“बेटा पाने की चाह में मेरी आठ बेटियाँ हो गईं। अब लोग पूछते हैं—क्या बेटियों की ज़िंदगी बस शादी तक ही सीमित हो जाएगी?”
करिश्मा की माँ के ये शब्द सुनकर खुशी कुमारी अंदर तक झकझोर गईं। यह सिर्फ़ एक माँ की
बेबसी नहीं थी, बल्कि उस पितृसत्तात्मक सोच का आईना था, जो बेटियों को बोझ और बेटों को ‘मूल्य’ मानती है।
होम विज़िट के दौरान खुशी ने महसूस किया कि परिवार खुलकर बातें कर रहा था। तभी उन्होंने एक सवाल पूछा— “क्या हम भी इस समाज का हिस्सा बनकर कभी दूसरों को ऐसे ही जज करते हैं?”
यह सवाल जैसे कमरे की चुप्पी तोड़ गया और दबी आवाज़ों को बाहर ले आया।
बातचीत में एक किशोरी ने भी डर साझा किया—गाँव वाले उसकी माँ से कहते हैं, “क्या करेगी पढ़कर?” उसे लगता है कि अगर वह 12वीं पास नहीं कर पाई तो उसकी शादी कर दी जाएगी। यह उस नाज़ुक मोड़ को दिखाता है जहाँ लड़कियाँ अपने सपनों और समाज की बंदिशों के बीच फँस जाती हैं।
इस अनुभव ने खुशी को गहराई से सिखाया कि—
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विश्वास और समय से जुड़ाव बनता है।
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सही सवाल बड़े दरवाज़े खोल सकते हैं।
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एक सामुदायिक लीडर का असली औज़ार उसके शब्द और सवाल होते हैं।
खुशी की यह क्षमता सहज नहीं आई। लगातार हुए लीडरशिप प्रशिक्षण और अभ्यास ने उन्हें एक ऐसी सामुदायिक नेता बनाया है, जो सिर्फ़ सुनती नहीं बल्कि अपने सवालों से सोच बदलने की ताक़त रखती है।
खुशी कुमारी
बडी, जमुई
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