मेरा नाम निशा है, और आज मैं आप सबके साथ अपने स्कूल के सफ़र की एक कहानी साझा करने जा रही हूँ।
जब मैंने i-Saksham से जुड़ने का सोचा, तो मुझे लगा कि मैं बस तुरंत स्कूल जाऊँगी और बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दूँगी। इस सोच से थोड़ी घबराहट भी होती थी, लेकिन उत्साह भी था। i-Saksham में हमें पहले ट्रेनिंग मिली, और यह मेरे लिए किसी भी तरह का पहला प्रोफेशनल प्रशिक्षण था – जिसने मुझे बहुत कुछ सिखाया।
स्कूल का पहला दिन: उम्मीद और हकीकत
फिर वह दिन आया जब मुझे स्कूल भेजा गया। मैं बहुत खुश थी कि अब मैं बच्चों को सिखाऊँगी, पढ़ाऊँगी और कुछ नया कर पाऊँगी। लेकिन स्कूल पहुँचते ही जो माहौल देखा, वह मेरी उम्मीद से बिलकुल अलग था। बच्चे आपस में झगड़ रहे थे, गालियाँ दे रहे थे – चारों तरफ शोर और अव्यवस्था थी ।
शुरू में मेरा आत्मविश्वास नहीं डगमगाया। मैंने सोचा कि मैं सब संभाल लूँगी। लेकिन एक हफ़्ते से ज़्यादा समय बीतते-बीतते, मेरा कॉन्फिडेंस कम होने लगा । बच्चों को समझाते-समझाते मैं खुद चिड़चिड़ी हो गई थी । मन तो करता था कि अपनी दीदी (टीम मेंबर) से कह दूँ कि “मुझे किसी और स्कूल में भेज दीजिए” ।
पर फिर मैंने सोचा – अगर वहाँ भी ऐसे ही बच्चे मिले तो मैं क्या करूँगी? यह सवाल ही मेरी असली लीडरशिप की शुरुआत थी। मैंने फैसला किया कि मैं भागूँगी नहीं। मैंने हिम्मत जुटाई और अपनी टीम लीडर दीदी से सारी बातें शेयर कीं।
उनकी सलाह के बाद, मैंने बच्चों के साथ पहले अच्छा संबंध बनाने की कोशिश की 🤞। मैंने यह समझने की कोशिश की कि उन्हें किस चीज़ में मज़ा आता है, उनकी दुनिया क्या है। फिर धीरे-धीरे मैंने उन्हें अपनी बातों में शामिल करना शुरू किया।
मैंने बच्चों के साथ रोज़ कुछ अलग और नई गतिविधियाँ करवाना शुरू किया। शुरू में वे मेरी बात बिल्कुल नहीं सुनते थे। मैं कोशिश करती रहती, उनसे अच्छे संबंध बनाने की हर मुमकिन कोशिश करती। कुछ दिनों तक यही स्थिति रही – धैर्य की असली परीक्षा!
धीरे-धीरे बच्चों ने समझना शुरू किया कि मैं उन्हें अलग-अलग गतिविधियों के ज़रिए कुछ नया और मज़ेदार सिखा रही हूँ। तब से वे मेरी बातों को ध्यान से सुनने लगे और मानने भी लगे। यह सब लिखना तो आसान है, लेकिन उस समय बच्चों को संभालना वाकई एक चुनौती थी। आज जब सोचती हूँ, तो वो पल याद आ जाते हैं ।
अब वही बच्चे, जो पहले मेरी बात नहीं सुनते थे, मुझे याद दिलाते हैं – “दीदी, ये करवाइए, वो छूट गया।”
हालाँकि अभी भी सभी बच्चे पूरी तरह नहीं बदले हैं, लेकिन इतना ज़रूर है कि अब वे मेरी बातों को मानते भी हैं और समझते भी हैं । यह मेरे लिए एक बहुत बड़ी सीख है कि बदलाव एक दिन में नहीं आता, पर कोशिश करते रहने से ज़रूर आता है।
लेखिका के बारे में:
नाम: निशा खातून, बेगूसराय ज़िले के बजलपूरा गाँव की रहने वाली हैं
परिचय: वर्ष 2025 में, वह “i-Saksham” के बैच-12 की फेलो के रूप में जुड़ीं।
लक्ष्य: निशा अभी ग्रेजुएशन कर रही है , ये आगे अध्यापन के क्षेत्र में जाना चाहती हैं।
No comments:
Post a Comment