"पापा, हम वाराणसी जाएंगे। छोटी बहन का B.Ed का एग्जाम है। सोच रही हूँ, परीक्षा भी हो जाएगी और घूम भी लेंगे।”
यह कहानी उस दिन शुरू हुई जब मैंने अपनी माँ और बहन के साथ वाराणसी जाने का एक छोटा-सा प्लान बनाया। मेरी छोटी बहन की B.Ed की परीक्षा थी और हमने सोचा कि इसी बहाने हम सब साथ घूम भी लेंगे।
जब मैंने यह बात अपने ससुर जी को बताई, तो मुझे एक ऐसे जवाब की उम्मीद नहीं थी जो मेरे आत्मविश्वास को हिलाकर रख दे। मैंने उत्साह से कहा, “पापा, हम सब वाराणसी जा रहे हैं। टिकट भी करवा लिए हैं।”
उन्होंने बिना किसी भाव के पूछा, “तुम, तुम्हारी माँ, तुम्हारी बहन... बस! कोई मर्द साथ नहीं जाएगा? कैसे हिम्मत हो जाती है तुम्हारी बिना मर्द के जाने की? एक दिन कोई बेच देगा तुम लोगों को।”
एक सवाल जो दिल में चुभ गया
उनके शब्द मेरे कानों में तीर की तरह चुभे। उनके सवाल में चिंता नहीं, बल्कि अविश्वास था। वह मेरे पिता समान थे, लेकिन उन्होंने एक बार भी यह नहीं पूछा कि हम किस ट्रेन से जा रहे हैं, या हमें किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं।
उस रात मैं बहुत रोई। मेरे मन में बार-बार यही ख्याल आ रहा था – "क्या मैं सच में कुछ गलत कर रही हूँ? क्या मुझे टिकट कैंसिल करवा देने चाहिए?"
हिम्मत का एक छोटा-सा फैसला
लेकिन आँसुओं के बीच मेरे अंदर से एक आवाज़ आई – “मैं एक औरत हूँ, लेकिन कमज़ोर नहीं। मेरी हिम्मत मेरी अपनी है, किसी पुरुष की परछाई नहीं।”
मैंने टिकट कैंसिल नहीं कराए। मैंने न सिर्फ जाने का फैसला किया, बल्कि अपनी माँ, बहन और अपने चार साल के बेटे के साथ एक सुरक्षित यात्रा पूरी की। हमने वाराणसी घूमा भी और मेरी बहन ने सफलतापूर्वक अपनी परीक्षा भी दी।
लीडरशिप का असली मतलब
कुछ समय बाद, एक ट्रेनिंग सेशन में जब ‘जेंडर स्टीरियोटाइप’ यानी लिंग के आधार पर बनी पुरानी सोच पर बात हो रही थी, तो मुझे अपना यह अनुभव याद आ गया। मेरे ससुर जी की वह बात, कि “औरत मर्द के बिना यात्रा नहीं कर सकती,” इसी गलत सोच का एक उदाहरण थी।
उस दिन मैंने बहस करके नहीं, बल्कि अपने फैसले पर टिककर उस सोच को तोड़ा था।
इस यात्रा ने मुझे सिखाया कि असली सुरक्षा किसी के साथ होने में नहीं, बल्कि खुद पर विश्वास करने में है। अब मेरा बस एक ही सपना है - अपनी बेटी को यह डर कभी महसूस न होने देना। मैं उसे सिखाऊँगी कि तुम्हारी हिम्मत ही तुम्हारी सबसे बड़ी साथी है।
लेखिका :
काजल, B11 Edu-Leader, Munger
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