Wednesday, July 24, 2024

“महिलाओ के अधिकार”- सोच व कविता

वही समाज, जो महिलाओं को रोज नए ताने मारता है। उसी समाज के सामने आप ज्ञान एवं कौशल के माध्यम से उनके इस तानाशाही एवं पित्रसत्तामक सोच को बदलने के लिए कुछ ऐसा कर जाते हैं कि वही लोग अपने घर की महिलाओं को भी आपके जैसा बनाने का सोचने लगते हैं। तो मानो सच में अपनी “जीत” प्रतीत होती है।

कहते हैं ना कि यदि किसी महिला के पास अपनी आवाज़ हैं तो वह एक मजबूत महिला हैं। इसे मैंने अपने जीवन में सार्थक होते हुए देखा हैं।


i-सक्षम के इस सफ़र में बहुत सारी महिलाओं ने जब अपने ही घर की दीवारों में अपने लिए आवाज़ उठाना शुरू किया तो पहले तो घरवालों से और फिर समाज में बहुत सारी चुनौतियों का सामना करना पड़ा। 


लेकिन जब अपने अधिकार के लिए खड़ी रहीं, डटी रहीं, तो वही समाज बाद में उन्हें अपने गाँव के रोल मॉडल के रूप में देखता है।


इसी सोच के साथ मैं एक कविता प्रस्तुत करना चाहता हूँ।


“महिलाओं के अधिकार”


आवाज़ मैंने उठाई, अपने ही घर की दीवारों में,

समाज की रुखी निगाहों से बदबदाई मैं।


मेरी आवाज़ को बदचलन, घरवाले कहते थे,

पर धीरे-धीरे समझे, वो भी अब समाज कहते हैं।


स्वतंत्रता की हवा में, बढ़ रहा है घर मेरा,

Voice and Choice से, बना नया रंग हमारा।


उड़ी ऊँची राहों पर, महकते हैं सपने,

आज़ादी की पहचान में, बदलते हैं किस्मतें।


धर्मवीर कुमार

बडी, गया


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