूछा — "जो चीज़ आपको पसंद नहीं है, क्या आप चाहेंगी कि उसे पसंद में बदलें?" सभी लडकियाँ जोर से बोले "हाँ दीदी" एक लड़की बोली — "दीदी, मुझे खाना बनाना पसंद नहीं था, लेकिन अब मैं इसे पसंद करना चाहती हूँ।" इसी तरह सभी लडकियाँ बोली मै अपना ना पसंद को कॉपी में लिखेंगे, और पसंद में बदलेंगे,
मुझे ना पसंद है, उसके बारे में मम्मी को बतायेंगे और बोलेंगे आप मुझे मदद कीजियेगा इसे मै अपना पसंद में बदलूंगी।जैसे:- मुझे पढने का मन नहीं करता हैं,मुझे खाना बनाना पसंद नहीं है, मै सुबह जल्दी नहीं उठ पाती हूँ,
मेरा भी यहीं उदेश्य था, की लडकियाँ अपने पसंद के बारे में खुद से सोच पाए और समझ पाए। मुझे बहुत ख़ुशी मिली और मै अगली बार लडकियाँ के माता-पिता से मिलूंगी, और मै फिर से एक नया कहानी लायेंगेमीना मंच के ज़रिए लडकियाँ ना सिर्फ़ खुद को बेहतर समझ पाईं, बल्कि एक-दूसरे से भी सीखने लगीं।आइए हम सब मिल कर मीना मंच करवाए।
पूनम कुमारी , बैच-11
एडू लीडर , गया


गाँव की लड़की, और अब समुदाय की उम्मीद

मै उस गॉव की लड़की हूँ, जिसने कभी सोचा भी नहीं था की शिक्षा एक माध्यम बन सकती है- खुद को जानने, समझने और समाज में बदलाव लाने का। लेकिन आई-सक्षम फैलोशिप ने मुझे यही अवसर दिया। 
इन दो वर्षो में मैंने केवल शिक्षिका की भूमिका नहीं निभाई, बल्कि एक सुनने वाली साथी, सिखने वाली छात्रा, और नेतृत्व करने वाली दीदी के रूप में भी खुद को ढाला। बच्चो के साथ दिन के शुरुआत, मोहल्ला कक्षाओं में रचनात्मक गतिविधियाँ, और समुदाय के साथ सार्थक सवांद – ये मेरी प्रतिदिन की दिनचर्या का हिस्सा बन गए।

फेलोशिप के दौरान मैंने यह जाना की आत्मा-विश्लेषण और आत्मचिंतन कितने जरुरी हैं। “बढ़ते कदम” जैसे चिंतन-पत्रकों ने मुझे अपने विचारों को शव्द देने की कला सिखाई। जब मेरे साथी मेरी बातो को पढ़ते और सुझाव देते, तो लगता जैसे हम सब मिलकर एक-दुसरे को आगे बढ़ा रहे हैं।
मेरे गाँव में अब लोग मुझे सम्मान से ‘दीदी’ कहते है – वह दीदी जो सुनती है और साथ चलती है। आज मै पुरे विश्वास से कह सकती हूँ की यह यात्रा केवल शिक्षण की नहीं, बल्कि एक सशक्त स्त्री बनने की यात्रा थी।

Thursday, April 10, 2025

गाँव की ओर लौटती राह – शीतल

यह कहानी शीतल की है, जो शहर में पली-बढ़ी थी, लेकिन उसके मन में हमेशा गांव की सादगी और अपनापन बसा हुआ था। उसके लिए गांव एक खुली किताब की तरह था, जिसमें वह अपने सपनों की नई कहानी लिखना चाहती थी।

जब वह अपने गांव (कुमरडीह) लौटी, तब वह बहुत छोटी थी और दुनिया की कठिनाइयों से अनजान थी। उसके मन में एक ही सपना था—अपने घर का बड़ा सहारा बनना। पढ़ाई में होशियार होने के बावजूद आर्थिक तंगी उसके रास्ते में सबसे बड़ी बाधा थी। उसके पापा की तबीयत अक्सर खराब रहने लगी, जिससे घर की आर्थिक स्थिति और भी कमजोर हो गई।
कुछ दिन के बाद
हालांकि, मुश्किलों ने उसे तोड़ने के बजाय मजबूत बनाया। एक दिन उसे याद आया कि एक आंटी अपनी बेटी के लिए ट्यूशन की तलाश कर रही थीं। उसने यह अवसर हाथ से नहीं जाने दिया और ट्यूशन पढ़ाने का निर्णय लिया। यह उसकी पहली कमाई थी, जो उसके आत्मविश्वास को बढ़ाने के लिए काफी थी।
शुरुआत में उसकी मम्मी को चिंता थी कि कहीं पढ़ाने की वजह से उसकी पढ़ाई पर असर न पड़े। लेकिन उसने मेहनत और अनुशासन से दोनों जिम्मेदारियों को बखूबी निभाया। सुबह अपनी पढ़ाई करती और शाम को बच्चों को पढ़ाती। जब 12वीं के परीक्षा परिणाम आए, तो उसने न केवल अच्छे अंक प्राप्त किए बल्कि अपने पापा का भरोसा भी जीत लिया।
आज की स्थिति:

अब वही शीतल I-Saksham  में काम कर रही है और साथ ही 25 बच्चों को ट्यूशन पढ़ा रही है। वह B.A (सेमेस्टर 3) की विद्यार्थी भी है। उसकी मेहनत और लगन ने न केवल उसके परिवार की आर्थिक स्थिति को बेहतर किया बल्कि उसे आत्मनिर्भर भी बनाया।

"उम्मीद की किरण"यह कहानी दिखाती है कि अगर इंसान में कुछ कर दिखाने का जज्बा हो, तो कोई भी चुनौती उसे रोक नहीं सकती

शीतल 

बैच 10 

जमुई





Friday, April 4, 2025

"मैं बदल गई हूँ!"

अगर पाँच महीने पहले किसी ने मुझसे कहा होता कि मैं आत्मविश्वास के साथ अपनी बात रखूंगी, गाँव के मुखिया और Jeevika के सीएम से मिलूंगी, और लड़कियों को शिक्षित करने के लिए सेशन लूंगी—तो मैं शायद हँस देती! लेकिन I-Saksham से जुड़ने के बाद, मेरा सफर एक रोमांचक मोड़ पर आ गया। तो आइए, मेरी इस जर्नी को मजेदार अंदाज में जानते हैं!

शुरुआत – एक नई दुनिया में कदम 
पहले, मैं संकोची थी। भीड़ में बोलना तो दूर, किसी से अपनी बात साझा करने में भी हिचकिचाती थी। लेकिन जब मैंने I-Saksham ज्वाइन किया, तो मुझे लगा—"वाह! यहाँ तो खुलकर बोलने और सीखने का पूरा मौका है!"
पहली बार जब गाँव में सर्वे करने गई, तो मेरे हाथ-पैर फूल गए थे। लेकिन हिम्मत जुटाई, लोगों से मिली, उनकी समस्याएँ सुनीं और महसूस किया कि बदलाव लाना कितना ज़रूरी है!

मिशन: स्कूल छोड़ चुकी लड़कियों को जागरूक करना!
मुझे पता चला कि गाँव की कई किशोरियाँ स्कूल छोड़ चुकी हैं और घर पर बैठी हैं। अब मेरे दिमाग में एक ही बात थी—"कुछ करना है!"
मैंने उनसे बातचीत शुरू की और धीरे-धीरे उन्हें आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रेरित करने लगी। जब पहली बार मैंने सेशन लिया, तो लगा कि मैं एक टीचर, काउंसलर और दोस्त—तीनों बन गई हूँ! और मज़े की बात ये कि अब वे खुद कहती हैं—"दीदी, सेशन को डेढ़ घंटे से बढ़ाकर तीन घंटे कर दीजिए!"


आत्मविश्वास बढ़ाने वाला गेम चेंजर!
पहले मुझे हमेशा लगता था कि स्कूल में मेरे टीचर्स मुझे किसी प्रतियोगिता में क्यों नहीं भेजते। लेकिन I-Saksham ने मुझे हर मौके पर आगे बढ़ने का अवसर दिया। अब मैं खुलकर बोलती हूँ, अपनी बात रखती हूँ और अपने लिए स्टैंड भी ले सकती हूँ।

सुपरवुमन मोमेंट – महिलाओं को हस्ताक्षर सिखाना!
गाँव की कुछ महिलाएँ हस्ताक्षर तक नहीं कर पाती थीं। मैंने तय किया कि उन्हें सिखाऊँगी। जब पहली बार किसी ने अपने नाम पर साइन किया, तो उनकी आँखों की चमक देखने लायक थी! ऐसा लगा मानो उन्होंने कोई सुपरपावर हासिल कर ली हो।
पटना ट्रिप – जहाँ सपने सच होते है:- I-Saksham की वजह से मुझे पटना के इवेंट्स में जाने का मौका मिला। वहाँ सब कुछ लड़कियाँ ही कर रही थीं—फोटोग्राफी, डेकोरेशन, एंकरिंग, स्पीच! मैं दंग रह गई और सोचा—"अरे, ये तो कमाल की बात है!"

क्लस्टर मीटिंग और नया साल!
हम हर महीने क्लस्टर मीटिंग करते हैं, जहाँ समाज में बदलाव लाने के नए-नए तरीकों पर चर्चा होती है। और सबसे मज़ेदार बात—नए साल के स्वागत के लिए हम I-Saksham की टीम के साथ पिकनिक पर जा रहे हैं!

आज जब मैं अपने पाँच महीने के सफर को देखती हूँ, तो गर्व महसूस होता है। अब मैं सिर्फ सपने नहीं देखती, बल्कि उन्हें पूरा करने के लिए कदम भी उठाती हूँ!

I-Saksham सिर्फ एक संगठन नहीं, बल्कि मेरे जीवन का टर्निंग पॉइंट बन गया है!

पायल कुमारी
बैच 11
जमुई