Wednesday, September 10, 2025

"आगे पढ़कर क्या करोगी?"

मेरा नाम निशा है और मैं जमुई के ढेवरि गाँव से हूँ। आज मैं आपको एक ऐसी कहानी सुनाने जा रही हूँ, जहाँ कुछ किशोरियों की पहचान और सम्मान की तलाश ने मुझे भी एक नया रास्ता दिखाया।

"मेरी पहचान, मेरा सम्मान" समूह की शुरुआत

मैंने लखनपुर गाँव में 15 से 20 किशोरियों का एक समूह बनाया, जिसका नाम था “मेरी पहचान, मेरा सम्मान”। इस समूह में तीन ऐसी किशोरियाँ थीं – निशा, पारो और क्रांति – जिन्होंने 8वीं तक पढ़ाई करने के बाद स्कूल छोड़ दिया था। उनके घरवाले कहते थे, "आगे पढ़कर क्या करोगी?"

जब ये किशोरियाँ हमारे सेशन में आतीं, तो उन्हें पढ़ा
ई छोड़े लगभग एक साल हो चुका था। लेकिन जब वे बाकी लड़कियों के स्कूल जाने के अनुभव सुनतीं, तो उनके मन में हमेशा एक सवाल उठता – "मैं क्यों नहीं जाती हूँ?" वे यह बात मुझसे साझा भी करती थीं, "दीदी, मुझे भी स्कूल जाना है।" उनकी आँखों में स्कूल जाने की चाहत साफ़ दिखती थी।

उम्मीद की किरण: नंदनी का उदाहरण

उनकी यह चाहत देखकर, मैंने उनके माता-पिता से बातचीत शुरू की और लगातार उनके घर जाती रही। कई दिनों तक मैं निशा, पारो और क्रांति के एडमिशन को लेकर उनके पेरेंट्स से बात करती रही। हर बार मैं यही कहती – "अपने बच्चों को पढ़ने का पूरा मौका दीजिए, पढ़ाई से ही उनका भविष्य संवरेगा।"

कई बार माता-पिता की ओर से आर्थिक स्थिति की बातें सामने आतीं, लेकिन मैंने हार नहीं मानी। यह मेरे लिए एक लीडरशिप की चुनौती थी, जहाँ मुझे न सिर्फ समझाना था, बल्कि उन्हें एक रास्ता भी दिखाना था। मैंने हमेशा नंदनी का उदाहरण दिया – उसी गाँव की SC समुदाय की लड़की, जो अपनी परेशानियों को पीछे छोड़कर आज बिहार पुलिस की तैयारी कर रही है। मैं कहती थी, "देखिए, अगर नंदनी कर सकती है, तो आपकी बेटी भी जरूर कर सकती है।"

कभी-कभी लगता था कि शायद मेरी बातें अनसुनी रह जाएंगी, लेकिन दिल के किसी कोने में विश्वास था कि एक दिन वे जरूर समझेंगे।

जब मेहनत रंग लाई: स्कूल का दरवाज़ा खुला

और फिर वो दिन आया। किशोरी के पापा को मेरी बातें समझ आईं। उन्हें भी लगा कि अगर उनकी बेटी नहीं पढ़ेगी, तो आगे चलकर वह सिर्फ शादी करके घर के कामों तक ही सीमित रह जाएगी और हमेशा दूसरों पर निर्भर रहना पड़ेगा। एक दिन वे खुद अपनी बेटी को स्कूल ले गए और उसका एडमिशन करवा दिया।

हालाँकि एडमिशन के बाद वह किशोरी तुरंत सेशन में नहीं आ रही थी। मेरा मन थोड़ा परेशान था। मैं खुद उसके पेरेंट्स से मिलने गई। वहाँ उन्होंने मुझे बताया, "हाँ दीदी, अब हमारी बेटी स्कूल जा रही है।"

उस पल मेरे चेहरे पर जो मुस्कान थी, उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता।

खुशी का अनमोल पल

आज, जब मैंने पारो, क्रांति और निशा से मिलकर देखा कि वे लड़कियाँ अब स्कूल जा रही हैं और पढ़ाई कर रही हैं, तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उनकी आँखों में चमक थी, उनके शब्दों में आत्मविश्वास था – "मैं स्कूल जाकर बहुत खुश हूँ।"

वह पल मेरे लिए अनमोल था। जैसे मेरी मेहनत रंग लाई हो। यह कहानी सिर्फ एक बच्ची की नहीं है, यह हर उस लड़की की कहानी है, जो सिर्फ एक मौके की तलाश में है। और यह हर उस इंसान की कहानी भी है, जो बिना थके, बिना रुके, उनके लिए वह मौका बनाने की कोशिश कर रहा है।


लेखिका के बारे में: 

  • नाम: निशा कुमारी

  • परिचय: निशा ढेवरी गाँव की रहने वाली हैं और i- saksham में एक बडी के रूप में का काम कर रही हैं।

  • i-सक्षम से जुड़ाव: निशा वर्ष 2021 में i-saksham सें बैच 7 की एडु लीडर के रूप में जुड़ी हैं 

  • लक्ष्य: निशा का सपना है कि वह अपने समुदाय की हर लड़की को शिक्षा का अधिकार दिला सकें, ताकि वे अपनी पहचान और सम्मान के साथ जी सकें। इसलिए वह आगे पढ़ाई करके एक शिक्षिका बनना चाहती हैं |

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