Friday, February 3, 2023

कुछ इस तरह यादगार बनाया हमने सावित्रीबाई फुले का जन्मदिन




महिला शिक्षा सप्ताह के अंतर्गत विषय मेरी पहचान 'शिक्षा' पर ऑनलाइन सेशन कराया गया, जहां महिलाओं ने अपनी कहानियां साझा की। इस दौरान कई कहानियां ऐसी भी थी, जिन्होंने एक पल को हमें सोचने पर मजबूर कर दिया। 


किसी ने बिल्कुल सही कहा है कि किसी भी इच्छा की कोई उम्र नहीं होती और सीखने, लिखने, पढ़ने की कोई निश्चित उम्र बिल्कुल नहीं है। उम्र उस वक्त हार जाती है, जब मेहनत का पलड़ा भारी हो जाता है और कुछ ऐसा ही हुआ है हमारी इन एडुलीर्डस के साथ।                     


सबसे पहले इस अवसर को मनाने का पूरा उद्देश्य जानना जरुरी है। यह ऑनलाइन सेशन भारत की पहली महिला शिक्षक सावित्रीबाई फुले के जन्मदिन के अवसर पर रखा गया था, जिसे 3 जनवरी को मनाया गया। सावित्रीबाई फुले का जन्मदिन पूरे देश में 192वीं जयंती के रूप में मनाया गया। 


सपनों से समझौता नहीं 


सावित्रीबाई फुले का जीवन भी संघर्ष में गुजरा था। मात्र 9 वर्ष की उम्र में उनकी शादी 13 वर्षीय 

ज्‍योतिबा फुले से हो गई। हालांकि सावित्रीबाई ने शादी का विरोध नहीं किया मगर अपने सपनों से समझौता भी नहीं किया। साथ ही अपने क्रांतिकारी पति ज्‍योतिराव फुले के साथ मिलकर लड़कियों के लिए कई कदम उठाएं। उन्‍होंने लड़कियों के लिए 18 स्कूल खोले, जिसमें से पहला स्‍कूल पुणे में खोला गया था। वे देश की पहली महिला अध्यापक थीं एवं नारी मुक्ति आंदोलन की पहली नेता भी थीं। उन्होंने समाज की कई कुरीतियों के विरुद्ध मोर्चा बुलंद किया। जैसे- छूआछूत, बाल-विवाह, सतीप्रथा, विधवा विवाह। वे शिक्षा को लेकर इतनी ज्यादा गंभीर थी कि उन्होंने मजदूरों के लिए रात के वक्त स्कूल खुलवाए क्योंकि दिन के वक्त मजदूरी करने के कारण वे पढ़ नहीं पाते थे।   


उनके लिए कुछ भी लिखना सूरज को दीया दिखाने के बराबर है क्योंकि समाज के उत्थान के लिए उनके कदम आजतक सराहनीय हैं और लोगों के लिए प्रेरणा का विषय है और उनसे ही प्रेरणा पाकर हमने भी कुछ प्रतियोगिताएं एवं मेरी पहचान के तहत एक ऑनलाइन सेशन का आयोजित किया, जिसमें जमुई, मुंगेर, गया और मुजफ्फरपुर से काजल दीदी, सीमा दीदी, सलोनी दीदी, बुलबुल दीदी ने अपनी कहानियां हमारे साथ साझा की। आइए, रुबरु होते हैं, उनकी कहानियों से- 


काश, मैं भी पढ़ पाती 



गया जिले के नीमा गांव की रहने वाली सीमा
ने भी अपने संघर्ष की यात्रा हमारे साथ साझा की है। वे बताती हैं कि उनके परिवार में तीन लोग हैं। उनके पति और उनका एक छोटा बेटा भी है। सीमा के पिता किसान हैं और उनकी मां एक एनजीओ में काम करती हैं। उन्होंने आई सक्षम को बताया, उन्होंने 2003 में मैट्रिक की परीक्षा दी और साल 2006 में उन्होंने इंटर की परीक्षा दी लेकिन परीक्षा के बाद ही उनकी शादी हो गई और जहां शादी हुई वहां की आर्थिक स्थिति उतनी अच्छी नहीं थी लेकिन वे आगे पढ़ना चाहती थीं क्योंकि उन्हें शिक्षा की अहमियत थी। वे जब कभी दूसरे साथी को देखा करती थीं, तो उन्हें लगता था कि काश मैं भी पढ़ पाती और कुछ कर पाती लेकिन उन्हें अपने हालातों पर शर्मिंदगी महसूस होती थी। कोरोना के वक्त साल 2020 में अपनी बड़ी दीदी प्रेमलता द्वारा उन्हें शिक्षा सहेली के बारे में पता चला, जहां उन बच्चों को पढ़ाने का काम था, जो कोरोना के दौरान शिक्षा से वंचित हो गए थे। थोड़ी असमंजस की स्थिति के बाद सीमा ने बच्चों को पढ़ाना स्वीकार कर लिया। 


साल 2020 में आई-सक्षम के दो वर्षीय फैलोशिप प्रोग्राम के बारे में पता चला, जिसे उन्होंने ज्वाइन कर लिया और यही से उनके सीखने और सिखाने का सफर शुरू हुआ तथा पढ़ने की ललक दोबारा से जगने लगी। आई-सक्षम के धर्मवीर भैया ने उनकी काफी मदद की और उनका ग्रैजुएशन में दाखिला भी करवाया गया। साथ ही सीमा बताती हैं कि उन्हें अपने परिवार वालों का भी काफी सहयोग मिला, जिस कारण वे यहां तक पहुंची हैं। पहले उनके अंदर काफी झिझक थी, जैसे- किसी के सामने कुछ बोलने में हिचक होती थी, किसी के सामने खाना भी नहीं खाती थीं। कुल मिलाकर वे काफी संकोची और शर्मीली सदस्य थी लेकिन अब वे अपने अंदर काफी बदलाव महसूस करती हैं और सकारात्मकता से आगे बढ़ रही हैं। 


इंटर पास करते ही हुई शादी



मुंगेर, बिहार की रहने वाली बुलबुल कुमारी को पढ़ना और पढ़ाना दोनों बेहद पसंद है। उनके पिता एक मजदूर हैं, और कार्य के दौरान घाटा होने के कारण उनकी आमदनी कम हो गई और अंततः उनकी पढ़ाई छूट गई मगर अपने एक रिश्तेदार की मदद से उन्होंने इंटर की परीक्षा दी लेकिन इंटर पास करते ही उनकी शादी हो गई। साथ ही जहां शादी हुई, वहां भी शिक्षा का माहौल नहीं था और उनके पति स्वयं 9वीं पास थे। एक रोज उनके पति ने बुलबुल से एक स्कूल में पढ़ाने को कहा लेकिन वे पढ़ाना नहीं चाहती थी मगर उन्होंने बच्चों को पढ़ाना शुरु किया और पढ़ाने के दौरान ही उनके पिता का देहांत हो गया और उन्होंने पढ़ाना छोड़ दिया। 


इसके बाद एक आवासीय विद्यालय में 11 महीने तक पढ़ाने का मौका मिला मगर 11 महीने के बाद वो भी छूट गया। इसी बीच उन्हें आई-सक्षम के बारे में पता चला और उस समय उन्होंने आई-सक्षम का एग्जाम दिया मगर दूसरे बार के प्रयास में उन्हें सफलता मिली फिर उन्होंने अपनी पढ़ाई शुरु की। तकरीबन साल 2003 में उन्होंने इंटर किया और साल 2022 में उन्होंने बीए करना शुरु किया। 


मां के निधन ने उजारी दूनिया 



मुजफ्फरपुर बिहार की रहने वाली सलोनी कुमारी
ने सेशन में अपनी यात्रा के बारे में बताते हुए कहा, जब वे 11 साल की थीं, तब ही उनकी मां का देहांत हो गया था, जिस कारण उनका परिवार थम गया। लगभग 5-6 सालों तक उनकी पढ़ाई रुक गई। वे बताती हैं कि उनके पिता से अचानक सारी चीजें व्यवस्थित नहीं हो पा रही थीं। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वे काम करें या अपने बच्चे को संभालें क्योंकि सलोनी का एक छोटा भाई भी था। वे बताती हैं कि इसके बाद वे नानी घर चली गई लेकिन वहां भी कुछ व्यवस्थित नहीं हुआ मगर धीरे-धीरे सारी चीजें पटरी पर आईं मगर पढ़ाई छुटने के कारण रुचि भी नहीं जग पा रही थी। हालांकि कुछ समय बाद उनके पिता ने कहा कि अब 10वीं के बाद आगे नहीं पढ़ा सकेंगे मगर सलोनी की जिद के कारण उनकी पढ़ाई जारी रही। साल 2022 में आई सक्षम से जुड़ने के बाद उन्हें काफी सहयोग मिला, जैसे- पेटिंग उनकी हॉबी है, तो अब वे अपने शौक को भी समय दे पा रही हैं।


संघर्ष का असल मतलब 


ये कहानियां कोई कोरी-काल्पनिक कहानियां नहीं हैं बल्कि संघर्ष की कहानी है, जिसमें हताशा का अंधियारा है लेकिन क्षण भर का, जिसमें हार का नजारा लेकिन क्षण भर का, हतोत्साह है लेकिन वो भी पल भर का मेहमान है क्योंकि इन सारी महिलाओं के अंदर का जूनुन है, जिसने उन्हें टूटने नहीं दिया। 

 

कलम की शक्ति अतुलनीय है। रामधारी सिंह दिनकर कहते हैं, 


दो में से क्या तुम्हें चाहिए

कलम या की तलवार 

मन में ऊंचे भाव कि 

तन में शक्ति विजय अपार 


इन पंक्तियों को सिद्ध करते हुए, इन महिलाओं ने कलम की ताकत को चुना। मन के भावों को हमेशा ऊंचा बनाए रखा और यही कारण है कि आज इनकी कहानी हमारे सामने है। 


अपने आप को कभी कम ना आंके और विजयपथ पर आगे बढ़ते रहे। हम अगर कहीं जाएं और बीच में समंदर दिखाई दे, तो हम किनारों पर रुकें ना। अगर रुकें, तो रणनीति बनाने के लिए रुकें और आगे बढ़ें क्योंकि समंदर भी केवल बहना जानता है इसलिए वो समंदर है और जो थम गया, वो शायद जीवित ही नहीं है।  


सलोनी, बुलबुल और सीमा की कहानियां भले ही अलग अलग भोगौलिक हिस्से से हो लेकिन सब में अपने हक के लिए लड़ने, अपने लिए आवाज उठाने और कुछ कर गुजरने की ललक साफ झलकती है। ये चारों कहानियां अलग अलग हो कर भी एक ही मर्म बयान करती है, वो है संघर्ष। 


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