नमस्ते साथियों,
आज मैं आपलोगों के साथ समुदाय में किया गया एक कार्य साझा करना चाह रही हूँ। इमेज में दिखाई दे रही बच्चियों के नाम ‘आयशा और हलिमा सुल्ताना’ हैं। इन दोनों बच्चियों को विद्यालय से जोड़ पाना ही मेरी उपलब्धि है।
आयशा जो कि विद्यालय में कुछ बोलने से बहुत डरती थी। यहाँ तक कि घर में भी बहुत कम बोलती थी और पढ़ाई में तो इसका बिलकुल ही मन नहीं लगता था। मैं हमेशा विद्यालय से निकल कर थोड़ा समय कम्यूनिटी में भी देती थी। मैं पिछले तीन महीने से आयशा के साथ मेहनत कर रही थी ताकि मैं इसमें थोड़ा बदलाव ला पाऊँ।
जिससे कि इसका मन पढ़ाई में लगे और ये विद्यालय आना शुरू कर दे। इससे लगातार बात और मुलाकात से निकलकर आया कि यदि मैं इन्हें हर महीने एक कॉपी लिखने के लिए दूँ, तब ये विद्यालय आएगी। आयशा को विद्यालय से जोड़ने के लिए मैंने इसकी बात मानी और हर महीने इन्हें एक कॉपी पेन/पेंसिल देने लगी। परिणामस्वरूप ये बच्ची मन लगाकर पढ़ने लगी। इसी तरह ये आगे बढ़ने लगी और थोड़ा बोलने भी लगी।
इसी तरह ‘हलिमा’ भी थी। जिसके पास किताबे नहीं थी।
हलिमा की माँ कुछ महिलाओं के साथ मेरे घर पर आई और बोलने लगी कि “मेरी बेटी को विद्यालय में किताब नहीं मिली है। मेरी बेटी रोती रहती है”।
आप सर से बात करके इसे किताब दिलवा दीजिए न।
तो मैंने कहाँ आंटी आपलोग भी विद्यालय आइए और सर से बात कीजिए।
आपलोग भी सीखिए, थोड़ा बाहर निकलिये।
तब वो बोली, बेटा तुम विद्यालय तो जाती हो ना?
तुम ही सर से बात करके मेरी बेटी हलिमा को किताब दिलवा दो।
फिर मैंने कहा ठीक है हम दिला देंगे।
पर आप भी विद्यालय आइए और सर से मिलिये।
वो विद्यालय तक आई, पर उस समय किताब उपलब्ध नहीं थी।
इस केस में मेरी उपलब्धि यह भी रही कि जो महिलायें कभी मोहल्ले से बाहर नहीं जाती थी, उन्हें मैं विद्यालय से जोड़ पाई। उसके बाद मैंने सर से बातचीत करके आयशा और हलिमा को विद्यालय से किताब भी दिलवाई।
मैंने प्रधानाध्यापक से अनुमति लेकर किताबे ढूंढी जो विद्यालय में ही एक बक्से में पड़ी हुई थी। इसका प्रभाव यह देखने को मिला कि विद्यालय बंद रहने के बाबजूद भी ये बच्चियाँ मेरे घर तक पढ़ने के लिए आ रही हैं। हर रोज शाम पाँच बजे से सात बजे आती हैं और दोनों गृहकार्य भी पूरा करती हैं।
ये बदलाव देख कर इनके अभिभावक भी बोलते हैं कि हम तो थक ही गए थे बोलते-बोलते, लेकिन आपने अपनी मेहनत और लगन से इनका पढ़ने में मन लगने लगा।
ये दोनों अब इतनी खुशी के साथ पढ़ाई करती हैं कि मुझे भी अपनी बचपन याद आ गयी। क्योंकि मैं भी विद्यालय जाने में बहुत डरती थी।
इसी तरह मैं हमेशा बच्चों, ल़डकियों, महिलाओं से जुड़ी रही, जिससे मुझे सामुदायिक कार्य करने में काफी मदद मिली। मेरे परिवारजन भी ऐसे सामाजिक काम को करने में मेरी सहायता करते हैं। ये बदलाव मेरे लिए भी बहुत महत्वपूर्ण था।
अब बहुत सारी महिलाएँ मेरे घर तक आती हैं और मुझसे खुलकर मदद मांगती हैं। खुद के कार्य खुद से करते देख, मैं बहुत खुश होती हूँ और हिम्मत मिलती है कि मैं और थोड़ी आगे बढ़ कर हर महिला को सक्षम बना पाऊँ। ताकि वे अपनी कार्य को खुद करें और अपने बेटियों को बढ़ने और पढ़ने दे। उन्हें भी आजादी मिले।
निखत
बैच-9,मुंगेर
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