कौन जानता था कि रुचिका की एक छोटी-सी पहल, समाज में इतनी बड़ी लैंगिक सोच की दीवार को हिला देगी?
रुचिका एक अति-पिछड़े समुदाय से आती है, जहाँ लड़कियों को आज भी सिर्फ घर के कामों के लिए ही समझा जाता है।
“ लड़कियां बाहर नहीं जातीं ”, “पढ़ाई-लिखाई लड़कों का काम है ”, “ घर की इज़्ज़त लड़की के पर्दे में है” ऐसी सोच ने वहाँ की लड़कियों की उड़ान पर ताले लगा रखे थे।
लेकिन रुचिका की सोच इन लैंगिक बेड़ियों से बिल्कुल अलग थी।
उसे विश्वास था कि लड़कियां भी पढ़ सकती हैं, बाहर जाकर काम कर सकती हैं, परिवार और समाज को संवार सकती हैं।
उसे सिर्फ एक मौके की तलाश थी और वो मौका आया आई-सक्षम फेलोशिप के रूप में।
इस फेलोशिप के दौरान उसने देखा कि लड़कियों को बोलने तक की आज़ादी नहीं, स्कूल जाना तो दूर की बात है। रुचिका ने सबसे पहले अपने समुदाय में यह धारणा तोड़ने का बीड़ा उठाया कि "बेटियां बाहर नहीं जा सकतीं।" सबसे बड़ी बात यह थी कि इस बदलाव की शुरुआत उसने खुद से की |
जब उसका फेलोशिप खत्म हुआ, तो उसने घर से बाहर निकलकर, दूसरे जिले (समस्तीपुर) में रहकर कार्य करने का निर्णय लिया।
यह कदम लेना आसान नहीं था एक लड़की का घर से बाहर जाकर नौकरी करना, वो भी एक ऐसे समाज में जहाँ ये सोच ही नहीं है, बहुत साहस का काम था ।
परिवार असमंजस में था बेटी की ज़िद माने या समाज की परंपरा?
लेकिन रुचिका ने हार नहीं मानी। उसने घर वालों को भी अपनी सोच बदलने पर मजबूर किया।
आज वही रुचिका, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर है, अपने परिवार को सहयोग दे रही है,और सबसे बढ़कर — अपने जैसी कई लड़कियों के लिए रास्ता खोल चुकी है। अब उसकी बहनें ही नहीं, गाँव की और लड़कियाँ भी बाहर जा रही हैं, पढ़ रही हैं, कोर्स कर रही हैं।
एक लड़की के फैसले ने पूरे समाज की लैंगिक सोच को चुनौती दी और बदल डाला।
बैच १०,
मुजफ्फरपुर

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