प्यारे साथियों,
मैं आपके साथ अपना एक छोटा सा अनुभव साझा करना चाहता हूँ। जब, मैं फ़ेलोशिप के दौरान, कुछ लोगो में हुए बदलावों के बारे में सोचता हूँ, तो लगता है कि इस बदलाव में तो कोई जद्दोजहद नहीं करनी पड़ी होगी। लेकिन मेरे इस नज़रिये को रंजू दीदी के साड़ी से सूट और फिर साइकिल सीखने के अनुभव ने चुनौती दे डाली!
साड़ी से सूट पहनने तक का सफ़र, यह बात और वाक्य सुनने में कितना आसान और साधारण लगता है। शुरुआत में जब मैं रंजू दीदी को सूट पहनने के लिए बोलता था, तो मुझे भी आसान लगता था।
सूट पहनकर ऑफिस आने में क्या दिक्कत है? सूट पहनने पर कोई क्या ही बोलेगा?
लेकिन मुझे आने वाली चुनौतियों का तनिक भी अंदाज़ा नहीं था। वास्तविकता तो यह है कि मेरा भी यह पहला अनुभव था। जब मैं किसी को साड़ी से सूट पहनने के लिए प्रेरित कर रहा था।
मेरे और ऑफिस के अन्य साथियों के द्वारा बार-बार बोलने के बाद दीदी ने एक नया सूट सिलाया और उसे सबसे पहले ऑफिस लेकर आयीं।
सभी के बोलने के बाद ऑफिस में ही पहन कर बाहर आयी तो दीदी के चेहरे पर जो ख़ुशी झलक रही थी, उसे कोई भी पढ़ सकता था। पहली बार सूट पहनने के कारण दीदी थोड़ी शर्मा भी रही थी। लेकिन साथियों ने भी उनका मनोबल खूब बढाया।
बहुत दिन बीत गए। मैं सप्ताह में 2-3 बार, रंजू दीदी से सूट के बारे में चर्चा कर ही लेता था। दीदी, सूट पहनकर ऑफिस कब से आना शुरू करेंगे? तो दीदी कहती थी कि “भैया घर से बाहर सूट पहनकर निकलेंगे तो लोग क्या सोचेंगे?”
यह सुनकर मैं उन्हें समझाता था कि “अगर लोगो के सोचने वाली बात, आप ही सोच लेंगे, तो फिर लोग क्या सोचेंगे?” मुझे तो तनिक भी अंदाज़ा नहीं था कि उस बात का असर इतना जल्दी हो जायेगा। मैं अपनी आदत के अनुसार तैयार होकर बाहर खड़ा था, तभी मेरी नज़र ऑफिस में प्रवेश कर रही रंजू दीदी पर पड़ी, तो देखा कि दीदी सूट पहनकर मुस्कराते हुए आ रही हैं। मैं, उन्हें देखकर भाव-विभोर महसूस कर रहा था। लेकिन मेरे पास उस दिन बोलने के शब्द नहीं थे। मुझे सही में बहुत ख़ुशी हुई थी।
अब सूट पहनकर ऑफिस आने का सिलसिला लगातार चलने लगा। मैं आपको बताना चाहूँगा कि मैं ही रंजू दीदी का Development मेंटर हूँ। तो जैसे ही मैंने उनसे पिछले कुछ महीनों के ख़ुशी के पल साझा करने को कहा, तो दीदी ने यह कहानी सुनायी जिसे सुनकर मैं स्तब्ध हो गया।
जब मैंने शुरुआत में सूट पहनकर ऑफिस आना शुरू किया तो पहले मुझे खुद से ही जद्दोजहद करनी पड़ रही थी। मन में हमेशा डर लगा रहता था कि कोई गॉव के लोग न देख लें। इसीलिए अपनी बेटी को बलकर टोटो रुकवाकर रखने को बोलती थी। जैसे ही टोटो रूकती, मैं जल्दी से सर नीचे करके बैठ जाती थी।
फिर एक दिन लोगो से सुनने में आया कि कैसी बहू है? अब सूट पहनने लगी है, ससुराल में सूट पहनकर घूमती है। सूट पहनकर ही कहीं काम करने भी जाती है। मेरे आस-पास के लोग भी मेरे ससुर और सास को बोलने लगे।
मुझे लगने लगा कि अब नहीं पहनना चाहिए। फिर भी मैंने सोचा कि देखते हैं क्या होता है? कुछ दिन ऐसे ही लोग कुछ न कुछ कहते रहे। लेकिन मेरे सास-ससुर ने मुझसे कुछ नहीं बोला।
अब धीरे-धीरे दीदी का डर कम हो रहा था और लोगों के ताने भी कम हुए। ऑफिस में स्कूटी लाने का निर्णय चल रहा था तो दीदी ने सोचा कि स्कूटी सीखने से पहले अपनी बेटी से साइकिल सीख लेती हूँ।
ताकि स्कूटी सीखने में आसानी हो, क्योंकि प्रितीमाला साइकिल चलाना जानती हैं, तो वह शुरुआत से ही बैलेंस बना पाती हैं।
जब उन्होंने साइकिल सीखने का कदम उठाया, तो उन्होंने अपने आत्मविश्वास में बहुत बड़ा बदलाव देखा। अब उन्हें कोई भी डर नहीं था, और वह किसी से भी अपनी बातें समझाने में सक्षम थीं।
उन्होंने अपने गॉव के आस-पास की महिलाओं से बातचीत की और उनसे साझा किया कि वो ऐसा क्यों कर रहीं हैं?
अब अपनी बातों से लोगो को समझाने में सक्षम हो पायी हैं। कहते भी हैं कि “जब किसी महिला की मोबिलिटी बढ़ जाती है तो वह सक्षम एवं सशक्त होती जाती हैं। यह बात मुझे सच होती दिख रही थी”। यह अनुभव मुझे यह सिखाता है कि हमें कभी-कभी उस ओर भी देखना चाहिए जिस ओर हमने कभी ध्यान नहीं दिया।
धर्मवीर
टीम सदस्य, गया
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