आज मैं आपको बच्चों के साथ खेली गयी होली का अनुभव साझा कर रही हूँ। मैं जब घर से ऑफिस आती-जाती हूँ तो रास्ते में उन बच्चों का घर पड़ता है जिन्हें मैं फ़ेलोशिप में पढ़ाती थी। बच्चे जब भी हमें देखते थे तो हेल्लो दीदी, गुड मोर्निंग दीदी. टाटा, बाय-बाय दीदी बोल देते थे। कभी-कभी बच्चे मुझे रोककर पूछते हैं कि मैं अब क्यों नहीं पढ़ाती हूँ?
मैंने उन्हें बोला करती कि दूसरी दीदी तो पढ़ाती है न? तो बच्चे बोलते थे कि हाँ, पढ़ाती है पर आप भी आईये ना! मेरे पास उनके इस प्रश्न का कुछ जवाब नहीं होता था।
जब बच्चे रास्ते में ख़ुश होकर मुझे गुड मॉर्निंग दीदी बोलते थे तो और भी दूसरे बच्चे उनके पीछे बोलते थे तो वहाँ के आस-पास के लोग मुझे और बच्चे को देखने लगते थे।
कुछ नए लोग जब देखते तो उनके चेहरे का भाव एक प्रश्न पूछता सा दिखता था। कभी-कभी इसकी वजह से घबराहट महसूस होती थी। लेकिन जब बच्चे पीछे से दीदी बोलते तो मैं एक बार पलटकर उन्हें एक मुस्कुराहट के साथ जरूर देखती, जिससे बच्चे के चेहरे पर एक बार फिर मुस्कुराहट आ जाती और ये देखकर मुझे बहुत अच्छा लगता।
आज जब मैं शाम 5 बजे ऑफिस से घर आ रही थी तो कुछ बच्चे सड़क के कुछ दूरी पर खेल रहे थे। खुशी ने जैसे ही मुझे आते देखा तो दूर से ही आवाज लगाई।
दीदी, रुकिए!
मोनिका दीदी, रुकिए!
आपको अभी रंग लगाएंगे। फिर मैं रुक गई। बाकी बच्चे जो खेल रहे थे, सब खेलना छोड़कर मेरे पास आ गए। घर से अबीर भी लेकर आए। एक-एक करके सबने मुझे अबीर लगाया और मैंने सभी से अबीर लगवाया।
बच्चे मेरे पैर छूने लगे। एक को मना करती, तब तक दूसरा बच्चा पैर छूने लगता। फिर बच्चों ने कहा कि दीदी अब आप हमलोग को रंग लगाइये।
फिर मैंने भी सभी को रंग लगाया। एक सेकंड के लिए मुझे लगा कि आस-पास के जो लोग देख रहे हैं वो क्या कहेंगे!
लेकिन इस बार फिर मैंने सिर्फ अपने मन और बच्चो के मन की सुनी। और एक-दूसरे को अबीर लगाकर होली खेली। जितना अच्छा मुझे आज की बासी होली अपने पुराने बच्चे दोस्तो के साथ खेलकर लगा उतना अच्छा मुझे कल और इसके पहले ऑफिस की होली नहीं लगी थी। मुझे आज भी बच्चो से बहुत स्नेह मिल रहा है ये महसूस करके मुझे बहुत अच्छा लग रहा था।
मोनिका कुमारी
बडी इंटर्न, जमुई
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