Friday, August 29, 2025

सपना जो हकीकत बना

आज मैं Azim Premji University, भोपाल में पढ़ाई करने आई हूँ  यह सिर्फ एक एडमिशन नहीं, बल्कि मेरे जीवन का सबसे बड़ा सपना है जो आज पूरा हुआ है।

और शुरुआत हुई i-Saksham से ! जहाँ जुड़ना मेरे लिए एक नया मोड़ था। वहां न सिर्फ मैंने शिक्षा दी, बल्कि खुद भी बहुत कुछ सीखा  लीडरशिप, कम्युनिकेशन, और आत्मविश्वास। i-Saksham ने मुझे खुद पर विश्वास करना सिखाया, मुझे अवसर दिए, मुझे आगे बढ़ने की हिम्मत दी।

आज जब मैं APU के कैंपस में अपने पहले दिन कदम रख रही हूं, तो मन में कई भावनाएं हैं  उत्साह, डर, और एक गर्व का भाव।

मैं अपने गांव की पहली लड़की हूं जो इतनी दूर पढ़ाई के लिए आई है। ये रास्ता आसान नहीं था। आर्थिक मुश्किलें, सामाजिक सोच, और कई सवालों के बीच मैंने खुद को टूटने नहीं दिया। इस मुकाम तक पहुँचने में i-Saksham का सबसे बड़ा योगदान रहा है। अगर मैंने वहां वो अनुभव नहीं लिए होते, तो शायद आज यहां तक आना मुश्किल होता। 

APU का पहला दिन मेरे लिए बहुत खास रहा। नई जगह, नए लोग, और वो माहौल जिसने मुझे महसूस कराया कि मैं सच में अब अपने सपनों की जमीन पर हूं।

पहला दिन – APU में i-Saksham की छाप ।।

आज मेरा Azim Premji University में पहले सेमेस्टर का पहला दिन था। नया माहौल, नए चेहरे और नए रास्ते — मन में हल्का सा डर और बहुत सारा उत्साह लेकर मैं क्लास में पहुंची। क्लास की शुरुआत आशा मैम के एक सहज सवाल से हुई – "सभी अपना परिचय दीजिए।"

हर किसी ने अपने शहर, राज्य और अनुभवों के बारे में बताया। जब रूमा ने अपना परिचय देते हुए बताया कि वह बिहार से  है, तो मैम थोड़ा उत्सुक हुईं और पूछा, "तुम्हें अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के बारे में कैसे पता चला?"

रूमा ने मुस्कुराते हुए कहा – "i-Saksham से।"

फिर हम लोगों  ने भी बताया कि वे भी i-Saksham से हैं। फिर मैम ने कहा आप लोगों मे से कोई भी ये बताएगा कि i saksham करती क्या है?रजनी दी ने संक्षेप में संस्था के बारे में बताया, और जब मैम को पता चला कि 3rd semester में भी कुछ लोग है और अभी भी, तब मैम ने हँसते हुए कहा –

"क्या i-Saksham ने अपना ऑफिस बंद करके सबको यहीं भेज दिया है?"

ये सुनते ही क्लास में हँसी की लहर दौड़ गई, लेकिन मेरे भीतर एक अजीब-सी खुशी हुई। वो पल एक मज़ाक था, लेकिन मेरे लिए बहुत भावपूर्ण – जैसे APU में भी i-Saksham की एक मजबूत उपस्थिति है। यहां इतना i-Saksham का नाम लिया गया कि कुछ पलों के लिए लगा – मानो ये क्लासरूम एक छोटा सा i-Saksham बन गया हो।

i-Saksham की वो गर्माहट, सीखने का वो जज़्बा और आत्मनिर्भरता की भावना – आज इस नए सफर के पहले दिन मेरे साथ थी। 

एक बात जो यहां आकर एकदम नई लगी – वो ये कि AI और ChatGPT जैसे टूल्स का इस्तेमाल सख्त मना है। जबकि i-Saksham में हमने हमेशा इन टूल्स को एक सीखने और खुद को बेहतर बनाने के माध्यम के रूप में जाना।

शायद यही बदलाव का नाम शिक्षा है – कभी टेक्नोलॉजी के सहारे आगे बढ़ना, तो कभी खुद से सोचना, समझना और सीखना।

आज का दिन मेरे लिए एक पल जैसा था – बीते सफर और आने वाले रास्ते के बीच।

 शहनाज़ , जमुई 


Wednesday, August 27, 2025

कीचड़ मेरे पैरों में है, लेकिन मेरा रास्ता साफ है

सिरनिया गाँव, हरियाली से भरा हुआ एक सुंदर गाँव है लेकिन चुनौतियों से जूझता इलाका है । बरसात के बाद रास्ते कीचड़ में बदल जाते हैं, और चलना तक एक कठिन यात्रा बन जाता है। ऐसे में एक लड़की, जिसका नाम आशा है नाम के जैसा ही उसका काम, उम्मीद बाँटना।

आशा एक एडु लीडर है, जो गाँव की किशोरियों तक शिक्षा, स्वास्थ्य और आत्मनिर्भरता का संदेश लेकर पहुँचती है। आज वह एक विशेष किशोरी के घर जा रही थी। लड़की स्कूल छोड़ चुकी थी, घर की जिम्मेदारियों में फँस गई थी और धीरे-धीरे खुद से और दुनिया से कटती जा रही थी। आशा ने सोचा, "अगर मैं नहीं पहुँची, तो वह शायद फिर कभी बाहर न आए..."   

लेकिन रास्ता आसान नहीं था।

कीचड़ से लथपथ गलियाँ, पानी से भरे गड्ढे, फिसलन से भरे मोड़... एक ओर घना पेड़ था और दूसरी ओर कीचड़ से सनी ज़मीन। लेकिन आशा रुकी नहीं। उसने अपनी चप्पल सँभाली, दुपट्टा सिर पर कस कर बाँधा और आगे बढ़ गई। हर कदम में उसका साहस बोल रहा था, "मुझे जाना है। मुझे पहुँचना है। शायद मेरी एक बातचीत उस किशोरी की ज़िंदगी बदल दे।"

गाँव के लोग देख रहे थे  कोई ताना मारता, कोई मुस्कुराता, कोई चुपचाप नज़रें झुका लेता लेकिन आशा को फर्क नहीं पड़ा । वह जानती थी, "अगर एक लड़की भी आत्मनिर्भर बनती है, तो पूरा समाज बदलता है।"

उसने खुद से कहा : "ये कीचड़ मेरे पैरों में है, लेकिन मेरा रास्ता साफ है। मैं रुकूँगी नहीं।" 

उस दिन जब वह किशोरी के घर पहुँची, दरवाज़े पर दस्तक दी, और मुस्कुराकर बोली — "मैं तुम्हें ढूँढते हुए आई हूँ। क्या हम थोड़ी बात कर सकते हैं?"

उसके पैर कीचड़ से सने थे, लेकिन आँखों में चमक थी। और यहीं से एक नई कहानी शुरू हुई जहाँ एक आशा, सिर्फ नाम की नहीं, बल्कि असली ज़िंदगी की बदलने वाली बन गई।

आशा 
बैच 12 
बेगूसराय 


Tuesday, August 26, 2025

“मेरी बेटी ने कर दिखाया"

हलिमपुर गांव की रहने वाली एक साधारण सी लड़की जिसने अपने गांव में रहकर कुछ अलग ही कर दिखाया– अनु। एक छोटे गांव घर की लड़की, जिसने अपने हौसले से वो कर दिखाया, जो कई लोग सिर्फ सपनों में सोचते हैं।

छप्पर वाले घर से शुरू हुई कहानी

उनके परिवार में केवल उनकी मां और उनका एक छोटा भाई है बड़ी बहन की शादी हो चुकी है और पिताजी का देहांत हो चुका है। परिवार गरीब है ,एक छोटा सा छप्पर का घर, जो बरसात में पानी से भर जाता। जगह से जगह से पानी टपकते रहते थे ,अनु और उसकी का बस भीगे फर्श पर बैठी यह सोचती कि भगवान ने कितने दुख दिए है एक पक्के का जा होता तो आज जगह जगह बाल्टी या पन्नी नहीं लगा रही होती पानी रोकने के लिए कहते कहते अनु की मां रो पड़ी । 

आंखों में एक ही सपना था – *“काश, एक दिन हमारा भी पक्का घर हो।”* प्रधानमंत्री आवास योजना से घर बनाने की मंजूरी मिली तो उम्मीद जगी, लेकिन मंजूरी का मतलब मकान बनना नहीं था। पैसे की कमी ने फिर से मां के सपनों पर ताला लगा दिया। इनसब के बाद अनु ने फैसला किया कि अब वह अपने घर को पूरा करने के लिए कुछ करेगी ।अनु ने ठान लिया – *“मां का सपना अब अधूरा नहीं रहेगा।”* 

अनु इस सपने को पूरे करने के लिए हर तरह से कोशिश करती  रही और अंत में उसे ‘आई सक्षम’ के बारे में पता चला और कार्यक्रम से जुड़कर एडुलीडर का काम शुरू करने का मौका मिला सीखने और सिखाने का मौका मिला ।जो भी स्टाइपेंड मिला, वह उसने बचाया। साथ ही बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया। हर महीने के पैसों में से थोड़ा-थोड़ा जोड़ना आसान नहीं था, लेकिन अनु ने कभी हार नहीं मानी।इतना ही नहीं, घर पूरा करने के लिए उसने बैंक से कर्ज भी लिया। दिन बीतते गए, लेकिन अनु की मेहनत रंग लाई। 

ईंट पर ईंट रखी गई, और वो अधूरा घर एक दिन पूरा हो गया।मां की आंखों में चमक और गर्व|

जिस दिन घर तैयार हुआ, मां ने दरवाजे की चौखट पर खड़े होकर घर को देखा। और भावुक होकर वो वही रो पड़ी लेकिन इस बार ये आंसू लाचारी की नहीं थी इस बार उनके अंदर अलग हिम्मत और अलग हौसला था ,खुशी और गर्व के थे। मां के दिल में एक ही बात थी – “मेरी बेटी ने कर दिखायाआज तक मैं सोचती थी कि हर घर में बेटा नहीं हुआ तो झोपड़ी को महल कौन बनाएगा, पैसे कमाकर ये सुख कौन देगा" 


आज तक मकान बेटों ने बनाया है तो मां और साथ हो गांव वालों को यकीन नहीं हो रहा था कि मात्र इतनी कम उम्र में अन्नू ने वो काम किया जो लोग अपनी सोच में भी नहीं लाते है ।"

अनु कहती है अरे हम बेटियों पर भरोसा और विचार रख कर देखिए हम बेटियां वो सब करेगी जो एक बेटा भी कर रहा है ।"सब समान है बस मौका भी समान दो हम कुछ कर जरू दिखाएंगे।आज अनु न सिर्फ अपनी मां का सपना पूरा कर चुकी है, बल्कि पूरे गांव के लिए प्रेरणा बन गई है। उसने साबित कर दिया –

“हालात चाहे जैसे भी हों, अगर हिम्मत है तो कोई सपना अधूरा नहीं रहता।”

(अन्नू कुमारी जमालपुर प्रखंड के हलीमपुर गांव से संबंध रखती हैं।आपने अपनी स्नातक की डिग्री अर्थशास्त्र ऑनर्स में जगजीवन रामश्रमिक महाविश्वविदालय कॉलेज जमालपुर मुंगेर से की है । आपके घर में एक छोटा भाई,एक बड़ी बहन और माता है।माता गृहिणी है।आप i-Saksham में जुड़ने से पहले बच्चों की टयूशन पढ़ाया करते थे।आप सरकारी परीक्षाओं की तैयारी भी कर रहे हैं। अपना मन सदैव से ही समुदाय के लोगों के लिए कुछ करने का करता था।)

Monday, August 25, 2025

सुमन और उसकी आज़ादी की पूंजी

आर्थिक स्वतंत्रता या खतरा 

महिलाओं की बचत को अक्सर उनके आर्थिक स्वतंत्र होने के खतरे के रूप में देखा जाता है, क्योंकि ऐसी सोच में माना जाता है कि अगर महिला के पास अपना पैसा और निर्णय लेने का अधिकार होगा तो वह पारंपरिक निर्भरता से बाहर निकल सकती है। इसी कारण कई बार महिलाओं की बचत पर नियंत्रण पुरुषों के हाथ में रखा जाता है और इसे केवल घर की जरूरतों तक सीमित कर दिया जाता है। 

कई महिलाएं इस माहौल में अपने खर्च या आपात स्थिति के लिए गुप्त रूप से पैसे बचाती हैं, जो एक ओर पितृसत्तात्मक दबाव का नतीजा है, तो दूसरी ओर संकट के समय उनके लिए सुरक्षा कवच भी बन जाता है। 

ऐसी ही एक कहानी लेकर आई है -- सुमन, जो अपने पढाई के लिए २०,००० रूपय बचाई।

उन्होंने अक्सर ये पाया की जब भी उन्हें किसी चीज की जरुरत होती तो उन्हें अपने पिता - भाई से पैसे मांगना पड़ता  था । 

पिता जी कभी देने से मना करते या देने से पहले सुमन से कई सावलें करते। ये बाते सुमन को बुरी तो नहीं लगती लेकिन कही - न - कही ये बात सुमन की आत्म - निर्भरता को घटा रही थी।  

सुमन ने मन ही मन एक अपने पैसो की बचत करने का लक्ष्य लिया। शुरुआत में सुमन को बहुत चुनौती हुआ क्योकि वो अपने पैसो को खर्च कर लेती थी लेकिन जब उन्हें जरुरत के कामो के लिए किसी और से पैसे मांगने पड़ने लगे तो उन्हें यह महसूस हुआ की पैसे बचाना कितना आवश्यक है? 

परंतु धीरे धीरे - सुमन ने अपने फ़ेलोशिप के स्टाइपेन्ड से १ साल में २०००० रूपय जमा किये। अब सुमन आत्म - निर्भर रूप से अपने कार्यो को कर पा रही है। 


सुमन 
बैच 11 
मुजफ्फरपुर 

Friday, August 22, 2025

गौरव की बदलती दुनिया: एक कोशिश

आटिज्म या स्लो लर्निंग का असर भारतीय बच्चों में प्रायः देखने को मिल जाते हैं,  लगभग हर १००० में १ भारतीय बच्चा इससे प्रभावित मिलता है |१  भारत जैसे विकास-सील देशों में न तो इनके लिए कोई खास प्रावधान देखने को तो नहीं मिलता, हाँ देश के कुछ महानगरों में शायद कुछ गिने चुने गैर सरकारी संसथान हो जिनके पास उपयुक्त व्यवस्था की उम्मीद की जा सकती है | 

ऐसे में बिहार जैसे राज्य का पिछड़ा होना, आटिज्म के मरीज़ों के लिए श्राप के कम कुछ नहीं | बिहार के ग्रामीण इलाकों में आटिज्म को पागलपन से भी जोड़ का देखा जाता है | बचपन में सही देख रेख की कमी ऑटिस्टिक बच्चों में सुधार की गुंजाईश काफी कम कर देता है |

मध्य विधालय प्रह्लादपुर स्कूल, के दूसरी कक्षा का छात्र - गौरव की यही कहानी होती पर हमारी एडु-लीडर सविता के अटूट विश्वास और अथक प्रयासों से गौरव की कहानी में बदलाव साफ़ दिखता है | 

सविता - प्रह्लादपुर गांव की रहने वाली एक साधारण सी लड़की है जो आई- सक्षम में एक एडु-लीडर के तौर पर काम करती हैं, अपने काम के दौरान सविता की मुलाकात गौरव से हुई जो बाकी बच्चों से अलग-थलग और डरा-डरा सा रहता था। 

सविता ने गौरव में कुछ खास देखा। उन्होंने तय किया कि वे उसे समझने और उसका आत्मविश्वास बढ़ाने का प्रयास करेंगी। उन्होंने गौरव को बाकी बच्चों से जोड़ने के लिए खेल, चित्र-पठन, और ज़मीन पर अक्षर लिखने जैसे रचनात्मक तरीकों का इस्तेमाल किया।

धीरे-धीरे गौरव खेलों में रुचि लेने लगा, और अक्षरों को पहचानने लगा। कुछ महीनों बाद, वह खुद से उत्तर देने लगा, कहानियाँ सुनाने के लिए आगे आने लगा, और कक्षा में भागीदारी दिखाने लगा।

गौरव की यह प्रगति सिर्फ पढ़ाई में नहीं थी, बल्कि व्यवहार और आत्मविश्वास में भी दिखने लगी। सविता ने गौरव की पसंद-नापसंद जानकर, उन्हें कक्षा गतिविधियों में शामिल किया। धीरे-धीरे वह भी बाकी बच्चों जैसा महसूस करने लगा।

स्कूल के सभी सदस्यों ने भी गौरव में आये इस बदलाव की भरपूर सराहना भी की और साथ भी दिया|अभिवावक भी गौरव को सही इलाज और स्कूल की व्यवस्था करने में जुट गए है|

ये सब केवल इसलिए संभव हो पाया है क्यूंकि सविता ने अपनी ज़िद नहीं छोड़ी - इसलिए सही कहते है कि - ज़िद जरुरी होता है |

सविता 
बैच 11
मुजफ्फरपुर  


Wednesday, August 20, 2025

आरती की राह: खुद से समाज तक

बिहार के मुजफ्फरपुर जिले की आरती की पहचान लंबे समय तक केवल एक गृहस्थ बहू तक सीमित रही। परंपराओं की बेड़ियों में बंधी, परिवार और समाज की अपेक्षाओं में उलझी, उसका जीवन घर की चारदीवारी और घरेलू जिम्मेदारियों तक सिमटा हुआ था। बाहर की दुनिया, खासकर शिक्षा और समाजसेवा, उसके लिए एक सपना तो थी, लेकिन बेहद दूर का सपना जैसे आसमान में टिमटिमाता तारा, जिसे वह देख तो सकती थी, पर छू नहीं सकती थी।

साल 2024 में उसकी जिंदगी ने करवट ली। जब उसने “आई-सक्षम फेलोशिप” से जुड़ने का फैसला किया, तो यह कदम उसके लिए केवल एक अवसर नहीं, बल्कि साहस की परिभाषा बन गया। इस अवसर ने उसे समाज में एक शिक्षिका के रूप में पहचान दिलाई, जिससे उसके गाँव में शिक्षा को महत्व मिलने लगा। गांव की बहू के लिए इस तरह घर से निकलकर समाज में कदम रखना आसान नहीं था। इस राह में उसे समाज के ताने और परिवार की असहयोगिता का भी सामना करना पड़ा, लेकिन आरती हार नहीं मानी। 

फेलोशिप के शुरुआती दिनों में वह चुपचाप कोने में बैठी रहती। उसे खुद पर भरोसा नहीं था कि वह अपनी बात कह भी पाएगी। लेकिन प्रशिक्षकों और साथियों का सहयोग, और हर सप्ताह मिलने वाली सीख ने उसके भीतर सीखने की धीमी-धीमी आग जलाई। यह आग आत्मविश्वास की थी और बदलाव लाने की चाह की थी। वह बोलने लगी, सवाल करने लगी, और अपने विचार खुलकर रखने लगी। तभी उसने ठान लिया कि वह अपने गांव में शिक्षा को लेकर कुछ ठोस बदलाव लाएगी।

परिवर्तन की शुरुआत उसने अपने घर से की। पति और सास-ससुर को समझाया कि शिक्षा केवल बच्चों के लिए नहीं, बल्कि पूरे परिवार के विकास की कुंजी हैआरती ने कई साल बाद अपनी पढ़ाई फिर से शुरू करने का फैसला लिया। आज वह स्नातक की पढ़ाई कर रही है। आरती का यह छोटा-सा कदम पूरे परिवार की सोच को बदलने लगा। उसके इस बदलाव को देखकर परिवार वाले अब उसके हर निर्णय को महत्व देने लगे। यही आरती की सबसे पहली उपलब्धि थी।

अब बारी थी इस बदलाव को सामाजिक स्तर पर लाने की। धीरे-धीरे यह बदलाव गांव में भी महसूस होने लगा। लोग उसकी बातें सुनने लगे, कई बच्चे स्कूल लौट आए। जहां पहले लड़कियां 8वीं के बाद पढ़ाई छोड़ देती थीं, अब वे 10वीं और 12वीं तक पढ़ने का सपना देखने लगीं।

आरती की कहानी यह स्पष्ट करती है कि हर परिवर्तन की शुरुआत स्वयं में बदलाव लाने से ही होती है।

आरती 
मुज़फ्फरपूर

Saturday, August 16, 2025

लैंगिक सोच को चुनौती देती एक लड़की

कौन जानता था कि रुचिका की एक छोटी-सी पहल, समाज में इतनी बड़ी लैंगिक सोच की दीवार को हिला देगी?

रुचिका एक अति-पिछड़े समुदाय से आती है, जहाँ लड़कियों को आज भी सिर्फ घर के कामों के लिए ही समझा जाता है।

“ लड़कियां बाहर नहीं जातीं ”, “पढ़ाई-लिखाई लड़कों का काम है ”, “ घर की इज़्ज़त लड़की के पर्दे में है”  ऐसी सोच ने वहाँ की लड़कियों की उड़ान पर ताले लगा रखे थे।

लेकिन रुचिका की सोच इन लैंगिक बेड़ियों से बिल्कुल अलग थी।

उसे विश्वास था कि लड़कियां भी पढ़ सकती हैं, बाहर जाकर काम कर सकती हैं, परिवार और समाज को संवार सकती हैं।

उसे सिर्फ एक मौके की तलाश थी और वो मौका आया आई-सक्षम फेलोशिप के रूप में।

इस फेलोशिप के दौरान उसने देखा कि लड़कियों को बोलने तक की आज़ादी नहीं, स्कूल जाना तो दूर की बात है। रुचिका ने सबसे पहले अपने समुदाय में यह धारणा तोड़ने का बीड़ा उठाया कि "बेटियां बाहर नहीं जा सकतीं।" सबसे बड़ी बात यह थी कि इस बदलाव की शुरुआत उसने खुद से की |

जब उसका फेलोशिप खत्म हुआ, तो उसने घर से बाहर निकलकर, दूसरे जिले (समस्तीपुर) में रहकर कार्य करने का निर्णय लिया।

यह कदम लेना आसान नहीं था एक लड़की का घर से बाहर जाकर नौकरी करना, वो भी एक ऐसे समाज में जहाँ ये सोच ही नहीं है, बहुत साहस का काम था ।

परिवार असमंजस में था बेटी की ज़िद माने या समाज की परंपरा?

लेकिन रुचिका ने हार नहीं मानी। उसने घर वालों को भी अपनी सोच बदलने पर मजबूर किया।

आज वही रुचिका, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर है, अपने परिवार को सहयोग दे रही है,और सबसे बढ़कर — अपने जैसी कई लड़कियों के लिए रास्ता खोल चुकी है। अब उसकी बहनें ही नहीं, गाँव की और लड़कियाँ भी बाहर जा रही हैं, पढ़ रही हैं, कोर्स कर रही हैं।

एक लड़की के फैसले ने पूरे समाज की लैंगिक सोच को चुनौती दी और बदल डाला।

रुचिका, 
बैच १०, 
मुजफ्फरपुर 

Wednesday, August 13, 2025

परंपराओं को चुनौती देती एक नई सोच

समाज में बाल विवाह (कम उम्र में शादी) आज भी एक गंभीर समस्या बनी हुई है। 

खासकर ग्रामीण और आर्थिक रूप से कमजोर इलाकों में यह प्रथा सामाजिक दबाव, गरीबी, अशिक्षा और पितृसत्तात्मक सोच के कारण जारी है। लड़कियों की शादी अक्सर 18 वर्ष से पहले कर दी जाती है, जिससे उनका शिक्षा, स्वास्थ्य और आत्मनिर्भरता पर गहरा असर पड़ता है।

कम उम्र में शादी से लड़कियों को पढ़ाई छोड़नी पड़ती है, जिससे उनका मानसिक और बौद्धिक विकास रुक जाता है। हालांकि, सरकार और कई गैर-सरकारी संस्थाएं बाल विवाह रोकने के लिए अभियान चला रही हैं, लेकिन यह सिर्फ कानून से नहीं, सामाजिक सोच बदलने से ही संभव है। जब तक परिवार और समुदाय यह नहीं समझेंगे कि शिक्षा और आत्मनिर्भरता बच्चों का अधिकार है, तब तक इस कुप्रथा को पूरी तरह समाप्त करना मुश्किल होगा।


ऐसे कुछ बदलाव लाने की कोशिश की रागिनी ने.. जो समाज की परंपराओं के खिलाफ खड़ी होकर अपनी आवाज उठा रही है।  

रागिनी आई - सक्षम बैच १० की फेलो है। इनके परिवार की आर्थिक स्थिति अत्यंत दयनीय थी। वो अपनी जरूरत के चीज़े और पढाई का खर्च भी फ़ेलोशिप के मानदेय से ही पूरा करती थी उनके पिताजी उन्हें किसी प्रकार का कोई सहायता नहीं करते थे। उन्होंने अपने फ़ेलोशिप को बेहद ही चुनौतियों का सामना करते हुए पूरा किया जो एक साधारण बात नहीं थी। फ़ेलोशिप के अंत में उनकी कड़ी मेहनत और बेहतर समझ के आधार पर उन्हें आशा फ़ेलोशिप के साथ कार्य करने का मौका मिला । यह उनके लिए न सिर्फ एक नई शुरुआत थी, बल्कि उनके सपनों की उड़ान का मजबूत आधार भी बना, यह मौका उनके संघर्षों का सम्मान था। 

इस अवसर को पाने के लिए रागिनी अपनी पूरी निष्ठां के साथ उसकी तैयारी में लग गई , लेकिन तभी उनके परिवार में उनकी शादी की बातचीत
शुरू
हो गई। परिवार चाहता था कि रागिनी जल्दी विवाह करें और पारंपरिक जिम्मेदारियाँ निभाएं, जबकि रागिनी के सपने इससे कहीं अलग थे। वह अपने जीवन को अपनी मर्ज़ी से जीना चाहती थीं और आगे कुछ बड़ा करना चाहती थीं।

उन्होंने इस चुनौतीपूर्ण परिस्थिति में मदद के लिए आई - सक्षम टीम से सहयोग माँगा। टीम ने उनके परिवार वालों से बातचीत की विशेषकर उनकी माँ से। ताकि, उन्हें यह समझाया जा सके कि शिक्षा और आत्मनिर्भरता रागिनी के लिए क्यों जरूरी हैं। यह बातचीत सकारात्मक रही, और रागिनी ने भी साहस दिखाते हुए पहली बार अपने जीवन से जुड़े निर्णयों में अपनी आवाज को मुखर किया। उन्होंने खासतौर पर अपनी मां से खुलकर बात की और अपने अधिकार के लिए मजबूती से खड़ी रहीं।

लेकिन , इस परिस्थिति में भी उनके पिता ने इस निर्णय में अपनी सहमति नहीं दी।  बल्कि, उन्होंने रागिनी और उनकी माँ को बहुत ही प्रताड़ित किया। उनके घर से बाहर जाने तक उनके पिता ने कोशिश किया की किसी प्रकार रागिनी की शादी हो जाए।  फिर भी, रागिनी अपना इरादा नहीं बदली और अपने पिता की सहमति के बिना ही आगे बढ़ने का निर्णय लिया। जो एक बहुत बड़ा निर्णय है। 

अब जब रागिनी वित्तीय रूप से अपने परिवार की जरूरतों की जिम्मेदारियों को उठा रही है तो उनके पिता की मानसिकताओं में भी सुधार आ रहा है।  अब रागिनी को स्वतंत्र है अपने शादी के फैसले खुद लेने के लिए। 

आज रागिनी दलसिंघसराय में आशा फेलोशिप में कार्यरत है। ये देख उनकी माँ बहुत खुश है और अपने बेटी के हक्क में जो फैसला ली उसे गौरान्वित महसूस कर रही है।

रागिनी, बैच १०, मुजफ्फरपुर