Wednesday, May 29, 2024

मेरे गाँव के लोग चाहते हैं कि अब उनकी लड़की भी कमाना सीखे!

नमस्ते दोस्तों, 

मैं आप सभी के साथ i-सक्षम में जुड़ने से पहले और अब के बीच का स्वयं की सोच और विचारों में आये बदलाव के कुछ उदाहरण आपके साथ साझा करना चाहती हूँ। यह कुछ ऐसी बातें होंगीं जो हो सकता है कि किसी को सही ना लगे, परन्तु मैंने इन्हें जिया है, इन्हें महसूस किया है और इनके लिए खुद से, घरवालों से, अपने समाज से तर्क-वितर्क किया है। तो इन्हें आपके सामने रखना और अपनी समझ और गहरी करना मेरा उद्देश्य है।

मैं बेगूसराय के एक छोटे से गाँव चक्कापर की रहने वाली हूँ। हमारे गाँव में अमूमन लड़के-लड़कियों की शादी 14 से 20 वर्ष की उम्र में हो जाती है। हालाँकि कुछ एक-दो लड़के 20 की उम्र के बाद भी शादी कियें हैं परन्तु लड़कियों की शादी तो 20 वर्ष तक हो ही जाती है।

मैं भी उसी गाँव की बेटी हूँ  तो मेरे परिवारजनों की सोच भी वैसी ही है। मैं अपने गाँव की इकलौती लड़की हूँ जिसने 22 वर्ष की होकर भी अब तक शादी नहीं की है। इसी कारण मैं गाँव-समाज के बहुत लोगो की नज़र आ गयी हूँ। आये दिन मेरे लिए रिश्ते आ जाते हैं। i-सक्षम से जुड़ने से पहले मुझे यह सब सही ही लगता था। क्योंकि मैं बचपन से यही सब देख कर बड़ी हुई थी। अगर कोई मेरे लिए रिश्ता भी लेकर आता था तो मैं विरोध नही करती थी क्योंकि मुझे वो गलत लगता ही नहीं था!





अभी मैं बीते दो साल से i-सक्षम से जुड़ी हूँ और इससे पहले मैं प्राइवेट स्कूल में पढ़ाती थी। मैं अपने गाँव की पहली ही लड़की हूँ जो घर से निकल कर, कोचिंग चला कर या इसी तरह से काम करके अपने लिए कुछ रूपये कमाती है। i-सक्षम से जुड़ने के बाद धीरे-धीरे मुझमें बदलाव आना शुरू हो गया। बहुत छोटी-छोटी बातें हैं, जिनके माध्यम से मैंने यह बदलाव महसूस किया। समाज के जो नियम पहले मुझे सही लगते थे वो मुझे गलत लगने लगे। जब मुझे गलत लगने लगा तो मैं विरोध करने लगी। 

जैसे- जातिवाद गाँव की बड़ी एक समस्या:

ऐसा नहीं है कि जातिवाद सिर्फ ऊँची कास्ट के लोग ही करते है। हर वो कास्ट जातिवाद करती है जो यह सोचे कि उनके नीचे एक कास्ट है। समझने के लिए जैसे हम ओबीसी में आते है जो जनरल कास्ट वालों से नीचे आता है। 

तो हम भी  एससी कास्ट में जो लोग आते है उन लोगों से भेदभाव करते हैं।  हालाँकि मैंने कभी ऐसा  भेदभाव नहीं किया मैंने अपने आस-पास ये होता हुआ देखा है।


लेकिन मैंने इस चीज का कभी विरोध भी नहीं किया। क्योंकि इस सन्दर्भ में मेरा कोई विचार ही नहीं था। 

अब मैं बिकुल अलग हो गई हूँ। इस तरह की दकियानूसी सोच का पालन जब भी मैं अपने घर के लोगो को करते हुए देखती हूँ तो मैं उनको तर्क के साथ गलत और सही बताती हूँ। 


एक बार नवरात्रि का दिन था और मेरी मम्मी को धान उगाने के लिए मिट्टी की जरूरत थी। रास्ते से एक एससी (दुसाध) जाति का एक आदमी श्री गंगा जी जा रहा था। तो मेरी मम्मी ने उसे ही मिट्टी लाने के लिए बोल दिया। जब उस व्यक्ति ने मिट्टी लाकर दी तो मेरी चाची ने देख लिया और उसके जाने के बाद मेरी चाची, मेरी मम्मी से बोली कि वो तो दुसाध जाति का था। “भगवान के लिए मिट्टी है उसके हाथ का छुआ हुआ थोड़े न लेंगे”। 

मेरी मम्मी को नहीं पता था कि मिट्टी उससे नही मंगवानी थी। मैंने ये सारी बातें सुनी और मुझे बहुत तेज गुस्सा आया। मैंने चाची के सामने ही मम्मी को बोला कि जब जनरल कास्ट के लोग हमारे साथ ऐसा करते है तो हमलोग को कितना बुरा लगता है? 

और हम अभी क्या कर रहे है?  हम भी तो वही कर रहे हैं। अपने से नीची कास्ट के  लोगो के साथ वही भेदभाव कर रहे हैं, जिससे उन्हें बुरा लगे। 

जिस गंगा जी में हमलोग जाते है छठ पर्व के दिन पूजा करने के लिए वो लोग भी उसी दिन उसी गंगा जी में पूजा करने के लिए जाते हैं। क्या उससे हमलोग नही छुआते हैं? 

और तुम्हीं तो कहती हो कि सभी मनुष्यों को भगवान ने बनाया है तो भगवान इतने बुरे तो नहीं हो सकते कि जिस मनुष्य को वो खुद बनायें, उसी से भेदभाव करें। 


वोटिंग के अधिकार पर विचार विमर्श: 

मेरे घर के, गाँव के लोग- जाती, धर्म, मंदिर, मस्जिद के नाम पर वोट देते हैं। मैंने कभी उनलोगो को समझाने की कोशिश भी नहीं की कि यह गलत है। 

हालाकि गाँव के लोगो को तो मैं समझा ही नहीं पाती। लेकिन मैंने कभी अपने घर के लोगो को भी समझाने की कोशिश नहीं की। क्योंकि मुझे इस बारे में कोई आईडिया ही नहीं था कि क्या गलत है?  और क्या सही!


अभी मैं इन मुद्दों पर भी घर में बहस कर लेती हूँ। तुम्हारी इसी सोच के कारण देश कभी भी विकास नहीं कर पाता है। मैं अपनी बातो से अपने परिवार के लोगो को कॉन्फिडेंस में भी ले लेती हूँ। शुरू-शुरू में बहस होती है लेकिन लास्ट में सबको मेरी बात सही लगती है। क्योंकि मेरी बातों में तर्क होता है, मैं ऐसा नहीं कहती हूँ कि मुझे सही लगता है इसलिए सही है। और आप भी मेरी बात माने। मैं उन्हें उदाहरण के साथ सही गलत बताती हूँ। और अपना मत बनाने का समय देती हूँ।

 

राह चलते समय कमेंट का जवाब:

पहले मैं किसी के भी ज्यादा मुँह नहीं लगती थी। चाहे मैं सही रहूँ या गलत! कोई मुझे कुछ भी बोल के चला जाता था। 

राह चलते हुए कोई लड़का यदि मुझे कुछ बोल दे तो न ही मैं उसे कुछ जवाब दे पाती थी और न ही अपने परिवार वालो को इस बारे में बताती थी। 


लेकिन अब मैं कुछ अलग ही तरह से उनको जवाब देती हूँ। अगर राह चलते मुझे कोई कुछ बोल दे तो मैं उनसे लड़ती नही हूँ। बल्कि उनके सामने जाकर पूछती हूँ कि क्या दिक्कत है आपको? 

और आप मुझे ऐसा क्यों बोला? हालाँकि कभी-कभी मैं गुस्सा में भी आ जाती हूँ। लेकिन मेरे समझाने की टोन वही रहती है। मैं पूरी कोशिश करती हूँ कि मैं नम्रता से बात करूँ। 


परिवारजनों के विचारों में आया परिवर्तन: 

इस सबके अलावा सबसे बड़ा परिवर्तन मेरे परिवार वालो में देखने को मिला। जब कभी भी कोई मेरे लिए रिश्ता लेकर आता था तो मेरी मम्मी उत्सुक हो जाती थी कि अब इस बार इसकी शादी कर ही देंगे। 

(क्योंकि उनको लगता था कि पूरे गाँव में एक मेरी ही बेटी बची है, जो इस उम्र तक कुंवारी है।) 


और जब मैं इस चीज का विरोध करने लगी तो वो लोग मुझसे भी बहस कर लेते थे। बहुत ज्यादा बहस होती थी। कभी-कभी तो मैं खूब रोती थी। लेकिन धीरे-धीरे मेरे काम को देखते हुए वो लोग भी मुझे समझने लगे। 

अभी कुछ दिन पहले मेरे परिवार में दादी का देहांत हो गया था। तो सभी रिश्तेदारों का आना हुआ। उन्हीं में से किसी ने कहा कि आंचल की उम्र बहुत ज्यादा हो गयी है। इसकी शादी के बारे में अभी तक सोचे हैं या नहीं?

तो मेरी मम्मी ने उत्तर दिया कि लड़का देखते तो है पर अभी तक कोई वैसा अच्छा लड़का मिला नही है जो इसके लायक हो। 


तो फिर उन्होंने कहा पूरी तरह से परफेक्ट लड़का-लड़की थोड़ी न किसी को मिलते हैं।

और इसकी उम्र तो गांव में सबसे ज्यादा हो गई है। इस उम्र की कोई भी लड़की नहीं बची है। लड़कियों को इतनी उम्र तक कुंवारी रखना ठीक नहीं है। 


तो उनको मेरी मम्मी ने जवाब दिया कि कोई मोटरी (समान से भरा थैला) थोड़े ही है जो किसी को भी जाकर थमा दें। मेरी बेटी पढ़ी लिखी है और ऊपर से अपना खर्चा भी खुद उठाती है। गाँव के स्कूल में पढ़ाने जाती है संस्था में भी काम करती हैं। इसके बाद और कुछ बड़ा भी करेगी। उसका एक इंटरव्यू बचा हुआ है अभी! (गांधी फेलोशिप के बारे में बता रही थी क्योंकि मैने उन्हें इसके बारे में बताया था।) 


उसके बाद मेरी मम्मी बोली कि यहां तो लड़कियों की 17-18 वर्ष में शादी बच्चे सब हो जाते हैं। उससे तो अच्छा ही है न कि मेरी बेटी अपने पैरों पर खड़ी है, आगे बढ़ रही है। और कुछ कमा भी रही है। 

ऐसा सुनते ही सामने वाले सभी लोगो का मुँह बंद हो गया! 


मेरे गाँव में उतना कुछ खास परिवर्तन नही आया। लेकिन हाँ अब बहुत लोग ये जरूर चाहते है कि उनकी बेटी का खर्च उठाना सीखे।  

जो पढ़ी-लिखी है, लेकिन घर में बैठी है। इसके अलावा बहुत सारी लड़कियां जो मेरे गाँव की है वो मुझसे प्रेरित हुई है। उनको भी लगता है कि अगर वो 10th या 12th करके बैठी रही तो उनकी भी शादी हो जायेगी इसलिए वो सब भी बाहर निकलना चाहती हैं।


आँचल

बैच-10, बेगूसराय


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