बिहार के मुजफ्फरपुर जिले की आरती की पहचान लंबे समय तक केवल एक गृहस्थ बहू तक सीमित रही। परंपराओं की बेड़ियों में बंधी, परिवार और समाज की अपेक्षाओं में उलझी, उसका जीवन घर की चारदीवारी और घरेलू जिम्मेदारियों तक सिमटा हुआ था। बाहर की दुनिया, खासकर शिक्षा और समाजसेवा, उसके लिए एक सपना तो थी, लेकिन बेहद दूर का सपना जैसे आसमान में टिमटिमाता तारा, जिसे वह देख तो सकती थी, पर छू नहीं सकती थी।
फेलोशिप के शुरुआती दिनों में वह चुपचाप कोने में बैठी रहती। उसे खुद पर भरोसा नहीं था कि वह अपनी बात कह भी पाएगी। लेकिन प्रशिक्षकों और साथियों का सहयोग, और हर सप्ताह मिलने वाली सीख ने उसके भीतर सीखने की धीमी-धीमी आग जलाई। यह आग आत्मविश्वास की थी और बदलाव लाने की चाह की थी। वह बोलने लगी, सवाल करने लगी, और अपने विचार खुलकर रखने लगी। तभी उसने ठान लिया कि वह अपने गांव में शिक्षा को लेकर कुछ ठोस बदलाव लाएगी।
परिवर्तन की शुरुआत उसने अपने घर से की। पति और सास-ससुर को समझाया कि शिक्षा केवल बच्चों के लिए नहीं, बल्कि पूरे परिवार के विकास की कुंजी है। आरती ने कई साल बाद अपनी पढ़ाई फिर से शुरू करने का फैसला लिया। आज वह स्नातक की पढ़ाई कर रही है। आरती का यह छोटा-सा कदम पूरे परिवार की सोच को बदलने लगा। उसके इस बदलाव को देखकर परिवार वाले अब उसके हर निर्णय को महत्व देने लगे। यही आरती की सबसे पहली उपलब्धि थी।
अब बारी थी इस बदलाव को सामाजिक स्तर पर लाने की। धीरे-धीरे यह बदलाव गांव में भी महसूस होने लगा। लोग उसकी बातें सुनने लगे, कई बच्चे स्कूल लौट आए। जहां पहले लड़कियां 8वीं के बाद पढ़ाई छोड़ देती थीं, अब वे 10वीं और 12वीं तक पढ़ने का सपना देखने लगीं।
आरती की कहानी यह स्पष्ट करती है कि हर परिवर्तन की शुरुआत स्वयं में बदलाव लाने से ही होती है।
मुज़फ्फरपूर
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