Saturday, June 21, 2025

"माँ बोली — अब हमारी बेटी हमारे से आगे जाएगी"

आज की मदर्स मीटिंग (Mother meeting) कुछ अलग ही रही। कुल 10 किशोरियों की माएँ आई थीं — हर चेहरे पर अपनापन, कुछ झिझक, लेकिन दिल में बहुत कुछ कहने की चाह।
जैसे ही मीटिंग शुरू हुई, मैंने सबसे पहले हाथ जोड़कर सबका स्वागत किया। बोली — "आप सबका आना हमारे लिए बहुत कीमती है।" फिर धीरे-धीरे बातों का सिलसिला शुरू हुआ। हमने पूछा  "आपको क्या करना अच्छा लगता है?" किसी ने कहा – "खाना बनाना", कोई बोली – "सिलाई", तो किसी को बच्चों को पढ़ाने में मज़ा आता है। उस पल मुझे महसूस हुआ, हर माँ के पास एक हुनर है, बस उसे पहचानने और अपनाने की ज़रूरत है।
बात जब उनके सपनों तक पहुँची, तो माहौल थोड़ा भावुक हो गया। कई माओं की आंखों में अधूरे सपनों की चमक थी। एक माँ बोली, “मैं डॉक्टर बनना चाहती थी, लेकिन पंद्रह साल में शादी हो गई।” दूसरी बोली, “मुझे टीचर बनना था, पर घर वालों ने पढ़ने ही नहीं दिया।”
लेकिन इस अधूरेपन के बीच एक नई उम्मीद भी दिखी — उन्होंने कहा, “अब हम नहीं चाहते कि हमारी बेटियाँ जल्दी शादी करें। हम उन्हें पढ़ाएंगे, आगे बढ़ाएँगे।”
फिर हमने किशोरी कार्यक्रम और लाइफ स्किल्स के बारे में बताया — कि कैसे अब लड़कियाँ खुद के लिए फैसले लेना सीख रही हैं, और दस लोगों के बीच अपनी बात रखने की हिम्मत जुटा रही हैं। माओं को ये सब जानकर बहुत अच्छा लगा। एक माँ तो मुस्कुरा कर बोली, “अब लगता है कि हमारी बेटी हमारे से भी आगे जाएगी।”

मीटिंग के बीच मैंने अपना परिचय भी दिया। बताया कि मैं “i-सक्षम" से जुड़कर बदली — जो लड़की कभी अकेले घर से बाहर नहीं निकलती थी, वही अब मीटिंग ले रही है, सबके सामने खड़ी होकर बात कर रही है। ये मेरे लिए छोटा नहीं, बहुत बड़ा बदलाव है।

रौशनी कुमारी,
बैच-12 , बेगूसराय
एडू लीडर



"सुनना भी एक सहयोग है"

10 तारीख को मेरे पति ने थोड़े परेशान होकर मुझसे बात की। उन्होंने बताया कि उनका 2 लाख रुपये का टारगेट अभी तक पूरा नहीं हो पाया है। मैंने उन्हें ध्यान से सुना और कहा, “चलिए कल एक घंटा बैठते हैं, सिर्फ आपके टारगेट पर बात करेंगे।”
अगले दिन शाम 7 बजे हम दोनों शांत मन से बैठे। मैंने उनसे पूछा —
सबसे बड़ी चुनौती क्या है?
उन्होंने कहा, “दवाइयों की बिक्री नहीं हो रही। डॉक्टरों से बात नहीं बन पा रही है।
मैंने उन्हें खुलकर बोलने का मौका दिया, उनके जवाबों को गहराई से सुना और फिर साथ बैठकर सोचा कि आगे क्या किया जा सकता है।
उन्होंने खुद ही समाधान निकाले —
 डॉक्टरों से समय पर मिलना होगा,
उनसे अच्छे से संवाद करना होगा,
जरूरत पड़ी तो सीनियर की मदद लेनी होगी।
हमने सिर्फ एक घंटे की बडी टॉक की, लेकिन उस बातचीत का असर ऐसा हुआ कि 22 मई तक उनका टारगेट 3 लाख पार कर गयाकुछ दिन बाद उन्होंने मुस्कराते हुए कहा —
"तुम्हारी वजह से मेरा टारगेट पूरा हुआ... मुझे तुम पर गर्व है।"
यह सुनकर मेरा दिल भर आया। मैंने उस दिन महसूस किया कि कभी-कभी किसी को बस सुन लेना, उसकी बात समझ लेना ही सबसे बड़ी मदद होती है।
 यह मेरा छोटा-सा बडी टॉक अनुभव था, लेकिन मेरे लिए सीख और गर्व से भरा एक बड़ा पल बन गया
पिंकी कुमारी
बैच 10A, जमुई

Monday, June 16, 2025

मुज़फ्फरपुर की गलियों से जयपुर तक: मेरी उड़ान की शुरुआत

मुज़फ्फरपुर की गलियों से शुरू हुई मेरी कहानी, एक साधारण-सी ज़िंदगी से निकलकर एक नई दिशा की ओर बढ़ी। घर-परिवार, बच्चों की देखभाल और अपने छोटे से संसार में ही सारा समय बीतता था। लेकिन मन के एक कोने में हमेशा कुछ नया जानने, कुछ बड़ा करने की एक हल्की सी टिमटिमाहट थी।
और फिर एक दिन, जैसे वो टिमटिमाहट एक रोशनी बन गई—जब मुझे जयपुर जाने का मौका मिला।
इस खबर ने मन को दो हिस्सों में बाँट दिया—एक तरफ उत्साह, क्योंकि पहली बार बिहार से बाहर जाकर कुछ सीखने को मिलेगा, और दूसरी ओर भावनाओं की लहर, क्योंकि बच्चों से दूर जाना था।
लेकिन दिल ने समझाया—  “अगर कुछ नया करना है, तो इस एक कदम से शुरुआत करनी होगी।” तैयारी बहुत पहले से शुरू हो गई थी, लेकिन जैसे ही यात्रा की तारीख नज़दीक आई, ट्रेन टिकट कन्फर्म नहीं हुई। मन में असमंजस था—जाऊं या न जाऊं? लेकिन जैसे ज़िंदगी हर बार रास्ता देती है, वैसे ही आखिरी वक्त पर टिकट मिल गया, और मैंने डर को पीछे छोड़ सफ़र शुरू कर दिया।
पाटलिपुत्र स्टेशन पर जब ट्रेन में बैठी, तो पहली बार बिल्कुल अकेली थी। पर परिवार की आवाज़ें फोन पर मेरे साथ थीं। और बच्चों ने जिस प्यार से मुझे टीका लगाकर विदा किया, उसने मेरी हिम्मत को कई गुना बढ़ा दिया।
जो आशीर्वाद मैं उन्हें देती थी, आज वही मुझसे कह रहे थे—“बेस्ट ऑफ लक, मम्मी!”
नई दिल्ली से जयपुर का सफर रात के अंधेरे में था, लेकिन मन के भीतर एक नई रोशनी थी। शहर अजनबी था, रास्ता अनजाना, लेकिन मन कह रहा था—  “डर के आगे जीत है।” ओला बुक की, और पति की आवाज़ कॉल पर मेरे साथ थी। होटल पहुंचते ही जब रिसेप्शन पर किसी ने मुस्कुराकर कहा— “आप बिहार से हैं? मैं भी वहीं से हूं”, तो एक अजनबी शहर में जैसे कोई अपना मिल गया।
मीटिंग का पहला दिन बेहद खास था।
वहां देश के अलग-अलग कोनों से लोग आए थे—हर कोई अपने समुदाय, बच्चों और समाज के लिए कुछ न कुछ कर रहा था। सबकी बातें सुनकर लगा, “कितना कुछ है जो हम मिलकर कर सकते हैं।” भाषा अलग थी, पर दिलों की बातें एक जैसी थीं। अपनापन, इज़्ज़त और सहयोग ने हम सबको एक धागे में बाँध दिया।
जो वहां सीखा—वो सिर्फ जानकारी नहीं थी, वो जीवन का अनुभव था। लोगों की सोच, उनका काम, और उनका जज़्बा देखकर मुझे लगा— “मैं भी इससे कम नहीं हूं।” मेरे भीतर के आत्मविश्वास ने जैसे एक नई उड़ान भर ली।
वापसी की यात्रा आसान थी, क्योंकि इस बार मैं अकेली नहीं थी— मेरे साथ था नया आत्मविश्वास, नई सोच और कई ऐसे साथी, जिनसे अब गहरा जुड़ाव था। उनमें से एक रवि सर थे, जो मानो अंधेरे में एक चिराग की तरह मेरा मार्गदर्शन कर रहे थे।
"आई-सक्षम" मेरे लिए सिर्फ एक संस्था नहीं रही, वो मेरे पंख बन गई। पहले जहां मैं सिर्फ अपने जिले तक सोचती थी,अब राज्य पार करने का हौसला रखती हूं। मैंने खुद को एक नए रूप में जाना— मजबूत, आत्मनिर्भर और उम्मीद से भरी। अब मेरा सपना है—  जो कुछ भी मैंने सीखा, वो अपने साथियों तक पहुंचाऊं। क्योंकि बदलाव की शुरुआत हमसे होती है।
एक कदम, एक हिम्मत, और फिर वही उड़ान जो ज़िंदगी को एक नई ऊँचाई देती है।
लवली सिंह
बडी (मुज़फ्फरपुर)

Friday, June 13, 2025

"कदम छोटा था, असर गहराई तक गया"

कहानी उन तीन किशोरियों – निशा, पारो और क्रांति की है, जिनके एडमिशन के लिए मैं लगातार प्रयास कर रही थी।

हर बार जब मैं उनके घर जाती, मैं सिर्फ एक ही बात कहती –
“अपने बच्चों को पढ़ने का पूरा मौका दीजिए, पढ़ाई से ही उनका भविष्य संवरेगा।”

आर्थिक परेशानियां बार-बार सामने आईं, लेकिन मैंने हार नहीं मानी।
हर बार मैं नंदनी का उदाहरण देती – उसी गांव की एक SC समुदाय की लड़की, जो आज बिहार पुलिस की तैयारी कर रही है।

मैं कहती – “अगर नंदनी कर सकती है, तो आपकी बेटी भी कर सकती है।” कभी-कभी लगता कि शायद मेरी बातें अनसुनी रह जाएंगी, लेकिन दिल में एक भरोसा था कि एक दिन जरूर समझेंगे।

और फिर वो दिन आया – उस किशोरी का एडमिशन हो गया। लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हुई। एडमिशन के बाद वह सेशन में नहीं आ रही थी। मेरा मन थोड़ा परेशान था। मैं खुद उसके घर गई, उसके पेरेंट्स से मिली। उन्होंने कहा –“हां दीदी, अब हमारी बेटी स्कूल जा रही है।”
उस पल मेरे चेहरे पर जो मुस्कान थी, वो शब्दों में बयां नहीं कर सकती। और फिर, कुछ दिन बाद जब मैंने पारो, क्रांति और निशा से मिलकर देखा कि वो लड़की सच में स्कूल जा रही है, पढ़ाई कर रही है, मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा।
उसकी आंखों में चमक थी, उसके शब्दों में आत्मविश्वास था – “मैं स्कूल जाकर बहुत खुश हूं।वो एक पल मेरे लिए अनमोल था – जैसे मेरी मेहनत रंग लाई हो।
यह कहानी सिर्फ एक बच्ची की नहीं है।
यह हर उस लड़की की कहानी है जो सिर्फ एक मौके की तलाश में है। और यह कहानी हर उस इंसान की भी है – जो बिना थके, बिना रुके, लड़कियों के लिए वो मौका बना रहा है।
"क्योंकि जब कोई एक लड़की आगे बढ़ती है, तो उसके साथ एक पूरा समाज आगे बढ़ता है।"
निशा भारती 
जमुई



Thursday, June 5, 2025

"पहले खुद जागी, अब पूरे गांव को जगा रही है"

हर गांव की गलियों में कुछ चेहरे ऐसे होते हैं
जो चुपचाप अपनी राह बनाते हैं —
न कोई शोर, न कोई शिकायत।
लेकिन उनके कदम इतने मजबूत होते हैं कि पीछे आने वालों को रास्ता साफ दिखने लगता है।
हमारे फरदा गांव की ऐसी ही एक शख्सियत हैं — प्रेरणा कुमारी
एक आम-सी लड़की, जो एक छोटे से गांव से निकल कर आई थी,
जिसने दुनिया को वैसा ही देखा था जैसा उसके घरवालों ने दिखाया था।

उसकी सोच की सीमाएं भी वहीं तक थीं, जहां तक उसने अपने घर के आंगन से झांका था।

मगर आज प्रेरणा वहां है, जहां वो अकेले ही 60 से ज़्यादा बच्चों को अपने शिक्षण केंद्र में उनके हुनर और  आत्मविश्वास के लिए तैयार कर रही हैं।

जब मैं पहली बार उनके लर्निंग सेंटर पहुंची, तो मन में एक साधारण-सी छवि थी —
सोचा था, एक छोटा-सा कमरा होगा, कुछ कुर्सियाँ होंगी, और कुछ बच्चे पढ़ते मिलेंगे।

लेकिन जो वहां देखा... वो दिल को छू गया।
वो सिर्फ एक क्लासरूम नहीं था —
वो एक ऐसी जगह थी, जहां हर बच्चा खुलकर सोच रहा था,
अपने मन की कह रहा था, और
जहां एक लड़की — प्रेरणा — चुपचाप हर दिल को छू रही थी।


मैंने एक ऐसी लड़की को देखा, जो दिखने में तो बिल्कुल साधारण थी, लेकिन उसके भीतर
आत्मविश्वास और समझ की एक खास चमक थी। वह जिस सादगी से बच्चों से जुड़ती, उन्हें सिखाती, और हर बच्चे की छिपी क्षमता को पहचानती थी — उसे देखकर लगा, ये सिर्फ पढ़ाना नहीं, बल्कि ज़िंदगी को एक नई दिशा देना है।
आज प्रेरणा कुमारी, FEA (Freedom Employability Academy) संस्था के साथ मिलकर फरदा गांव में एक शिक्षण केंद्र चला रही हैं। यहां केवल अंग्रेज़ी बोलना नहीं सिखाया जाता, बल्कि ये सिखाया जाता है कि खुद पर भरोसा कैसे किया जाए, और दुनिया के सामने खड़े होकर अपने हक की बात कैसे कही जाए। प्रेरणा हर बच्चे के भीतर कुछ खास देखती हैं — और उसी हुनर को निखारने में जी-जान लगा देती हैं।


लेकिन प्रेरणा का यह सफर कभी आसान नहीं रहा।
सीमित संसाधन, घरेलू जिम्मेदारियां और समाज की संकीर्ण सोच — इन सबके बीच उन्होंने पढ़ाई का दामन थामे रखा।जब आसपास की दुनिया लड़कियों को सिर्फ रसोई और चौखट तक सीमित रखने की बातें कर रही थी,तब प्रेरणा ने i-Saksham से जुड़कर न सिर्फ खुद को बदला,बल्कि यह ठान लिया कि अब अपने गांव में भी बदलाव लाना है —और आज, वो वही कर रही हैं... पूरे संकल्प और सच्ची नीयत के साथ।


प्रेरणा से मिलकर मुझे महसूस हुआ कि असली बदलाव भाषणों से नहीं, बल्कि अपने काम से आता है।
उनकी हर छोटी कोशिश, हर एक शब्द गांव के युवाओं में आत्मविश्वास जगाता है।
अब लड़कियां खुलकर सपने देखती हैं, और लड़के अपने भविष्य को लेकर जागरूक होते जा रहे हैं —
क्योंकि किसी ने उन्हें दिखा दिया है कि ये सच में मुमकिन है।


प्रेरणा — एक उम्मीद की मिसाल हैं।
वो हमारे गांव की वह पहली लड़की हैं, जिसने हिम्मत जुटाई, अपनी राह बनाई —

और आज उसी राह पर कई और कदम बढ़ाने लगे हैं।

प्रेरणा की तरह, फरदा गांव की कई महिलाएं और लड़कियां भी अब आगे बढ़ रही हैं।
हमें पूरा विश्वास है कि ये बदलाव हमारे समाज के लिए एक नया सूरज लेकर आएगा —
जो हर अंधेरे को दूर करेगा, और नई रोशनी बिखेरेगा

प्रेरणा कुमारी
जिला- मुंगेर

Tuesday, June 3, 2025

आत्मविश्वास और हिम्मत

8 मार्च को गॉव (भाटचक) में आयोजित पैदल यात्रा इवेंट में मैंने अभिभावकों और ग्रामीणों को शामिल करने के लिए घर-घर जाकर निमंत्रण दिया। मुझे लगता था कि लोग नहीं आएंगे, लेकिन मैंने जिम्मेदारी को पूरा करने का फैसला किया। एक अभिभावक के घर पर, जो बीड़ी बना रहे थे, मैंने उन्हें समझाया कि महिला दिवस पर एक साथ मिलकर अपनी आवाज उठाने से ही
हमें पहचाना जाएगा। वे मेरी बात से सहमत हुए और इवेंट में शामिल हुए।

18 मार्च को गांव (सरारी) में आयोजित नुक्कड़ नाटक इवेंट में मैंने पहली बार एंकरिंग की। मुझे डर था कि मैं इतने लोगों के बीच बोल पाऊंगी या नहीं। लेकिन मेरी बड़ी स्नेहा दी ने मुझे हिम्मत दी और मैं इवेंट में सफलतापूर्वक बोली। इवेंट के बाद, एक महिला ने मुझे रोककर तारीफ की और कहा कि मैंने बहुत अच्छा बोला। मुझे खुद पर गर्व हुआ कि मेरे बोलने के कारण मुझे पहचाना गया।


फाउंडेशन डे में मैंने नाटक में भाग लिया और एक बेटी का रोल किया। मुझे पहले लगता था कि मैं नहीं कर पाऊंगी, लेकिन ड्रामा ग्रुप के सदस्यों ने मुझे हिम्मत दी। मैंने घर पर प्रैक्टिस की और फाउंडेशन डे के दिन अपना पूरा बेस्ट देने की कोशिश की। मैं उतने लोगों के बीच बोल सकी और अपने डर को दूर किया।

इन अनुभवों से मैंने सीखा कि डर को दूर करने और अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए हिम्मत और प्रयास की आवश्यकता होती है। मैं अपनी बड़ी स्नेहा दी, जूली दी, खुशबू दी और अन्य साथियों को धन्यवाद देती हूं जिन्होंने मुझे हिम्मत दी और समर्थन किया।


रिया 
बैच 11 
जमुई