नमस्ते दोस्तों,
मैं आप सभी के साथ अपना राजस्थान
के अबू रोड, सिरोही के फील्ड प्रैक्टिस का अनुभव साझा कर रही हूँ।
परिचय:
फील्ड प्रैक्टिस का स्थान सिरोही जिले का अबु रोड था और मैंने दो शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय
और एक शासकीय प्राथमिक सरकारी विद्यालय का दौरा किया और शिक्षकों, मुख्य शिक्षकों, बच्चों
और अभिभावकों से बातचीत की। मैंने उनके काम और चुनौतियों के बारे में जाना,
शिक्षकों की शिक्षण विधियों का अवलोकन किया और
शिक्षा पर उनके विचारों को समझने के लिए बातचीत की।
प्रत्येक स्कूल में सामान्य कारक
शिक्षक की आवश्यकता और शिक्षक को शिक्षण के अलावा अन्य कार्यों में भी शामिल करना।
हमारा उद्देश्य था कि सरकारी स्कूलों में शिक्षण-अधिगम माहौल का निरीक्षण करना
और शिक्षा प्रणाली में शिक्षक का रवैया, शिक्षक
के पढ़ाने का तरीका, एजुकेशन
के लिए किस-किस तरीके के योजनायें काम करती हैं, स्कूल का भौतिक वातावरण के बारे में जाने।
समुदाय के लोगो से मिलना और समझ
बनाना कि वो शिक्षा को किस तरीके से देखते हैं और स्कूल और समुदाय के लोगो का
एक-दूसरे के साथ रिश्ता कैसा है और उनके कार्यों को समझना था। इसके अलावा हमने उन
संस्थाओं के टीम से मुलाकात की और बात किया जो स्कूल और समुदाय के लिए शिक्षा पर काम करती हैं
जैसे प्रदान, दूसरा
दशक- जो स्कूल और समुदाय के बच्चे के
शिक्षा और और जागरूकता पर काम करती है। हम, डमरो की फली में भील आदिवासी और भाकर
में गरासिया आदिवासी के लोगो से मिले।
हम अबु रोड के जिन स्कूल और समुदाय में गये थे वहाँ ग्रासिया और भील समुदाय के
लोग रहते थे। जिसमें अधिकांश लोग खेती और नरेगा से जुड़े हैं और उनके व्यवसाय हैं जैसे सब्जियां बेचना,
गाय को पहाड़ो के बीच चराने जाना और
नरेगा में मजदूरी, और भी बहुत कुछ। यह
क्षेत्र हरा-भरा और पहाड़ो के बीच में है।
स्कूल का भौतिक वातावरण:
गणका और आकरा भट्टा स्कूल अधिकांश
कक्षाएँ बहु-स्तरीय थीं। उच्चतर
माध्यमिक विद्यालय गणका का इंफ्रास्ट्रक्चर पुराना था। स्कूल में शौचालय और पानी उपलब्ध था, लेकिन वे अच्छी दशा में नहीं थे।
शिक्षको के पढ़ाने में सहायक संसाधन
उपलब्ध थे, जिससे बच्चों को स्कूल में किसी तरह की समस्याओं का सामना करना नहीं
पड़ रहा था वह अच्छे तरीके से पढ़ाई कर रहे थे।
प्राथमिक विद्यालय जोडफली में सही तरीके से क्लासरूम भी नहीं थे। १-५ तक के बच्चे को एक ही क्लासरूम में बैठाये हुए थे, जिसके कारण शिक्षक को भी बहुत दिक्कते आ रही थी। ना ही वहां पर शौचालय और पीने का पानी की व्यवस्था थी। आवश्यक संसाधन नहीं होने के कारण इसका प्रभाव बच्चों के पढ़ाई पर पड़ रहा था क्योंकि बहुत सारे बच्चे इस कारण भी स्कूल नहीं आ रहे थे कि स्कूल में शौचालय नहीं है और किसी को शौचालय लगता था तो वह घर जाते थे और घर में उनको ज्यादा समय लग जाता था तो उनके पढ़ाई पर उसका प्रभाव पड़ता था।
बच्चे की शिक्षा और मिड-डे मील:
तीनों स्कूल में बच्चों को पोषण
आधारित मध्याह्न भोजन मिल
रहा था और उनके भोजन में ज्यादातर दिन दाल-रोटी था। क्योंकि दाल रोटी एक
पौष्टिक आहार है और बच्चे जिस कम्युनिटी के थे उनको सही से पोस्टिक आहार भी नहीं
मिलता है। घर में खाने के लिए न हो और यदि बच्चे का पेट नहीं भरा हो तो
बच्चे को पढ़ने में मन नहीं लगता है। बच्चे सही से पढ़ाई नहीं कर पाते हैं
इस कारण वहाँ के सभी स्कूलों में बच्चों को वही खाना दिया जा रहा था जो कि उसके
लिए फायदेमंद हो और बच्चे स्वस्थ रहें, उनका पढ़ाई में मन लगे।
तीनों स्कूल के क्लास पहले से आठवीं
तक के बच्चे को बाल गोपाल योजना के तहत 200 ग्राम दूध भी पीने के लिए मिलता था। यह इसलिए मिलता था क्योंकि आदिवासी समुदाय
के बहुत बच्चे वैसे थे जिनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी तो वह रात में खाना नहीं
खाते थे। और खाना खाकर भी नहीं आते थे तो उन्हें उतने दूध से उनको थोड़ी राहत मिले
और वह पढ़ाई में फोकस कर पाए इसलिए उनको दूध दिया जाता था।
हमने CDL में पढ़ा कि बच्चे का Physical Development बहुत जरुरी होता है नहीं तो उनका Cognitive Development नहीं हो पाएगा, तो सही तरीके से पढ भी नहीं पाएगा।
शिक्षकों के पढाने का तरीका:
जब मैं शासकीय प्राथमिक जोडफली गई थी, वह स्कूल १-५ कक्षा तक का था। एक ही शिक्षक थे। मैंने देखा कि वहाँ के शिक्षक बच्चे को खेल के माध्यम से पढा रहे थे, क्योंकि वो स्कूल बहुत सालों से बंद था तो बच्चों को पढाई से जोड़ने के लिए उन्हें नये-नये खेल और गतिविधि से पढा रहे थे।
ताकि बच्चे का पढने में मन लगे। वह पढाई
से बोर महसूस ना करे और जब
शिक्षक लाइब्रेरी की किताब से पढा रहे थे तो वो बच्चों को, उनके दैनिक जीवन में
होने वाले चीजों से जोड़ कर पढ़ा रहे थे।
जिससे बच्चों को मज़ा आ रहा था। उनका
क्लासरूम प्रिंटरिच था बच्चों और शिक्षकों के द्वारा बनाये गए बहुत से TLM
क्लासरूम में लगे हुए थे और शिक्षक को सभी बच्चों का नाम पता था।
लेकिन, तीनों स्कूलों में अंग्रेजी एक बड़ा मुद्दा था। बच्चों को अंग्रेजी पढना और लिखना नहीं आ रहा था।
तो शिक्षक उसे पर जोर दे रहे थे कि
बच्चे इंग्लिश भाषा सीखें, क्योंकि शिक्षक को लगता था कि अंग्रेजी भाषा ज्यादा
महत्वपूर्ण है तो बच्चों को अंग्रेजी आनी चाहिए।
यही बात हम यदि गणका स्कूल की करें तो वहाँ पर बच्चों को पुराने
तरीके से पढाया जा रहा था। “उनको ब्लैक बोर्ड से देखकर लिखना था। वो खुद से
कुछ नया नही कर पा रहे थे क्योंकि शिक्षक का कहना था कि जो मैं बोल रही हूँ,
चुपचाप तुम सब वही लिखते जाओ। बिना आवाज किये”।
जैसे कि हमने philosophy में R.S. Peter के
सिद्धांत में पढा है कि बच्चे को सोचने का मौका देना चाहिए ताकि बच्चा critical
thinking कर पाए लेकिन यहाँ पर बच्चे को ये
मौका नही दिया जा रहा है।
तीनों स्कूल में राजस्थान के सरकारी
पाठ्यपुस्तक का ही इस्तेमाल किया जा रहा था। जब मैंने पुस्तक देखी तो वह पुस्तक पूरी गतिविधि से ही भरी हुई थी।
जिससे बच्चों को बहुत ज्यादा पढने में मजा आ सकता था, लेकिन शिक्षक उसे तरीके से नहीं पढा रहे थे, जिस तरीके
से पुस्तक को तैयार किया गया है।
उच्च माध्यमिक विद्यालय आगरा भट्ट में मैंने देखा कि बच्चे अपनी किताब लेकर स्कूल
नहीं आए थे, तो शिक्षक उन सभी बच्चों को बहुत बुरी तरीके से मोटे डंडे से पीट रहे थे। बच्चा रो रहा है लेकिन
शिक्षक लगातार पीटते जा रहे है। यदि हम बच्चे को शारीरिक दंड देते हैं तो उसका
बुरा प्रभाव बच्चों की पढ़ाई पर पड़ता है।
जैसे कि हमने CDL में पढ़ा कि Emotions के १० सिद्धांत में Negative
emotions and learning सिद्धांत आ रहा हैं क्योंकि इसमें
शिक्षक अपने नेगेटिव इमोशन बच्चे पर दिखा रहे हैं।
गणका स्कूल के शिक्षक अन्य कामों में
व्यस्त थे तो वो बच्चे को ही पढ़ाने के लिए बोले। बच्चे, वयस्क की भूमिका निभा रहे
थे। गणका स्कूल में बच्चों को खेलने का समय नही दिया जाता था। बच्चे लंच कर लें तो
तुरंत क्लास में बैठने को बोल देते थे।
गणका स्कूल के एक शिक्षक का कहना था “ये आदिवासी
बच्चे हैं ज्यादा पढ कर क्या करेंगें?”
“आखिर में तो इसको भी गाय ही चराना
है।
और ये आदिवासी बच्चे पढते थोड़ी न हैं?”
सब वैसे ही हैं।
जैसा कि हमने sociology of education में पढा कि कैसे लोगों की विचारधाराएँ ऐसी बनाई गई हैं कि अगर कोई
नीची जाति का है तो पढ नहीं सकता,
आगे नहीं बढ सकता”!
स्कूली योजनाएँ:
- इन तीनों स्कूलों में बहुत सारी वैसी योजनाएँ भी थीं, जो बच्चों को शिक्षा से जोड़ने में बहुत ज्यादा मदद कर रही थीं। जैसे बाल-गोपाल योजना बच्चों को दूध प्रदान करती है ताकि उन्हें पढने में मन लगे।
- लड़कियों के लिए “उड़ान योजना” जो कक्षा छठी से 12वीं तक लड़कियों को नैपकिन देती है ताकि स्कूल में पढने के दौरान उन्हें महावारी आ जाए तो उन्हें किसी तरह की दिक्कतों का सामना न करना पड़े और वह उसका इस्तेमाल करें।
- “परिवहन वाउचर योजना” यह पहली से पांचवी तक के बच्चों को ₹10 देती है जिनके घर की दूरी 3 किलोमीटर के आसपास हो स्कूल से और छठी से 12वीं कक्षा के बच्चे को ₹20 देती है जिनकी दूरी 5 किलोमीटर के आस पास हो। ताकि कोई भी अभिभावक यह सोचकर अपने बच्चों को शिक्षा ना दे कि मेरे गांव में स्कूल नहीं है, स्कूल बहुत दूर है, सभी बच्चे शिक्षा ग्रहण करें, इसीलिए या योजना चलाई गई है।
समुदाय और शिक्षा:
भील और गरासिया समुदाय पूरा आदिवासी समुदाय है और जब उनसे मिलकर बात की तो ये पता चला कि उनके जो बच्चे
स्कूल में पढ रहे हैं वो सब पहली पीढी के हैं। जो पढने के लिए स्कूल जा रहे
हैं और
इनका जीवनयापन रोज मजदूरी करने से होता है। ये पहाड़ों के नीचे गाय, बकरी चराते हैं या तो खेतों में काम करते हैं। इस
कम्युनिटी के बहुत सारे लोग वैसे थे जो कि घर में शराब बनाने का काम करते थे।
भील और गरासिया समुदाय के लोग मौसम
के अनुसार स्थानान्तरित हो जाते थे।
क्योंकि जब राजस्थान में बारिश नहीं होती है तो उन्हें जीवनयापन करने में बहुत
दिक्कतें होती हैं। उनका खेती करके घर चलता है इसलिए वो पास के राज्य गुजरात
में खेत में काम करने चले जाते हैं और जब जाते हैं तो अपने साथ अपने बच्चे और पूरे
परिवार को साथ में ले कर जाते हैं।
इस कारण बच्चे को स्कूल छोड़ना पड़ता
है और उसका बहुत बुरा प्रभाव बच्चों की शिक्षा पर पड़ता है। बहुत से बच्चे इसके
कारण भी आगे नही पढ पाते हैं।
जैसा कि हमने ISSI के
कोर्स में पढ़ा कि बच्चे अपने माँ बाप के साथ काम की वजह से माइग्रेट हो जाते हैं
और जिससे उनकी पढाई पर बहुत फर्क
पड़ता है।
भील और गरासिया कम्युनिटी के लोगों की
आर्थिक स्थिति दयनीय होती है। उनके
परिवार की संख्या ज्यादा होती है और उनके घर में काम करने वाले एक व्यक्ति हों और उनके बच्चे स्कूल में
पढ़ते हैं तो अभिभावक अपने बच्चों को अपने साथ खेतों में काम करने या गाय को चराने
के लिए बच्चों को ही भेज देते हैं। बच्चे बहुत कम उम्र में बाल मजदूरी करते
हैं। बच्चे कमाना शुरू करते हैं, अपने
आर्थिक स्थिति के कारण स्कूल
जाना बंद कर देते हैं और यदि वह स्कूल जाना बंद कर देते हैं तो उनकी शिक्षा वहीं
पर रुक जाती है।
जब मैं निचलागढ़ आदिवासी समुदाय
गई और वहाँ पर मैंने नरसाराम जी जो कि “दूसरा दशक संस्था” में काम
करते हैं उनसे मिली। दूसरा दशक बच्चों को स्कूल से जोड़ने का काम करती है, जैसे कोई बच्चा आगे नहीं पढ पाता है तो यह बच्चों को शिक्षा को
लेकर प्रोत्साहित और जागरूक करते हैं। ताकि वह शिक्षा से जुड़ पाए, फिर बच्चे को
स्कूल से जोड़ती हैं और समाज के लोगों में जो अंधविश्वास है उसको जागरूक करती है। ताकि वह किसी अंधविश्वास का शिकार न हो पाए
जैसे- बकरा बलि, घर में कोई बीमार है तो हमें बकरे की
बलि देनी है और जब तक जो बीमार सदस्य
हैं वह ठीक ना हो जाए तब तक बलि देते ही रहना है। जिसके कारण जिनकी आर्थिक स्थिति
कमजोर रहती है, वह इंसान बकरे की बलि देते रहता है और जिससे उनकी आर्थिक स्थिति और ज्यादा कमजोर हो जाती है। तो ऐसे ही और भी कई अंधविश्वास हैं उसे कम करने के लिए वहाँ के लोगो
के साथ मिलकर काम करती है।
मेरा एक अनुभव सबसे अलग था। मैंने भारतीय
स्कूलों तक पहुंच, विविधता
और सहभागिता में पढा है और हमने अनुभव भी किया है कि ज्यादातर
स्कूल में लड़कियों की संख्या बहुत कम रहती है और लड़के ज्यादा संख्या में स्कूल
में रहते हैं। लेकिन यहाँ पर पूरा विपरीत ही रहा कि यहाँ लड़कियों की संख्या
बहुत ज्यादा थी। क्योंकि वहाँ पर जो लड़के होते हैं वह बहुत कम उम्र में अपने
अभिभावक की मदद के लिए खेतों में काम करने या नरेगा में काम करने के लिए चले जाते
हैं और लड़कियाँ घर पर रहती हैं एक कारण यह भी है।
जैसे कि हमने sociology में जेंडर स्ट्रेटिफिकेशन और इनिक्वालिटीज में
पढा है कि लडकियों और महिलाओं के साथ भेदभाव किया जाता है। लेकिन
यहाँ मैंने कुछ और ही देखा, आदिवासी कम्युनिटी में लड़कियों
को लेकर कोई भेदभाव नहीं होता हैं ये मुझे उनसे बात करते पता चला कि लड़कियों के पास ये अवसर होता है कि उन्हें कब
शादी करनी है? और कितनी कक्षा तक पढ़ना है? क्योंकि उनके अभिभावकों को ये टेंशन
नहीं रहती है कि मुझे अपनी बेटी की शादी करनी है। वहाँ की लड़कियाँ अपने पसंद के
लड़कों से शादी कर सकती हैं, उनसे कोई दहेज नहीं लिया जाता, इसलिए वहाँ की लड़कियाँ
स्वतंत्र महसूस करती हैं।
सीख:
- मैंने सीखा कि जब हम समुदाय में जाएँ तो
अपनी बातचीत करने का तरीका क्या हो सकता है? हम उनसे ही उनकी भाषा में कैसे अपनी बातो को समझा सकते
हैं?
- हम किसी भी स्तर के बच्चों को लाइब्रेरी से
कैसे जोड़ सकते हैं?
- बच्चे अपनी स्थानीय भाषा के साथ जुड़कर पढते
हैं तो वो आसानी से सीखते हैं।
निष्कर्ष:
मैं बच्चों के बारे में जो भी जानती
थी कि एक बच्चा कैसे धीरे-धीरे अपनी उम्र के अनुसार सीखता है। उसको फील्ड में जा
कर देख पाए कि हर उम्र के समूह के बच्चों के सीखने का तरीका क्या है? ये जानती थी कि बच्चे गतिविधि के
माध्यम से जल्दी सीखते हैं तो मैंने जोडफली स्कूल में ये देखा और अनुभव भी किया कि
सच में बच्चे खेल के माध्यम से ज्यादा सीखते हैं।
एक स्कूल प्रणाली कैसे कार्य करती है, स्कूल को चलाने के लिए क्या-क्या चीजें अहम भूमिका निभाती हैं, ये अनुभव कर पायी। समुदाय, शिक्षा के लिए कितना जरुरी और महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है इसे फील्ड में जा कर देख पायी।
राजमणि कुमारी
अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी, भोपाल
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