Friday, July 25, 2025

सपनों की सीढियाँ , संकल्प की सींच

किसने सोचा था ? की बिहार के ग्रामीण क्षेत्र (बड़गाव) के मध्य वर्गीय परिवार की एक साधारण सी लड़की कभी भोपाल जा कर उच्च शिक्षा प्राप्त कर पाएगी। क्योंकि ,  वर्षों तक सामाजिक रूढ़ियों, आर्थिक सीमाओं, और सुविधाओं की कमी ने ग्रामीण लड़कियों की शिक्षा को बाधित किया है।  लेकिन अब परिस्थितियां धीरे-धीरे बदल रही है।
 
ऐसी ही कहानी है - कल्पना की। कल्पना का बचपन से ही सपना था की वो कुछ अलग करें। परिवार की स्थिति दयनीय होने के बावजूद भी उसके मन में अपने सपने को पूरा करने की चाह लगी हुई थी। जहाँ लड़कियों के लिए बुनियादी शिक्षा पाना भी मुश्किल होता है वहां उच्च शिक्षा तक पहुंचने की चाह रखना तो सच में ही एक संघर्ष से कम नहीं है। 


कल्पना के सपनो को तब पंख मिल गई जब उसे आई - सक्षम फ़ेलोशिप का साथ मिला। जो उनके सपने को पाने में उनका एक मजबूत हथियार बना। कल्पना पहले सिर्फ अपने सपने को देख रही थी , लेकिन जब कल्पना को आई - सक्षम में "अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी " के बारे में पता चला , तो वो अपने सपने को जीने लगी। कल्पना ने ये कब सोचा था की उसके सपनो को नई उड़ान मिल जाएगी।

उन्होंने अपनी पढाई शुरू की जिसमे आई-सक्षम के टीम ने उनकी काफी मदद की और मार्गदर्शन किया। फ़ेलोशिप के सेशन और प्रक्रियाओं द्वारा कल्पना को प्रेरणा मिली और वो अपने सपनो के राश्ते पर आगे बढ़ी। आई-सक्षम ने उन्हें वित्तीय रूप से भी सहायता प्रदान किया।  अपने आत्म-विश्वास और आई-सक्षम के सहायता से कल्पना सौ प्रतिशत स्कॉलरशिप के साथ अपना एग्जाम और इंटरव्यू पास की।


जिस दिन कल्पना का चयन "अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी" में हुआ और स्कॉलरशिप की पुष्टि मिली, वह दिन उसके जीवन का सबसे खास दिन बन गया। ग्रामीण क्षेत्र की एक साधारण लड़की के लिए यह केवल एक अकादमिक उपलब्धि नहीं थी, बल्कि वर्षों से देखे गए उस सपने की पहली झलक थी — बिना किसी आर्थिक बोझ के, देश की प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी में पढ़ने का मौका।

जब घर से बाहर जाकर पढ़ने की बात आई, तो परिवार की चिंता ने एक बार फिर परंपराओं का जाल बुन दिया — "एक लड़की अकेली शहर में कैसे रह पाएगी?", "लोग क्या कहेंगे?"

कल्पना का आत्मविश्वास धीरे-धीरे डगमगाने लगा। उसने खुद को उन लड़कियों की कतार में खड़ा पाया जिनकी दुनिया रसोई और आँगन से आगे नहीं जाती। वह सोचने लगी, शायद मेरा भी जीवन बुनियादी शिक्षा और घरेलू जिम्मेदारियों तक ही सीमित रहेगा।


पर उसने चुप रहना नहीं चुना। उसने अपना दिल खोलकर आई-सक्षम टीम से बात की। उन्होंने न सिर्फ उसकी बातों को सहानुभूति से सुना, बल्कि उसके परिवार तक पहुँचकर उन्हें समझाया कि बदलते दौर में लड़कियों को भी आगे बढ़ने का हक है। उन्होंने शिक्षा की ताकत, आत्मनिर्भरता और समाज के बदलते नज़रों को बड़ी सहजता और सच्चाई से सामने रखा।

कल्पना की जिद और आई-सक्षम टीम के विश्वासपूर्ण प्रयासों ने आखिरकार परिवार की सोच को बदल दिया। जिस बेटी को लेकर कल तक सवाल उठाए जा रहे थे, आज उसी पर गर्व किया जा रहा था।

हाल ही में कल्पना ने भोपाल चली गई — अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की ओर, जहाँ अब उसका नया अध्याय शुरू हो चुका है।
यह सिर्फ कल्पना का कॉलेज जाना नहीं है — यह उस जज़्बे की उड़ान है, जिसने समाज की तमाम बंदिशों को पार कर अपने सपनो को पाया है। 

कल्पना 

बैच-10,मुजफ्फरपुर


मुझे सिर्फ़ एक मौका चाहिए

कुछ दिन पहले मेरी मुलाक़ात स्वाति नाम की एक किशोरी से हुई, जिसकी उम्र लगभग 14-15 साल है। वह नया सुभानपुर, बछवाड़ा की रहने वाली है। स्वाति पहले स्कूल जाया करती थी, लेकिन अब कुछ समय से वह शांत और सहमी-सहमी सी रहने लगी थी।

जब मैंने धीरे से उससे बात की, तो उसने बताया – "दीदी, मेरी शादी तय कर दी गई है। मैं पढ़ना चाहती हूं, लेकिन मेरे घर में मेरी बात कोई नहीं सुनता।" स्वाति के गांव में ज़्यादातर लड़कियों की शादी कम उम्र में ही कर दी जाती है। यही कारण था कि उसके माता-पिता ने भी उसकी शादी तय कर दी थी।

स्वाति ने उन्हें समझाने की कोशिश की – कि वो अभी पढ़ना चाहती है, शादी नहीं – लेकिन जवाब में यही सुना: "इतना पढ़ा दिया, अब और क्या करेगी? जहां जाएगी, वहीं के लोग पढ़ा देंगे, नहीं तो घर का काम करेगी। लड़कियों का तो यही होता है।


"जब मैंने स्वाति के माता-पिता से बात की, तो वही पुरानी सोच सामने आई – "मैंने अपनी ओर से बहुत समझाया, लेकिन नहीं समझ पा रहे थे। "तब मैंने उनसे बस एक बात कही – "क्या आपने कभी अपनी बेटी से पूछा कि वो क्या करना चाहती है? क्या वो कुछ बनना चाहती है या सिर्फ घर का काम करना?

एक बार उससे पूछकर तो देखिए।" जब सामने से स्वाति से पूछा गया, तो वो डरते-डरते बोली – "मैं पढ़ना चाहती हूं, अभी शादी नहीं करना चाहती। आप बस मुझे एक मौका दीजिए।" स्वाति की बात सुनकर मैंने भी उन लोगों को अपनी कहानी सुनाई – मेरे गांव में भी यही होता था

जब मेरी शादी की बात चल रही थी, मैंने अपने पापा से सिर्फ इतना कहा – "क्या आप नहीं चाहते कि मैं पढ़-लिखकर कुछ बनूं?" बस, उस दिन से मेरी एक छोटी-सी कोशिश से मै आज पढ़ कर आगे बढ़ रही हूँ और आपलोग से भी मिलने आई हूँ। मेरी कहानी सुनकर उसके माता-पिता कुछ देर शांत रहे... फिर उसके पापा बोले – "अगर तू पढ़ना चाहती है तो ठीक है, अभी तेरी शादी नहीं करेंगे।" यह सुनकर स्वाति के चेहरे पर एक अलग ही चमक आ गई। उसे खुश देखकर मेरे दिल को बहुत ख़ुशी हुई।

प्रियंका, बड्डी 
बेगुसराई 


Wednesday, July 16, 2025

"ख़ुशी की जिद और वर्षा की जीत"

आज सुबह मै हमेशा की तरह ऑफिस के लिए निकली थी। टोटो में बैठकर अपने-अपने ख्यालों में थी की तभी मेरी नज़र एक लड़की पर पड़ी, वो साईकिल चला कर स्कूल जा रही थी। पर वो कोई साधारण लड़की नहीं थी। वो थी वर्षा।

आप पूछेंगे - वर्षा कौन हैं ? - तो सुनिए , वर्षा की कहानी है, जिसने हालातो से हार मान ली थी। लेकिन फिर किसी और लड़की की हिम्मत ने उसे दोबारा खड़ा कर दिया। 

वर्षा , मुंगेर के एक गॉव रामनगर (भागिचक) की लड़की है। सातवीं कक्षा के बाद उसकी पढाई छुट गई थी। उसी समय वर्षा के पिता का देहांत हो गया था ,घर में बस माँ और दो बहनें थी। माँ एक छोटी सी दुकान चलाकर जैसे-तैसे घर चलाते थे। पढाई फिर से शुरू करने का न तो हौसला था न ही कोई सहारा। 

और फिर उसकी जिंदगी में आई-सक्षम की एडू-लीडर ख़ुशी जो बैच-11 की है, यह आई-सक्षम संस्था में काम करती हैं। ख़ुशी बहुत ही मेहनती और जिद्दी लड़की, जिस काम को ले कर ठान लेती है, तो पीछे नहीं हटती हैं। 

अक्टूबर-नवंबर का महीना था। हमारे क्लस्टर में तय हुआ कि हम उन किशोरियों को फिर से स्कूल भेजेंगे, जिन्होंने किसी कारण से पढ़ाई छोड़ दी है। उसी अभियान के दौरान खुशी को वर्षा मिली।
जब खुशी ने वर्षा की माँ से बात की तो जवाब साफ थी। अब क्या पढ़ेगी? सात साल हो गए। मुश्किल से घर चलता है, पढ़ाई के लिए समय और पैसे कहाँ हैं?
लेकिन खुशी हार मानने वालों में से नहीं थी। उसने समझाया कि सरकार की तरफ़ से लड़कियों को छात्रवृत्तियाँ मिलती हैं, कई योजनाएं हैं। फिर उसने वर्षा से सीधा पूछा। क्या तुम फिर से पढ़ना चाहती हो?
वर्षा की आँखों में हल्की-सी चमक आई। वो बोली। मन तो है दीदी, पर स्कूल में दाखिला मिलेगा क्या? मेरे पास तो टीसी भी नहीं है। खुशी मुस्कराई और कहा , तुम साथ दो, बाकी मै आपको मदद करूंगी। खुशी ने स्कूल से लेकर DRCC ऑफिस और कोर्ट तक पहुँची । चार दिन DRCC के ऑफिस में, तीन दिन कोर्ट में — वो तब तक नहीं रुकी जब तक वर्षा की टीसी नहीं मिल गई। कुछ दिन बाद मिलने के बाद ख़ुशी ने वर्षा का मई में स्कूल में दाख़िला करवाए , तो जून की गर्मियों में, सात साल बाद, वर्षा फिर से स्कूल गई। 
आज जब मैंने उसे साइकिल से स्कूल जाते देखा, तो ऐसा लगा जैसे उम्मीद सचमुच साइकिल चला रही है। खुशी ने सिर्फ़ एक बच्ची की पढ़ाई शुरू नहीं करवाई। उसने उसके भविष्य का रास्ता खोला।
हम एक ऐसे समाज की कल्पना करते हैं जहाँ हर लड़की के पास अपनी आवाज़ हो, अपनी पसंद हो, और वह किसी दूसरी लड़की की ताक़त भी बन सके।
स्मृति , बड्डी
मुंगेर





Wednesday, July 2, 2025

"सोच में बदलाव" – एक बहू, एक सास और तीन पीढ़ियों की कहानी

सुनिए  साथियों, जमाना कितना बदल रहा है ना... लेकिन असली बदलाव तब दिखता है जब घर-परिवार के लोग अपनी सोच बदलें। ऐसा ही कुछ मैंने खुद अपनी आँखों से देखा और दिल से महसूस किया।

हमलोग हाल ही में जमुई में i-सक्षम में “बडी प्रशिक्षण” में गए थे। चार दिन का प्रशिक्षण था। बहुत कुछ नया सीखने को मिला। लेकिन सबसे बड़ी सीख तो एक कहानी ने दी... एक सास, एक बहू और एक प्यारी सी पोती की।
हमारी साथी नेहा दी भी वहाँ आई थीं। लेकिन अकेली नहीं — अपनी सासू माँ और बेटी रूपम के साथ। पहले तो मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। मन में सवाल उठा कि अरे, नेहा दी की सासू माँ भी यहाँ? वो भी ट्रेनिंग में?

क्योंकि मैं नेहा दी की कहानी पहले से जानती थी। याद है, 2024 के फाउंडेशन डे पर मैंनें उनके जीवन पर नाटक लिखा था। तब जान पाई थी कि नेहा दी की पढ़ाई एक वक्त पर रोक दी गई थी। दसवीं में थीं तब उनकी सासू माँ ने साफ कहा थे,

"दसवीं पढ़कर क्या करेगी? बकरी ही तो चराएगी!"
सोचिए, कैसी तकलीफ हुई होगी नेहा दी को। लेकिन वक़्त बदला... हालात बदले... और सबसे बड़ी बात — सोच बदली।
अब वही सासू माँ... अपनी बहू का हाथ पकड़कर जमुई ले आईं। बोलीं
"तू सीख, मैं रूपम को संभाल लूंगी।"

ये सिर्फ साथ आना नहीं था दीदी... ये था तीन पीढ़ियों का बदलाव। सासू माँ ने पूरे मन से नेहा दी का साथ दिया। पोती रूपम उनके गोद में खेलती रही और नेहा दी सारा ध्यान लगाकर ट्रेनिंग में सीखती रहीं।


ट्रेनिंग खत्म होने के बाद मैं उनके पास गई। धीरे-धीरे बातें होने लगीं। और उनकी बात सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए। वो बोलीं —
"हाँ, पहले गलती हुई हमसे। सोचा था पढ़ाई से क्या होगा। पर अब समझ आई है। चाहे बेटी हो या बहू, पढ़ाई सबसे जरूरी है। आज गांव में लोग कहते हैं — देखो, आपकी बहू समाज में काम करती है, लड़कियों को समझाती है, लोगों की मदद करती है। तो मन गर्व से भर जाता है।"

नेहा की सासु माँ ने पिछले बातो को कहते-कहते उनकी आँखें भर आईं। फिर बोलीं —
"नेहा ने हमारे घर की सोच बदल दी है।"
सच कहूँ साथियों, उस दिन मैंने महसूस किया कि बदलाव सिर्फ किताबों में नहीं होता। जब हम किसी की कहानी को जीते हैं, उसे अपने आस-पास होते हुए देखते हैं, तब असली असर होता है।
ये सिर्फ नेहा दी का सफर नहीं था... ये हर उस लड़की की कहानी है जो लड़ती है, सीखती है और समाज की सोच बदल देती है।
"जब सोच बदले, तब ही असली बदलाव आता है"
स्मृति, टीम मुंगेर।