Monday, September 29, 2025

“मैं करना तो बहुत कुछ चाहती हूँ, पर अकेली क्या करूँ?”

“मैं करना तो बहुत कुछ चाहती हूँ, पर अकेली क्या करूँ?”

यह सवाल अक्सर मेरे मन में आता था। 

मेरा नाम रंगीला है और मैं बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के मोहम्मदपुर कोठी नया टोला गाँव की रहने वाली हूँ। मैं हमेशा से अपने समुदाय में कुछ बदलना चाहती थी, लेकिन अकेले होने और सही रास्ते की जानकारी न होने के कारण मेरे छोटे-छोटे प्रयास अक्सर नाकाफी रह जाते थे।

मेरे गाँव में कई समस्याएँ थीं—बच्चे नियमित रूप से स्कूल नहीं जाते थे, PTM (अभिभावक-शिक्षक बैठक) में माता-पिता की भागीदारी न के बराबर थी, और मेरी हमउम्र लड़कियाँ उच्च शिक्षा के बारे में सोचती तक नहीं थीं। यह सब देखकर मुझे लगता था कि बदलाव बहुत ज़रूरी है, पर कैसे करूँ, यह समझ नहीं आता था।

यह स्थिति तब बदली जब मैं i-सक्षम फेलोशिप से जुड़ी। यह सिर्फ एक कार्यक्रम नहीं, बल्कि मेरे लिए वह मंच था जिसकी मुझे तलाश थी। एडू-लीडर के रूप में जब मैंने स्कूल और समुदाय में काम करना शुरू किया, तो मैंने सबसे पहले इन्हीं समस्याओं को अपनी चुनौती बनाया।

मैंने एक-एक कर इन समस्याओं को हल करने के लिए लक्ष्य बनाना और उस पर काम करना शुरू किया। यह मेरे नेतृत्व की पहली परीक्षा थी। जो बच्चे स्कूल नहीं आ रहे थे, मैं उनके घर गई और उनके माता-पिता से मिलकर उन्हें शिक्षा का महत्व समझाया। PTM में भागीदारी बढ़ाने के लिए, मैंने अभिभावकों को इसकी अहमियत बताई और उन्हें स्कूल से जुड़ने के लिए प्रेरित किया। गाँव की लड़कियों तक उच्च शिक्षा की जानकारी पहुँचाने के लिए, मैंने अपने जैसे अन्य साथियों के साथ मिलकर उन्हें जागरूक करने का काम किया।

मेरी इन कोशिशों का नतीजा धीरे-धीरे सामने आने लगा। स्कूल में बच्चों की उपस्थिति 50% तक बढ़ गई। जिन PTM में कभी कोई नहीं आता था, अब वहाँ हर कक्षा से 20-25 अभिभावक नियमित रूप से शामिल हो रहे हैं। और सबसे बड़ी खुशी यह है कि मेरे समुदाय की लड़कियाँ अब उच्च शिक्षा के सपने देख रही हैं और उस दिशा में कदम भी बढ़ा रही हैं।

जब मैंने इन सपनों को अपनी आँखों के सामने सच होते देखा, तब मुझे 'सक्षम' होने का असली मतलब समझ आया। सक्षम होने का मतलब सिर्फ कुछ जानना नहीं, बल्कि यह है कि—मैं जो सोचूँ, वो कर पाऊँ।


लेखिका के बारे में:

  • नाम: रंगीला कुमारी

  • परिचय: रंगीला धर्मागतपुर, मुजफ्फरपुर की रहने वाली हैं और i-Saksham बैच-11 की एक एडू-लीडर हैं।

  • i-सक्षम से जुड़ाव: रंगीला वर्ष 2024 में i-Saksham से जुड़ी हैं।

  • लक्ष्य: रंगीला अभी ग्रेजुएशन कर रही हैं और भविष्य में अपने समाज के लिए एक रोल मॉडल बनना चाहती हैं।

Friday, September 26, 2025

“वो स्कूल नहीं जाती, उससे क्या बात करेंगी?”

छर्रा पाटी—मुंगेर का एक ऐसा गाँव, जिसका नाम सुनते ही लड़ाई-झगड़े और छेड़छाड़ की कहानियाँ याद आ जाती थीं। 

बाहरी लोगों के प्रति यहाँ का रवैया इतना सख़्त माना जाता था कि कोई भी वहाँ जाने से कतराता था। सच कहूँ तो जब मैंने वहाँ जाने का फैसला किया, तो मेरे मन में भी डर था। रास्ते भर एक ही सवाल घूमता रहा—“क्या मुझे सच में जाना चाहिए?”

लेकिन हिम्मत जुटाकर मैंने अपनी साथी मोंटी और एडू-लीडर पूजा दीदी के साथ उस गाँव का रुख किया। जैसे ही हम वहाँ पहुँचे, अजीब सी घूरती नज़रें और कानाफूसी ने हमें घेर लिया, मानो हमने कोई अनजानी सीमा पार कर दी हो। पर हमने सब अनसुना किया और सीधे लक्ष्मी के घर पहुँचे।

लक्ष्मी तो नहीं मिली, लेकिन उसकी 13 साल की बहन पूनम चूल्हे पर गाय के लिए चारा पका रही थी। छोटी उम्र, बड़ी ज़िम्मेदारियाँ। जब मैंने उससे बात करने की कोशिश की, तो उसकी चचेरी बहन ने हँसकर कहा—“वो स्कूल नहीं जाती, उससे क्या बात करेंगी?” 

यह सुनकर मेरा मन ठहर गया। मैंने पूनम से सीधे पढ़ाई की बात करने के बजाय, पहले उसकी दिनचर्या के बारे में पूछा। थोड़ी देर बाद जब मैंने धीरे से पूछा, “तुम स्कूल क्यों नहीं जाती?” तो उसने पहले बहाना बनाया, लेकिन फिर सच बता दिया। बोली—“मम्मी को छोटा बच्चा हुआ है, इसलिए घर का सारा काम मुझे करना पड़ता है। शाम को 6 बजे ट्यूशन जाती हूँ।”

इतनी जिम्मेदारियों के बीच जब मैंने पूछा कि वह बड़ी होकर क्या बनना चाहती है, तो उसकी आँखों में अचानक एक चमक आ गई। उसने कहा—“डॉक्टर। लोगों का इलाज करना चाहती हूँ।” उस पल, उसकी मासूम आवाज़ और बड़ी सोच ने मुझे अंदर तक छू लिया।

बातचीत के दौरान आस-पड़ोस के लोग इकट्ठा हो गए। मैंने पूनम से एक तस्वीर लेने की अनुमति माँगी, लेकिन सबने विरोध किया। मैंने उनकी भावनाओं का सम्मान करते हुए, सबके सामने ही फोटो डिलीट कर दी। उस एक पल में मैं समझ गई कि यहाँ सबसे पहली और सबसे मुश्किल चुनौती भरोसा जीतना है।

बाद में, पूजा दीदी ने अपने अनुभव साझा किए। उन्होंने बताया कि शुरू में लड़के उनका पीछा करते थे, गलत बातें करते थे, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। उन्होंने मुझसे कहा—“डर तो लगता है दीदी, लेकिन लोगों की बातों को अनसुना करके हमें अपना काम करते रहना है।” उनकी यह बात मेरे लिए सिर्फ एक सलाह नहीं, बल्कि नेतृत्व का सबसे बड़ा सबक थी।

उस दिन मैं छर्रा पाटी से सिर्फ एक गाँव का दौरा करके नहीं लौटी। मेरे लिए असली शिक्षा पूनम की आँखों में थी, जो जिम्मेदारियों के बोझ तले दबकर भी डॉक्टर बनने का सपना देख रही थी। और असली नेतृत्व पूजा दीदी के उस साहस में था, जो रोज़ डर का सामना करके भी अपना काम करती हैं। यह यात्रा मेरे लिए डर से हिम्मत तक और अनजानेपन से भरोसे तक का एक यादगार सफ़र बन गई।

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लेखिका के बारे में:

नाम: सरिता

परिचय: सरिता पिछले 3 सालों से i-Saksham से जुड़ी हुई हैं। वह बैच-9 की एडू-लीडर रह चुकी हैं और वर्तमान में मुंगेर में 'बडी' की भूमिका में काम कर रही हैं।

लक्ष्य: सरिता का लक्ष्य है कि उनके गाँव की जो भी बच्चियाँ किसी भी कारण से पढ़ाई छोड़ देती हैं, उन्हें वापस शिक्षा से जोड़ा जाए।

Wednesday, September 24, 2025

“क्या मेरी अपनी कोई पहचान नहीं?”

 “क्या मेरी अपनी कोई पहचान नहीं?”

यह सवाल खुशबू दी के मन में अक्सर गूंजता था। प्रह्लादपुर की रहने वाली, उनकी शादी बहुत कम उम्र में हो गई थी। किस्मत से ससुराल अच्छा मिला, लेकिन वह 14 सदस्यों का एक बड़ा परिवार था। दिन भर घर की जिम्मेदारियों को निभाते-निभाते, उनकी अपनी पहचान कहीं खो गई थी। लोग उन्हें केवल "किसी की पत्नी" और "किसी की बहू" के रूप में जानते थे। 

पढ़ाई की इच्छा दिल में हमेशा ज़िंदा रही। बड़ी मेहनत से उन्होंने घर संभालते हुए स्नातक (B.A.) की डिग्री भी हासिल की, लेकिन डिग्री के बाद भी ज़िंदगी वापस उसी ढर्रे पर लौट आई—रसोई, बच्चे और घर का काम।

इस सवाल का जवाब और ज़िंदगी में एक नया मोड़ उन्हें शादी के 13 साल बाद मिला, जब वह i-सक्षम फेलोशिप से जुड़ीं। यह मौका उनके लिए एक नई शुरुआत जैसा था। यहाँ ट्रेनिंग, दोस्तों जैसे माहौल और रोचक गतिविधियों ने उनकी खोई हुई खुशियों को लौटा दिया।


धीरे-धीरे, उनके नेतृत्व ने एक नई शक्ल लेनी शुरू की। उन्हें विद्यालय और समुदाय में बच्चों को पढ़ाने का अवसर मिला। शुरुआत में यह सिर्फ एक काम लगा, लेकिन जब बच्चों की आँखों में उनकी पहचान चमकने लगी और वे मुस्कुराते हुए “खुशबू मैम” कहकर बुलाने लगे - एक नई पहचान मिली।

आज गाँव के लोग भी उन्हें सम्मान से “मैडम” कहकर पुकारते हैं। समुदाय में उन पर इतना विश्वास है कि लोग कहते हैं—“अगर मैडम ने कहा है, तो यह ज़रूर होगा।” यह सिर्फ एक सम्मान नहीं, बल्कि उनके नेतृत्व की सबसे बड़ी उपलब्धि है।

खुशबू दी मानती हैं कि यह फेलोशिप खत्म होने के बाद भी, वह अपने समुदाय के बच्चों को पढ़ाकर हमेशा “मैडम” कहलाती रहेंगी। अब उनकी पहचान किसी रिश्ते तक सीमित नहीं है। वह आज एक शिक्षिका हैं, एक लीडर हैं और कई लोगों के लिए एक प्रेरणा हैं।


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लेखिका के बारे में:

नाम: खुशबू कुमारी

परिचय: खुशबू प्रह्लादपुर, मुजफ्फरपुर की रहने वाली हैं और i-Saksham बैच-11 की एक एडू-लीडर हैं।

i-सक्षम से जुड़ाव: खुशबू वर्ष 2024 में i-Saksham से जुड़ी हैं।

लक्ष्य: खुशबू भविष्य में एक नौकरी करके आत्मनिर्भर बनना चाहती हैं और अपनी पहचान को और मज़बूत करना चाहती हैं।

Monday, September 22, 2025

“नहीं दीदी, आप ही कर दीजिए।”

“नहीं दीदी, आप ही कर दीजिए।”

यह रानी का जवाब होता था, जब भी मैं उसे सेशन में कुछ करने के लिए आगे बुलाती थी। मेरा नाम पायल कुमारी है और मैं i-सक्षम की एक एडू-लीडर हूँ। जब मैंने फेलोशिप की शुरुआत की, तो किशोरियों के साथ हर महीने सेशन लेना मेरी ज़िम्मेदारी थी। लेकिन शुरू में बहुत कम लड़कियाँ आती थीं, और जो आती थीं, उनमें से ज़्यादातर चुपचाप बैठी रहती थीं।

रानी भी उन्हीं में से एक थी। मलयपुर की रहने वाली, वह हमेशा सहमी-सहमी और चुप रहती थी। उसके अंदर आत्मविश्वास की इतनी कमी थी कि वह किसी भी गतिविधि में हिस्सा लेने से साफ़ मना कर देती थी।

मुझे समझ आ गया था कि सिर्फ जानकारी देना काफी नहीं है; मुझे कुछ ऐसा करना होगा जिससे ये लड़कियाँ खुलें और अपनी आवाज़ को पहचानें। यह मेरे लिए एक लीडर के तौर पर पहली चुनौती थी।

मैंने तय किया कि सेशन को थोड़ा मज़ेदार और एक्टिव बनाऊँगी। मैंने लड़कियों को छोटे-छोटे ग्रुप में बाँटा और उन्हें आसान सी गतिविधियाँ और चैलेंज दिए। मेरा मकसद था कि वे पहले एक-दूसरे के साथ सहज हों। धीरे-धीरे जब उन्होंने छोटे समूहों में भाग लेना शुरू किया, तो मैंने उन्हें बड़े ग्रुप में भी मौके दिए। 

इसका असर दिखना शुरू हो गया। लड़कियाँ अब अपनी राय रखने लगी थीं। लेकिन सबसे बड़ा बदलाव रानी में आया। जो लड़की पहले एक शब्द भी नहीं बोलती थी, अब वह छोटे-छोटे कामों में हिस्सा लेने लगी।

आज रानी को देखकर कोई कह नहीं सकता कि यह वही लड़की है। अब वह बिना डरे बोलती है, सवाल पूछती है और सेशन को बेहतर बनाने के लिए मुझे सुझाव भी देती है। उसकी सबसे अच्छी बात यह है कि वह अब एक भी सेशन मिस नहीं करती और हर गतिविधि में सबसे आगे रहती है। मैंने उसके माता-पिता से भी बात की, और यह जानकर अच्छा लगा कि वे भी रानी में आए इस बदलाव को देख रहे हैं और उसे पूरा सपोर्ट कर रहे हैं।

यह बदलाव सिर्फ रानी में ही नहीं, बल्कि बाकी किशोरियों में भी आया है। लेकिन रानी की प्रगति देखकर मुझे जो खुशी होती है, उसे शब्दों में बयां करना मुश्किल है। यह मेरे लिए भी गर्व की बात है कि मेरे एक छोटे-से प्रयास ने किसी के आत्मविश्वास को जगा दिया।


लेखिका के बारे में:

  • नाम: पायल कुमारी

  • परिचय: पायल कुमारी i-Saksham फेलोशिप के बैच-11 की एक एडू-लीडर हैं, जो अपने समुदाय की किशोरियों के बीच आत्मविश्वास और नेतृत्व क्षमता का विकास करने के लिए काम कर रही हैं।

  • लक्ष्य: पायल का सपना है कि वह अपने समुदाय की हर लड़की को इतना सशक्त बनाएं कि वे अपनी आवाज़ बिना किसी डर के उठा सकें।

Friday, September 19, 2025

लड़ाई से दोस्ती तक का सफ़र

मेरा नाम निशा है, और आज मैं आप सबके साथ अपने स्कूल के सफ़र की एक कहानी साझा करने जा रही हूँ।

जब मैंने i-Saksham से जुड़ने का सोचा, तो मुझे लगा कि मैं बस तुरंत स्कूल जाऊँगी और बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दूँगी। इस सोच से थोड़ी घबराहट भी होती थी, लेकिन उत्साह भी था। i-Saksham में हमें पहले ट्रेनिंग मिली, और यह मेरे लिए किसी भी तरह का पहला प्रोफेशनल प्रशिक्षण था – जिसने मुझे बहुत कुछ सिखाया।

स्कूल का पहला दिन: उम्मीद और हकीकत

फिर वह दिन आया जब मुझे स्कूल भेजा गया। मैं बहुत खुश थी कि अब मैं बच्चों को सिखाऊँगी, पढ़ाऊँगी और कुछ नया कर पाऊँगी। लेकिन स्कूल पहुँचते ही जो माहौल देखा, वह मेरी उम्मीद से बिलकुल अलग था। बच्चे आपस में झगड़ रहे थे, गालियाँ दे रहे थे – चारों तरफ शोर और अव्यवस्था थी ।

शुरू में मेरा आत्मविश्वास नहीं डगमगाया। मैंने सोचा कि मैं सब संभाल लूँगी। लेकिन एक हफ़्ते से ज़्यादा समय बीतते-बीतते, मेरा कॉन्फिडेंस कम होने लगा । बच्चों को समझाते-समझाते मैं खुद चिड़चिड़ी हो गई थी । मन तो करता था कि अपनी दीदी (टीम मेंबर) से कह दूँ कि “मुझे किसी और स्कूल में भेज दीजिए” ।

पर फिर मैंने सोचा – अगर वहाँ भी ऐसे ही बच्चे मिले तो मैं क्या करूँगी? यह सवाल ही मेरी असली लीडरशिप की शुरुआत थी। मैंने फैसला किया कि मैं भागूँगी नहीं। मैंने हिम्मत जुटाई और अपनी टीम लीडर दीदी से सारी बातें शेयर कीं।

उनकी सलाह के बाद, मैंने बच्चों के साथ पहले अच्छा संबंध बनाने की कोशिश की 🤞। मैंने यह समझने की कोशिश की कि उन्हें किस चीज़ में मज़ा आता है, उनकी दुनिया क्या है। फिर धीरे-धीरे मैंने उन्हें अपनी बातों में शामिल करना शुरू किया।

मैंने बच्चों के साथ रोज़ कुछ अलग और नई गतिविधियाँ करवाना शुरू किया। शुरू में वे मेरी बात बिल्कुल नहीं सुनते थे। मैं कोशिश करती रहती, उनसे अच्छे संबंध बनाने की हर मुमकिन कोशिश करती। कुछ दिनों तक यही स्थिति रही – धैर्य की असली परीक्षा!

धीरे-धीरे बच्चों ने समझना शुरू किया कि मैं उन्हें अलग-अलग गतिविधियों के ज़रिए कुछ नया और मज़ेदार सिखा रही हूँ। तब से वे मेरी बातों को ध्यान से सुनने लगे और मानने भी लगे। यह सब लिखना तो आसान है, लेकिन उस समय बच्चों को संभालना वाकई एक चुनौती थी। आज जब सोचती हूँ, तो वो पल याद आ जाते हैं ।

अब वही बच्चे, जो पहले मेरी बात नहीं सुनते थे, मुझे याद दिलाते हैं – “दीदी, ये करवाइए, वो छूट गया।” 

हालाँकि अभी भी सभी बच्चे पूरी तरह नहीं बदले हैं, लेकिन इतना ज़रूर है कि अब वे मेरी बातों को मानते भी हैं और समझते भी हैं । यह मेरे लिए एक बहुत बड़ी सीख है कि बदलाव एक दिन में नहीं आता, पर कोशिश करते रहने से ज़रूर आता है।


लेखिका के बारे में:

  • नाम: निशा खातून, बेगूसराय ज़िले के बजलपूरा गाँव की रहने वाली हैं 

  • परिचय: वर्ष 2025 में, वह “i-Saksham” के बैच-12 की फेलो के रूप में जुड़ीं। 

  • लक्ष्य: निशा अभी ग्रेजुएशन कर रही है , ये आगे अध्यापन के क्षेत्र में जाना चाहती हैं। 

Wednesday, September 17, 2025

एक लड़की, पाँच पैन कार्ड और वो मज़ाक.

"अब ये लड़कियां भी हमारे बराबर काम करेंगी!"

मुज़फ्फरपुर की एक गली में कुछ युवा लड़कों ने यह तंज तब कसा, जब रितु कुमारी ने मोहल्ले के पाँच लोगों की एक सीधी-सी समस्या सुलझाने का बीड़ा उठाया। उन लोगों को पैन कार्ड बनवाना था, और सबको यही लग रहा था कि यह काम कोई साइबर कैफ़े वाला ही कर सकता है। लेकिन रितु ने बड़ी सहजता से कहा, “क्यों न मैं कोशिश करूँ?

गाँव की लड़कियों को अक्सर तकनीक और सरकारी प्रक्रियाओं से दूर रखा जाता है, लेकिन रितु के भीतर यह जिद थी कि वह इस सोच को बदलेगी। उसे अंदाज़ा भी नहीं था कि यह छोटा-सा कदम उसके लिए एक बड़ी यात्रा बन जाएगा।

जब रितु ने ऑनलाइन प्रक्रिया शुरू की, तो उनके सामने मुश्किलों का पहाड़ खड़ा हो गया। कभी वेबसाइट बार-बार बंद हो जाती, कभी दस्तावेज़ का फ़ॉर्मेट स्वीकार नहीं होता, तो कभी एक छोटी-सी संख्या की गलती सब गड़बड़ कर देती। कई रातें उन्होंने अधूरे फ़ॉर्म के साथ बिताईं। थकान और झुंझलाहट से भरे पलों में भी उन्होंने हार नहीं मानी। वह खुद से कहतीं— “अगर मैं पीछे हट गई, तो ये पाँच लोग फिर से किसी और पर निर्भर हो जाएंगे।”

उन्होंने एक-एक करके सभी ज़रूरी दस्तावेज़ इकट्ठे किए—आधार कार्ड, जन्म प्रमाणपत्र और पहचान पत्र। हर गलती से सीख लेकर वह प्रक्रिया को दोहराती रहीं। आखिरकार वह दिन आया जब सभी दस्तावेज़ सही ढंग से अपलोड हो गए और शुल्क का भुगतान भी सफल हो गया। उस वक्त रितु के चेहरे पर एक अनोखी चमक थी—जैसे लंबे संघर्ष के बाद मिली जीत की खुशी हो।

जैसा कि रितु बताती हैं, “शुरुआत में मुझे लगा कि यह प्रक्रिया कठिन और समय लेने वाली होगी, लेकिन जब मैंने इसे व्यवस्थित तरीके से करना शुरू किया, तो सब कुछ सुगमता से होता गया।”

कुछ ही दिनों में खबर मिली कि पाँचों पैन कार्ड बनकर तैयार हो गए हैं। रितु याद करती हैं, “जब पुष्टि संदेश मिला कि सभी पाँच लोगों का पैन कार्ड स्वीकृत हो गया है, तो मुझे बहुत खुशी हुई। सबसे बड़ी संतुष्टि यह रही कि जिन लोगों के लिए पैन कार्ड बनवाया गया था, वे अब अपने आर्थिक और सामाजिक कार्यों में आगे बढ़ सकेंगे।” 

वे पाँच साधारण-से दस्तावेज़ अब उन लोगों की नई पहचान बन चुके थे। अब वे बैंक खाता खोल सकते थे, नौकरी के लिए आवेदन कर सकते थे और सरकारी योजनाओं से जुड़ सकते थे।  

रितु बताती हैं— “यदि हम धैर्य, ध्यान और जिम्मेदारी के साथ काम करें, तो कोई भी प्रक्रिया कठिन नहीं होती।”

रितु की यह कोशिश भले ही छोटी लगे, लेकिन इसने साबित कर दिया कि जागरूक युवा जब हिम्मत और जिम्मेदारी के साथ आगे आते हैं, तो समाज में बदलाव की नई रोशनी जगमगाने लगती है।

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लेखिका:

नाम: रितु कुमारी

परिचय: रितु मुज़फ्फरपुर से हैं और i-Saksham की एक Edu-Leader (बैच-11) के रूप में अपने समुदाय में डिजिटल साक्षरता और आत्मनिर्भरता को बढ़ावा दे रही हैं। 

लक्ष्य: रितु का सपना है कि वह तकनीक और सरकारी सेवाओं तक पहुँच बढ़ाकर अपने समुदाय के लोगों को सशक्त करें। 


Monday, September 15, 2025

"अगर बेटा होता, तो क्या तब भी रोकते?"

"यही अवसर अगर बेटा होता, तो क्या तब भी आप उसे रोकते?"

यह एक सवाल नहीं, बल्कि एक माँ की अपनी बेटी के सपनों के लिए उठाई गई आवाज़ थी। यह सवाल मुस्कान की माँ ने उसके पिता से तब पूछा, जब मुस्कान को भोपाल की प्रतिष्ठित अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी में स्कॉलरशिप पर पढ़ने का मौका मिला, और उसके पिता ने अपनी रूढ़िवादी सोच के कारण उसे इतनी दूर भेजने से साफ़ इनकार कर दिया।

यह सवाल मुस्कान के पिता को अंदर तक झकझोर गया। उन्होंने धीमी-सी आवाज़ में कहा, "नहीं!"

यह सिर्फ एक शब्द नहीं, बल्कि एक पिता की सालों पुरानी सोच में आया बदलाव था। नतीजा? वह खुद मुस्कान को भोपाल, "अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी" छोड़ने गए।

आज मुस्कान अपने गाँव और राज्य की सीमाओं से निकलकर भोपाल में पोस्ट-ग्रेजुएशन कर रही है। उसकी यह यात्रा सिर्फ उसकी अपनी जीत नहीं है; यह उस गाँव के लिए भी एक मिसाल है, जहाँ अब और भी पिता अपनी बेटियों के सपनों को गंभीरता से लेने लगे हैं।

लेकिन मुस्कान मे क्षमता कहाँ से विकसित हुई?

कुछ साल पहले तक, मुस्कान बिहार के मुज़फ्फरपुर जिले के हसनपुर गाँव की वही साधारण लड़की थी, जिसकी अपनी कोई आवाज़ नहीं थी। उसका नेतृत्व शून्य था—वह फैसले लेती नहीं, सिर्फ मानती थी।

यह परिवर्तन i-सक्षम फेलोशिप के साथ शुरू हुआ। दो वर्षों तक एडू-लीडर के रूप में काम करते हुए उसने गाँव की महिलाओं और किशोरियों के साथ बैठकर सामाजिक मुद्दों पर चर्चा की कभी एक सूत्रधार (facilitator) बनकर दूसरों को बोलने के लिए प्रेरित भी की। धीरे-धीरे, दूसरों को आवाज़ देने की कोशिश में, उसे अपनी आवाज़ मिल गई।

फेलोशिप खत्म होने पर, अपनी मेहनत और क्षमता से उसके सामने तीन रास्ते थे—एक बैंक की नौकरी और दो प्रतिष्ठित संस्थानों में पढ़ाई का मौका। 

यह उसकी ज़िंदगी का पहला बड़ा नेतृत्व परीक्षण था। उसने नौकरी से मिलने वाली तत्काल सुरक्षा के बजाय सीखने के लंबे रास्ते को चुना। उसने आने वाला कल को देखा।

उसने अवसर का सदुपयोग दिया, और अपने अंदर छिपी एक लीडर को पहचाना और उसे निखारा। इसी हिम्मत का परिणाम है कि वह आज अपने और अपने जैसी कई और लड़कियों के सपनों को पूरा करने की ताकत रखती है।

लेखिका के बारे में:

  • नाम: मुस्कान

  • परिचय: मुस्कान मुज़फ्फरपुर, बिहार से हैं। वह i-Saksham की पूर्व फेलो (Edu-Leader) हैं।

  • वर्तमान: वह वर्तमान में अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी, भोपाल से स्कॉलरशिप पर अपनी पोस्ट-ग्रेजुएशन की पढ़ाई कर रही हैं।

  • लक्ष्य: मुस्कान का सपना है कि वह शिक्षा और सामाजिक विकास के क्षेत्र में काम करके अपने जैसी और भी लड़कियों को आगे बढ़ने का अवसर प्रदान करें।

Friday, September 12, 2025

अंगूठे के निशान से हस्ताक्षर तक का सफ़र

अंगूठे के निशान से हस्ताक्षर तक का सफ़र

मेरा नाम निभा कुमारी है और मैं बेगूसराय के बन्हारा गाँव में i-Saksham की एक Edu-Leader के रूप में काम कर रही हूँ। जब मैंने यह सफ़र शुरू किया, तो मेरा एक सीधा-सा लक्ष्य था – अपनी कम्युनिटी की महिलाओं और किशोरियों को इतना सशक्त बनाना कि वे गर्व से अपना नाम लिख सकें।

यह कहानी उसी एक छोटे से लक्ष्य की है, जिसने कई महिलाओं के जीवन में आत्मविश्वास का एक नया अध्याय लिखा।

बदलाव की पहली दस्तक

एक दिन गाँव में घूमते हुए मेरी मुलाक़ात कुछ महिलाओं से हुई। बातों-बातों में मैंने एक आंटी जी से सहजता से पूछ लिया, “आंटी जी, क्या आपको हस्ताक्षर करना आता है?”

वह कुछ पल के लिए चुप हो गईं, फिर एक हल्की मुस्कान के साथ बोलीं, “नहीं, मुझे नहीं आता।”

उनकी इस सादगी ने मुझे हिम्मत दी। मैंने उनसे पूछा, “क्या आप सीखना चाहेंगी?”

शुरुआत में वह झिझक गईं और बोलीं, “हम नहीं सीखेंगे, अब इस उम्र में सीखकर क्या करेंगे? हमें तो लिखना बहुत मुश्किल लगता है।” यह सिर्फ उनका डर नहीं था, बल्कि उस सोच का प्रतीक था, जहाँ कई महिलाएँ मान लेती हैं कि अब कुछ नया सीखने की उनकी उम्र निकल चुकी है।

चुनौती और समाधान

मैंने उन्हें समझाया, “सोचिए, अगर आप हस्ताक्षर करना सीख लेंगी, तो कितने काम आसान हो जाएँगे। बैंक से पैसे निकालने या कोई भी सरकारी काम के लिए अब आपको अंगूठा नहीं लगाना पड़ेगा।” मेरी इस बात ने शायद उनके मन में एक उम्मीद जगाई। आखिरकार, वह मान गईं और बोलीं, “अगर आप सिखाएँगी, तो हम कोशिश करेंगे।”

यह मेरे लिए एक बड़ी चुनौती थी। शुरुआत में उन्हें अक्षर पहचानने और पेन पकड़ने में भी दिक्कत हो रही थी। वे बार-बार रुक जातीं और कहतीं, “ये अक्षर हमसे नहीं बन रहा।”

तब मैंने ठान लिया कि मैं उन्हें रोज़ एक घंटा सिखाऊँगी। धैर्य और निरंतर अभ्यास के साथ, धीरे-धीरे उनकी उँगलियाँ अक्षरों को साधने लगीं।

खुशी का वह पल

कुछ ही दिनों की मेहनत रंग लाई। जब मैं उनसे दोबारा मिली, तो उनके चेहरे पर एक अलग ही चमक थी। वे गर्व और खुशी से भरकर बोलीं, “आपने हमें सिखाया, अब हम बैंक में खुद साइन करते हैं। अब हमें अंगूठा लगाने की ज़रूरत नहीं पड़ती। यह बहुत अच्छा लगता है।”

उनकी आँखों में जो आत्मनिर्भरता की चमक थी, वह किसी भी पुरस्कार से बढ़कर थी। उनकी सफलता ने गाँव की दूसरी महिलाओं को भी प्रेरित किया। कुछ महिलाएँ खुद मेरे घर आकर सीखने लगीं और जो नहीं आ पाती थीं, मैं उनके घर जाकर उन्हें सिखाने लगी।

आज वे सभी महिलाएँ आत्मविश्वास के साथ अपने दस्तावेज़ों पर हस्ताक्षर करती हैं। उनके चेहरों पर गर्व और आत्मनिर्भरता की जो मुस्कान है, वही मेरे लिए असली इनाम है।


लेखिका:

  • नाम: निभा कुमारी

  • परिचय: निभा कुमारी बेगूसराय के तेघड़ा प्रखंड से हैं और वर्तमान में बन्हारा गाँव में i-Saksham की Edu-Leader (बैच-12) के तौर पर काम कर रही हैं।

  • लक्ष्य: निभा का मानना है कि शिक्षा और आत्मनिर्भरता ही समाज में वास्तविक बदलाव ला सकते हैं, और वह इसी दिशा में आगे भी काम करना चाहती हैं।