अप्रैल के अंतिम सप्ताह में मैं (प्रमोद कुमार) और श्रृंखला दीदी बांके बाज़ार के परसाचुआ-बिकोपुर गाँव में एडु-लीडर्स के मोबिलाइजेशन के लिए गए थे।
हम जिस गाँव में गए वो चारों तरफ से पहाड़ और हरे-भरे पेड़ों से घिरा हुआ था। हमें एक जगह चार-पाँच महिलायें बैठी हुई दिखी। हमने उन्हें अपनी संस्था का और अपना परिचय दिया।
जब हमने उनसे प्रश्न किया कि क्या आपके गाँव में ऐसी लड़कियां और महिलाएं हैं जिन्होंने दसवीं और बारहवीं की परीक्षाएँ पास की हुई हों?
उन्होंने उत्तर दिया कि यहाँ तो कोई इतना ज्यादा पढ़ता नहीं है। क्योंकि उनका मानना था कि गाँव के स्कूल में पढ़ाई नहीं होती है और आसपास कोई कोचिंग या ट्यूशन सेंटर भी नहीं है। यदि कोई पढ़ता भी है तो वो कहीं बाहर जाकर रूम लेकर पढ़ता है।
यहाँ रहने वाले बच्चे तो किसी तरह पाँचवी या आठवीं कक्षा तक पढ़ते हैं। उसके बाद या तो घर के काम-काज में लग जातें हैं या उनकी शादी हो जाती है।
हमने एक बार और अच्छे से पूछा कि क्या सही में कोई नहीं मिलेगा? उन्होंने उत्तर दिया कि कोई भी जाति की महिला चलेगी क्या? (वैसे तो यह प्रश्न भी हमारे लिए अजीब था।)
परन्तु हम आगे बढ़े। हमने उन्हें पूछा कि कितनी जातियाँ रहती हैं यहाँ?
उन्होंने उत्तर दिया कि “तीन”।
हमने उन्हें बताया कि किसी भी जाति की लड़कियां या महिलाएं हो सकती हैं।
इतने में उन्होंने हमें बताया कि एससी, ओबीसी और मुस्लिम समुदाय के लोग यहाँ रहते हैं।
इतनी बातों के बाद हमने आगे बढ़ने का सोचा। उस गाँव में करीब 200 से 300 घर थे। हमने बहुत प्रयास किया परन्तु पाया कि अधिकतर लोग पांचवीं या आठवीं तक ही पढ़े थे। बहुत घर घूमने के बाद हमें तीन कैंडिडेट मिले जिसमें दो दसवीं पास थी और एक ने बारहवीं की हुई थी।
बारहवीं की हुई लड़की और एक व्यक्ति से हमने बात की और इस विषय पर चर्चा की कि इतनी जनसंख्या होने के बाद भी इस गाँव में शिक्षा की स्थिति खराब है और हम चाहते है कि आप जैसे पढ़े हैं। यहाँ की महिलाएं और लड़कियां भी आगे बढ़ें। आप उनके लिए एक मग्दार्शंक का कार्य करें।
हमने उन्हें अपनी संस्था के बारे में जानकारी साझा की और उनका बायोडाटा लेकर हम वहां से चल दिए। बहुत धूप और गर्मी होने के कारण और अधिक समय वहां बिताना हमारे स्वास्थ्य को भारी पड़ सकता था।
प्रमोद
गया
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