Monday, June 16, 2025

मुज़फ्फरपुर की गलियों से जयपुर तक: मेरी उड़ान की शुरुआत

मुज़फ्फरपुर की गलियों से शुरू हुई मेरी कहानी, एक साधारण-सी ज़िंदगी से निकलकर एक नई दिशा की ओर बढ़ी। घर-परिवार, बच्चों की देखभाल और अपने छोटे से संसार में ही सारा समय बीतता था। लेकिन मन के एक कोने में हमेशा कुछ नया जानने, कुछ बड़ा करने की एक हल्की सी टिमटिमाहट थी।
और फिर एक दिन, जैसे वो टिमटिमाहट एक रोशनी बन गई—जब मुझे जयपुर जाने का मौका मिला।
इस खबर ने मन को दो हिस्सों में बाँट दिया—एक तरफ उत्साह, क्योंकि पहली बार बिहार से बाहर जाकर कुछ सीखने को मिलेगा, और दूसरी ओर भावनाओं की लहर, क्योंकि बच्चों से दूर जाना था।
लेकिन दिल ने समझाया—  “अगर कुछ नया करना है, तो इस एक कदम से शुरुआत करनी होगी।” तैयारी बहुत पहले से शुरू हो गई थी, लेकिन जैसे ही यात्रा की तारीख नज़दीक आई, ट्रेन टिकट कन्फर्म नहीं हुई। मन में असमंजस था—जाऊं या न जाऊं? लेकिन जैसे ज़िंदगी हर बार रास्ता देती है, वैसे ही आखिरी वक्त पर टिकट मिल गया, और मैंने डर को पीछे छोड़ सफ़र शुरू कर दिया।
पाटलिपुत्र स्टेशन पर जब ट्रेन में बैठी, तो पहली बार बिल्कुल अकेली थी। पर परिवार की आवाज़ें फोन पर मेरे साथ थीं। और बच्चों ने जिस प्यार से मुझे टीका लगाकर विदा किया, उसने मेरी हिम्मत को कई गुना बढ़ा दिया।
जो आशीर्वाद मैं उन्हें देती थी, आज वही मुझसे कह रहे थे—“बेस्ट ऑफ लक, मम्मी!”
नई दिल्ली से जयपुर का सफर रात के अंधेरे में था, लेकिन मन के भीतर एक नई रोशनी थी। शहर अजनबी था, रास्ता अनजाना, लेकिन मन कह रहा था—  “डर के आगे जीत है।” ओला बुक की, और पति की आवाज़ कॉल पर मेरे साथ थी। होटल पहुंचते ही जब रिसेप्शन पर किसी ने मुस्कुराकर कहा— “आप बिहार से हैं? मैं भी वहीं से हूं”, तो एक अजनबी शहर में जैसे कोई अपना मिल गया।
मीटिंग का पहला दिन बेहद खास था।
वहां देश के अलग-अलग कोनों से लोग आए थे—हर कोई अपने समुदाय, बच्चों और समाज के लिए कुछ न कुछ कर रहा था। सबकी बातें सुनकर लगा, “कितना कुछ है जो हम मिलकर कर सकते हैं।” भाषा अलग थी, पर दिलों की बातें एक जैसी थीं। अपनापन, इज़्ज़त और सहयोग ने हम सबको एक धागे में बाँध दिया।
जो वहां सीखा—वो सिर्फ जानकारी नहीं थी, वो जीवन का अनुभव था। लोगों की सोच, उनका काम, और उनका जज़्बा देखकर मुझे लगा— “मैं भी इससे कम नहीं हूं।” मेरे भीतर के आत्मविश्वास ने जैसे एक नई उड़ान भर ली।
वापसी की यात्रा आसान थी, क्योंकि इस बार मैं अकेली नहीं थी— मेरे साथ था नया आत्मविश्वास, नई सोच और कई ऐसे साथी, जिनसे अब गहरा जुड़ाव था। उनमें से एक रवि सर थे, जो मानो अंधेरे में एक चिराग की तरह मेरा मार्गदर्शन कर रहे थे।
"आई-सक्षम" मेरे लिए सिर्फ एक संस्था नहीं रही, वो मेरे पंख बन गई। पहले जहां मैं सिर्फ अपने जिले तक सोचती थी,अब राज्य पार करने का हौसला रखती हूं। मैंने खुद को एक नए रूप में जाना— मजबूत, आत्मनिर्भर और उम्मीद से भरी। अब मेरा सपना है—  जो कुछ भी मैंने सीखा, वो अपने साथियों तक पहुंचाऊं। क्योंकि बदलाव की शुरुआत हमसे होती है।
एक कदम, एक हिम्मत, और फिर वही उड़ान जो ज़िंदगी को एक नई ऊँचाई देती है।
लवली सिंह
बडी (मुज़फ्फरपुर)

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