Thursday, January 18, 2024

Reflection of Book कर्ट वॉनेगट

कर्ट वॉनेगट, अमेरिकी लेखक थे। अपने 50 वर्ष के जीवन में उन्होंने 14 किताबें लिखी। विश्व युद्ध द्वितीय में इन्हें जर्मन सेना द्वारा हिरासत में ले लिया गया था और यातनागृह में डाल दिया गया था। इस अनुभव का इनके जीवन और लेखनी पर गहरा प्रभाव पड़ा। इनकी सबसे महत्वपूर्ण किताब Slaughterhouse Five जो युद्ध के खिलाफ थी, वियतनाम युद्ध के दौरान युद्ध विरोधी आंदोलनकारियों के बीच काफी लोकप्रिय हुई। आज, इनके द्वारा ज़ेवियर हाई स्कूल के विद्यार्थियों को लिखी एक चिट्ठी आपके साथ साझा कर रहा हूँ। 

Make your soul grow- अपनी आत्मा का विकास करें (कर्ट वॉनेगट)

नवंबर 5, 2006 

प्रिय ज़ेवियर हाई स्कूल के विद्यार्थियों और प्रिन्सपल मिस लोककवूड एवं अन्य शिक्षकों।  आपकी चिट्ठियों ने 84 वर्षीय एक बुजुर्ग व्यक्ति मे जोश भर दिया। 

बच्चों, मैं आज आपको जो कहने जा रहा हूँ वो बहुत समय नहीं लेगा। किसी भी तरह के आर्ट का अभ्यास करें चाहे वो नाचना हो या फिर लिखना, या फिर पेंटिंग, या संगीत, या नाटक, मूर्ति बनाना या कुछ और।

फर्क नहीं पड़ता आप इसे कितने अच्छे से कर रहें हैं, महत्वपूर्ण है कि आप इसे बार-बार कर रहे हैं। यह भी ध्यान हो कि आप यह पैसे कमाने के लिए नहीं कर रहे, पर इसलिए क्योंकि आप स्वयं को कुछ नया बनते, अनुभव करना चाहते हैं, आप पहचानना चाहते हैं कि आपके अंदर क्या है? जो छुपा था अब तक!  

इसलिए क्योंकि आप अपनी आत्मा का विकास करना चाहते हैं।

मैं बहुत गंभीर हूँ, जब मैं यह कहता हूँ कि आप आज से ही एक कला का अभ्यास शुरू करें। आप अपनी प्रिन्सपल मिस लोककवूड की तस्वीर बनाने के अभ्यास से शुरू कर सकते हैं। आप इसे बनाएं और उन्हें दें। स्कूल से वापस नाचते हुए जाएँ और नहाते समय जोर-जोर से गायें। आलुओ मे अपनी तस्वीर बनाएं, सोचें कि आप एक बहुत अछे पेंटर है। 

चलिए, आज के लिए आपसे एक होमवर्क साझा करता हूँ, और आशा करता हूँ कि प्रिन्सपल मिस लोककवूड आपको दंड दे अगर आपने यह नहीं किया।

एक 6 लाइन की कविता बनाएं- बस ध्यान रहे इस कविता को rhyme करना चाहिए।

जैसे- एक आलू है बड़ा,

ठेले किनारे यूं तना खड़ा।

शर्त है कि आप इसे जोर-जोर से गायें, किसी को इसे दिखाने की जरूरत नहीं। न तो अपने माता-पिता को न भाई-बहन और न ही किसी साथी को। एक बार जब आप जोर-जोर से इसे गा लें तो जिस कागज पर यह कविता लिखी हो उसे छोटे-छोटे टुकड़ों मे फाड़ हवा मे उड़ा दें। मेरा विश्वास है कि आप स्वयं को कुछ नया बनते अनुभव करेंगे, आप जान सकेंगे कि आपके अंदर क्या क्षमता है और आप अपनी आत्मा का विकास होते देखेंगे।

मेरे एक चाचा थे, जिन्हें लोगों के बारे मे एक बात पसंद न थी। उनका कहना था कि हम शायद ही कभी रुक कर यह ध्यान देते हैं कि इस पल, इस क्षण मे मैं खुश हूँ। इसलिए कभी-कभी जब हम परिवार के साथ बैठ मजे से खा-पी रहे होते थे और एक अच्छा समय बीता रहा होता है, तो वो हमें रोक कर कहते  रुको, और ध्यान दो कि अगर यह अच्छा नहीं है तो फिर क्या है जिसे अच्छा कह सकते हैं?”

और वह यह हमेशा करते थे। मुझे विश्वास है कि आप भी यह करेंगे और जब भी कभी ऐसे मौके आए जब आप खुश है तो आप रुक कर उस पल को जरूर जियेंगे।  

एक बार आप सभी सोचें, आपके पूरे शिक्षण अनुभवों मे चाहे वो विद्यालय रहा हो या कॉलेज या कोई और जगह, जब आपको कोई एक शिक्षक मिले हो, जिन्होंने आपको इस जीवन के लिए गर्व महसूस करने का मौका दिया हो। जिन्होंने आपको अनेकों खुशियों के मौके दिए हों। जिन्होंने आपको अपने ऊपर विश्वास करने का मौका दिया हो। उस शिक्षक का ध्यान करें और उनका नाम जोर से बोलें। अब सोचें  अगर यह अच्छा नहीं है तो फिर क्या है जिसे अच्छा कह सकते हैं?”

श्रवण

टीम सदस्य

तोत्तो-चान से दोबारा मुलाकात- पुस्तक सारांश

साथियों, इस महीने की शुरुआत में मैंने अपने लिए तोत्तो-चान किताब पढने का लक्ष्य रखा था। हमने जबसे फेलोशिप यात्रा की शुरुआत की है, तबसे ही तोत्तो-चान पढना एडू-लीडर्स के लिए एक महत्वपूर्ण अनुभव रहा है। इस बार मैंने सोचा कि फिर से इस किताब को पढूँ। तोत्तो-चान द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत में जापान की कहानी है। यह एक वास्तविक आत्म कथा है। 

तोत्तो-चान एक ऐसी बच्ची है, जिसे उसकी उत्सुकता के कारण विद्यालय से निकाल दिया गया और अब वो एक नए विद्यालय तोंमोए मे दाखिल हुई। देखने में इस विद्यालय का नाम अर्धविराम के चिन्ह सा दिखता था, जिसका जापानी मतलब शरीर व मस्तिष्क का समान विकास होता है। 

अपने परिवार की इकलौती बच्ची तोत्तो-चान के माता-पिता एक बेटा चाहते थे, और तोत्तो-चान का उसका असली नाम भी तेतसूकों-चान था, जहाँ चान किसी भी लड़की के नाम से जुड़ा होता था। पर तोत्तो को तेतसूकों चान सुनने मे तोत्तो चान ही लगता था, और वो सबको अपना नाम यही बताती। 

तोत्तो-चान के विद्यालय  तोंमोए में पढने और पढाने का ढंग निराला था। कक्षाएं रेल की बोगी सी थी और हर समय के अनेकों गीत थे। जिसमें कुछ पहाड़ से कुछ समुद्र से जाते समय गाया जाने वाला गीत भी था।

सुनने मे तो यह गीत सा लगता है, पर यह बच्चों को पहाड़ और समुद्र से मिलने वाले पौष्टिक खाने की ओर ले जाता था। मुझे तो यह किताब पढ कर बहुत मजा आया। साथ ही मैं इस कहानी में छुपी एक मुख्य बात से भी खुद को जोड़ पाया जो इस बात पर जोर देती है कि बच्चों की क्षमताओं पर यकीन करना बहुत जरूरी है। 
 

इस किताब की अनेकों अंश मुझे बहुत अच्छे लगे, और मैं इसे पढते समय इनके नाम लिखता गया। विद्यालय से निकाला जाना, डिब्बे वाला विद्यालय, पढाने का तरीका, सैर... यह लिखते-लिखते लिस्ट लंबी होती गई। इनमें से एक अनुभव को वापस डालना मुझे सबसे ज्यादा पसंद आया। 

कहानी कुछ ऐसी है जो हम सभी ने अनुभव की है। तोत्तो-चान का बटुआ नाले मे गिर जाता है। वो इस बटुए को ढूँढने के लिए नाले मे एक लकड़ी की मदद से सारा कचरा निकालना शुरू कर देती है। उसके पास कचरे का एक बड़ा ढेर लग जाता है। कुछ देर मे प्रिन्सपल सोशकू उधर से गुजरते हैं। अपने जीवन मे जब हम छोटे थे हमेशा बड़ों से "यह सही नहीं, वो सही" कहते सुना। 

और जब खुद बड़े हुए, खुद को भी बच्चों को "यह सही नहीं, वो सही" कहने से रोक न पाने की आदत से लड़ते पाया। पर इस विद्यालय में यही तो अलग था। 

प्रिन्सपल सोशकू ने तोत्तो-चान से यह सब नहीं कहा। उन्होंने न तोत्तो-चान को टोका, न गंदे नाले से जूझते देख डाँटा। उन्होंने सिर्फ एक बात कही "जब तुम्हारा काम खत्म हो जाएगा तो तुम वापस से यह कचरा नाले मे डाल दोगी ना!" 

यह कह वो आगे बढ गए। तोत्तो-चान को पहली बार लगा कि किसी बड़े ने उसपर इतना भरोसा किया है। उसने पूरी मेहनत से अपना बटुआ ढूंढा पर वो न मिला। अंत मे उसने जैसा वादा किया था वही किया और पूरा कचरा वापस से नाले मे डाल दिया। 

यह अनुभव बहुत महत्वपूर्ण है। यह एक सीख देता है कि हमें बच्चों और उनके प्रयासों के आकलन से परे हट उनपर विश्वास दिखाना चाहिए। मैं आप सभी साथियों को भी यह किताब पढने का और तोतो-चान से जुड़ने के लिए आग्रह करता हूँ।  इसे पढ़ें और अपनी पसंद की कोई एक कहानी हमसे साझा करें।

श्रवण 
टीम सदस्य 

सावित्रीबाई फुले, जिन्होंने भारत में पहली बार स्त्रियों के लिए विद्यालय खोला

सावित्रीबाई फुले का जन्म महाराष्ट्र के सतारा जिले में 3 जनवरी 1831 को हुआ था। इनके पिता जी का नाम खन्दोजी नेवसे और माता जी का नाम लक्ष्मी था। सावित्रीबाई फुले का विवाह 9 साल की उम्र में ज्योतिराव फुले से हो गया था। सावित्रीबाई बचपन से ही गलत के खिलाफ अपनी आवाज उठाती रहती थीं, उनको पढ़ने-लिखने का भी शौक था। इसी लगन को देखते हुए ज्योतिराव फुले ने उनको आगे पढ़ने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर महिलाओं के अधिकार एवं शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किए, साथ ही में उनको मराठी काव्य का अग्रदूत भी माना जाता है।

आपको जानकर आश्चर्य होगा कि सावित्रीबाई फुले ने जनवरी 1848 को महाराष्ट्र के पुणे जिले में लड़कियों के लिए देश के पहले बालिका स्कूल की स्थापना की। यह बड़ा काम इसलिए था क्योंकि उस दौर में लड़कियों के लिए स्कूल खोलना इतना आसान नहीं था।

 

सावित्रीबाई और उनके पति के इस काम को समाज के लोगों ने अच्छा नहीं समझा और जमकर विरोध किया, जो उस वक्त लड़कियों की शिक्षा के खिलाफ थे। जब सावित्रीबाई स्कूल जाती थीं तो लोग उनको पत्थर से मारते थे, उन पर गंदगी फेंकते थे।

 

सावित्रीबाई एक साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थी और स्कूल पहुंच कर गंदी हुई साड़ी बदल लेती थी। उन्होंने समाज के बहुत ताने भी सुने।

 

उनके पहले स्कूल में विभिन्न जातियों की नौ छात्राओं का नामांकन था। एक वर्ष में सावित्रीबाई और महात्मा फुले पांच नये विद्यालय खोलने में सफल हुए। तत्कालीन सरकार ने इन्हे सम्मानित भी किया। एक महिला प्रिंसिपल के लिये सन् 1848 में बालिका विद्यालय चलाना कितना मुश्किल रहा होगा, इसकी कल्पना शायद आज भी नहीं की जा सकती।

 

आज से 175 साल पहले बालिकाओं के लिये जब स्कूल खोलना पाप का काम माना जाता था, आप सोच कर देखिये कि कितनी सामाजिक मुश्किलों से खोला गया होगा- देश में एक अकेला बालिका विद्यालय

 

लेकिन वह उन चीजों से कभी नहीं रुकीं और उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर लड़कियों के लिए 18 स्कूल खोले और अठारहवां स्कूल भी पुणे में खोला गया।


जब लोगों को लगा कि इन सब चीजों से वह रुकने वाली नहीं हैं तो तब ज्योतिराव के पिता गोविंदराव पर यह कहकर दबाव डाला गया कि ज्योतिराव और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले धर्म के खिलाफ काम कर रहे हैं और इससे उनका सामाजिक बहिष्कार किया जा सकता है।

तब ज्योतिराव के पिता ने दोनों को समझाने की कोशिश की लेकिन जब वह नहीं माने तो उन दोनों को घर से निकाल दिया। इसके बाद भी समाज की उन्नति और लड़कियों को पढ़ाने का कार्य उन्होंने नहीं छोड़ा।


फुले दंपति ने महिलाओं को आगे बढ़ाने के लिए कई सराहनीय कार्य किए। उस समय विधवा महिलाओं के सिर मुंडवा दिए जाते थे, गर्भवती विधवा महिलाओं का समाज से बहिष्कार कर दिया जाता था।

बाल विवाह, सती प्रथा, छुआ छूत, दलित उत्थान और न जाने कितनी सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ दोनों पति पत्नी लड़े और महिलाओं के लिए कई कार्य किए। ज्योतिबा और सावित्रीबाई ने गर्भवती महिलाओं के लिए बालहत्या प्रतिबंधक गृह भी खोला। यह ऐसी गर्भवती महिलाओं का घर था, जिनको समाज में प्रताड़ित किया जाता था। यहां बच्चों को शिक्षा और उज्जवल भविष्य दिया जाता था।

 

एक बार सावित्रीबाई ने आत्महत्या करने जा रही एक विधवा महिला काशीबाई को रोका और उससे वादा किया कि बच्चा होने के बाद वह उस बच्चे को अपना नाम देंगे। जब महिला ने उस बच्चे को जन्म दिया तो फुले दंपति ने बच्चे को अपना नाम (यशवंतराव फुले) देकर परवरिश की और पढ़ा-लिखाकर डॉक्टर बनाया।

 

विद्या को श्रेष्ठ धन बताते हुए सावित्रीबाई अपने काव्य में कहती हैं-

विद्या ही सर्वश्रेष्ठ धन है

सभी धन-दौलत से

जिसके पास है ज्ञान का भंडार

है वो ज्ञानी जनता की नज़रो में

अपने एक अन्य बालगीत में बच्चों को समय का सदुपयोग करने की प्रेरणा देते हुए कहती है-

काम जो आज करना है, उसे करें तत्काल

दोपहर में जो कार्य करना है, उसे अभी कर लो

पल भर के बाद का सारा कार्य इसी पल कर लो

काम पूरा हुआ या नहीं

न पूछे मौत आने से पूर्व कभी

 

आप इस लेख में चॉइस एंड वौइस् को कैसे देख पा रहें है? क्लस्टर मीटिंग में 5 मिनट का समय निकालकर इस पर चर्चा करें और अपने साथियों के विचार सुने।

 

प्रियंका कौशिक

टीम, i-सक्षम

हिन्दी वर्तनी से संबंधित ध्यान देने योग्य बिंदु

बिंदु और चंद्रबिंदु में अंतर और इनका प्रयोग

हिंदी भाषा सरलतम भाषाओं में से एक है, परन्तु इसके कुछ पहलुओं को लेकर हमारे मन में दुविधा की स्थिति बनी रहती है। ऐसी ही दुविधा का विषय है ये प्रश्न कि आखिर शब्द में कहाँ बिंदु लगेगा और कहाँ चंद्रबिंदु? जैसे- ‘हंस’ और ‘हँस’ में बिंदु के प्रयोग से अर्थ ही बदल गया है।

आमतौर पर इसे बिंदु और चंद्रबिंदु कहते हैं, लेकिन व्याकरण की भाषा में इसे अनुस्वार और अनुनासिक कहा जाता है। इस लेख के माध्यम से आज हम कुछ आसान उपायों से यह समझने की कोशिश करेंगे कि कहाँ अनुस्वार या बिंदु का प्रयोग होता है और कहाँ अनुनासिक यानी चंद्रबिंदु का।

अनुस्वार या बिंदु

अनुस्वार जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, अनुस्वार स्वर का अनुसरण करने वाला व्यंजन। इसके उच्चारण के समय नाक का उपयोग होता है। उच्चारण के समय वो व्यंजन वर्ण उच्चारित होता है, जो अनुस्वार या बिंदु की तरह लिखा गया हो। अनुस्वार को समझने के लिए हमें सबसे पहले हिंदी वर्णमाला के वर्ग को समझना होगा। हिंदी वर्णमाला के पांच वर्ग हैं और प्रत्येक वर्ग के पांचवें वर्णों के समूह को ‘पंचमाक्षर' कहते हैं (पञ्चमाक्षर = पञ्चम अक्षर = पाँचवाँ अक्षर)

इस प्रकार क वर्ग, च वर्ग, ट वर्ग, त वर्ग और प वर्ग के पाँचवे वर्ण को पंचमाक्षर कहा जाता है जो क्रमशः ङ, , , न तथा म हैं।

·       कवर्ग के साथ (ङ) अङ्क = अंक, अङ्ग = अंग; दिनाङ्क = दिनांक;

·       च-वर्ग के साथ (ञ) पञ्च = पंच, झञ्झट = झंझट;

·       ट-वर्ग के साथ (ण) घण्टा = घंटा, कण्ठ = कंठ, मण्डी = मंडी;

·       त-वर्ग के साथ (न्) हिन्दी = हिंदी, अन्धा = अंधा, किष्किन्धा = किष्किंधा;

·       प-वर्ग के साथ (म्) कम्पन = कंपन, अम्बा = अंबा, आरम्भ = आरंभ;

नोट-

1. अनुस्वार के बाद आने वाला वर्ण, क वर्ग, च वर्ग, ट वर्ग, त वर्ग और प वर्ग में जिस वर्ग से संबंधित होता है अनुस्वार उसी वर्ग के पंचम वर्ण के लिए प्रयुक्त होता है।

जैसे- कंधा शब्द में के ऊपर लगा है और उसके बाद है- , जो कि त वर्ग में आने वाला अक्षर है। इसलिए जब हम कंधा शब्द को पंचम वर्ण के साथ लिखना चाहें तो वहां त वर्ग के लिए पंचम वर्ण यानी ‘न’ का प्रयोग होगा और उसे लिखा जाएगा- "कन्धा"

इसी तरह अगर शब्द हो मंगल को अनुस्वार के ऊपर और उसके बाद आ रहा है ग, जो कि क वर्ग का अक्षर है, तो जब इसे पंचम अक्षर के साथ लिखना होगा तब क वर्ग का पांचवां वर्ण यानी '' का प्रयोग होगा और उसे लिखा जाएगा 'ङ्ग'

2. यदि पंचम वर्ण के बाद किसी दूसरे वर्ग का कोई पंचम वर्ण आए तो अनुस्वार नहीं लगेगा, बल्कि पंचम वर्ण ही लगता है।

जैसे- वाड़्मय को वांमय, तन्मय को तंमय, उन्मुख को उंमुख नहीं लिखा जा सकता।

3. इसी तरह अगर कोई पंचम वर्ण किसी शब्द में तुरंत ही दोबारा आ रहा हो तो भी अनुस्वार का प्रयोग नहीं होगा। जैसे- चम्मच को चंमच, उन्नति को उंनति, अक्षुण्ण को अक्षुंण नहीं लिखा जा सकता।

जैसे—वाङ्मय, जन्म, निम्न, मृण्मय आदि।

4. अनुस्वार के बाद अगर , ,,,,ष,स, वर्ण आते हैं यानी कि ऐसे वर्ण जो किसी वर्ग में शामिल नही हैं तो अनुस्वार को बिंदु के रूप में ही प्रयोग किया जाता है और उसे किसी वर्ण में नहीं बदला जाता।

जैसे- संयम, संशय, संरक्षण, संवाद और संसार। यहां अनुस्वार के बाद य अक्षर है, जो किसी वर्ग के अंतर्गत नहीं आता इसलिए यहां बिंदु ही लगेगा।

5. व्याकरण के अनुसार यदि किसी शब्द में दो अर्द्ध-अनुनासिक लगातार आ रहे हों, तो उसमें एक के लिए बिंदु और दूसरे के लिए अर्द्धवर्ण का उपयोग व्याकरण सम्मत नहीं है। व्याकरण कहता है कि दोनों नासिक्य को वर्ण रूप में ही लिखेंगे, मात्रा रूप में नहीं। इसी नियम के तहत ‘संबन्ध’ या ‘सम्बंध’ लिखना अशुद्ध है, इसे या तो ‘संबंध’ लिखेंगे या ‘सम्बन्ध’। वैसे ही ‘पञ्चाङ्ग’ या ‘पंचांग’ लिखना शुद्ध है।

दोस्तों के समूह में चर्चा योग्य:

1.       क्या हां, यहां, वहां, चांद, पांच, हूं, गांव आदि शब्द सही हैं? या हाँ, यहाँ, वहाँ, चाँद, पाँच, हूँ, गाँव सही हैं?

2.       हिन्दी वर्तनी में सन्यासी, संन्यासी और सन्न्यासी में से कौन सा शुद्ध रूप है?

प्रियङ्का कौशिक
टीम, i-सक्षम

कक्षा में Voice & Choice का उपयोग और Empathy पर सेशन

 नमस्ते साथियों, 

मैं आपके साथ आज के सेशन का अनुभव साझा करना चाहती हूँ। आज के सेशन में मैंने बहुत कुछ सीखा और उनमे से कुछ बातें, मैं आपके साथ साझा करना चाहूँगी। मैं कोशिश करूँगीं कि इन बातों को अपने जीवन में अपनाऊं और अपने विद्यालय और क्लासरूम में भी प्रैक्टिस कराऊँ।

आज के सेशन की शुरुआत माइंडफुलनेस से हुई, जो कि मुस्कान दीदी ने कराया। बहुत ही मीठी आवाज़ के साथ, 1 से 4 तक की गिनती के साथ अपनी साँसों को भरना और छोड़ना था। इस गतिविधि को करके हमारा पूरा ध्यान सेशन में केन्द्रित हो गया। उसके बाद हमने नेहा की कहानी को पढ कर Empathy को समझा। आज हमने यह भी सीखा किम कैसे बच्चो को उनके स्तर के अनुसार पढ़ा सकते हैं?

हमने आज फिर से समूह में काम किया और इस बात पर समझ बनायी कि हम कक्षा में Voice & Choice का उपयोग करें। शिक्षक और बच्चो को किस तरह साथ लेकर काम करें?

आज का मेरा अनुभव लंच के बाद की गतिविधि को लेकर थोडा कम अच्छा रहा। हालाँकि गतिविधि काफी मजेदार थी लेकिन गतिविधि करते समय हुए शोर के कारण हमारे ऑफिस के पडोसी को थोड़ी परेशानी हुई।

मैं, स्वयं से और अपने साथियों से आशा करती हूँ कि अगले सेशन में हम ऐसा नहीं करेंगे।

रश्मि
बैच- 10 (B), मुँगेर

क्या अच्छा रहा और क्या और अच्छा हो सकता था?

 नमस्ते साथियों, 

मैं आप सभी के साथ 7 दिसंबर को बैच- 10 A के साथ हुए सेशन का अनुभव साझा करना चाहती हूँ।

मैं इस सेशन की modelling तो नहीं कर पाई थी लेकिन सेशन में शामिल थी। इस बार सेशन को श्रवण सर और सुजाता दीदी

फैसिलिटेट कर रहे थे। इस सेशन में कुछ अलग था- वॉइस और चॉइस से जुड़ी एक एडू-लीडर नेहा की स्टोरी थी। 


सेशन में जो अच्छा रहा- 

इस बार ज्यादातर एडू-लीडर्स पार्टिसिपेट कर पाए थे। 

जिन एडू-लीडर्स को जो भी टॉपिक सेशन में प्रेजेंट करने को मिला, उन्होंने काफी कॉन्फिडेंस साथ करवाया। 

एक बात यह भी थी कि नेहा की स्टोरी को empathy के द्वारा वॉइस और चॉइस से किस तरह जुड़ी है, उसे एडूलीडर अपने आप से जोड़ पाई और अपनी बातों को रख पा रहे थी। सेशन समय से शुरु और ख़त्म भी हुआ।

सेशन में जो अच्छा हो सकता था-

कुछ एडू-लीडर्स काफी देर से सेशन में जुड़ीं। वो समय से आ पाती, तो उनकी समझ नेहा की स्टोरी पर और बेहतर बन पाती। 

दूसरा ये कि दो और एडु- लीडर्स को सेशन में लीड करने का मौका दिया गया था लेकिन वो लीड नहीं कर पायीं।  

उस दिन सेशन में प्रियंका दी आयी थी, उनसे मिलकर भी बहुत  अच्छा लगा। उनकी बातें और उनका सभी से अनुभव जानना, काफी अच्छा लग रहा था। सेशन से मुझे जो भी फीडबैक मिला, उसे मैं कैसे सुधार कर सकती हूँ, ये मेरे लिए लर्निंग रही।

अगले सेशन को बेहतर करने की बात करें तो सेशन में जिन एडू-लीडर्स को लीड करने का मौका दिया जायेगा उन्हें सेशन से पहले ऑफलाइन modelling करने का  कम-से-कम 20 मिनट समय होगा ताकि एडू-लीडर्स सेशन में अच्छे से लीड कर पाएँ।

रोख्सार अफरोज़
टीम सदस्य, गया



मुझे लग रहा था कि मुझे कुछ आता ही नहीं है!

नमस्ते साथियों, 

मैं +2 उत्क्रमित उच्च विद्यालय बैताल का अनुभव साझा करना चाहती हूँ। आज का अनुभव मेरे लिए बहुत ही लर्निंगफुल रहा क्योंकि आज मेरे विद्यालय में कोमल दीदी आयी हुई थी।

आज भी मैं हर रोज की तरह अपने विद्यालय, समय से पहुँची। प्रिंसिपल सर के कहने पर मैंने असेंबली का संबोधन किया। प्रिंसिपल सर ने “भाग्य बड़ा है या कर्म” पर एक कहानी के माध्यम से अपने विचार रखे, जिससे सभी को सीखने को मिला और मुझे बहुत ख़ुशी हुई।

असेंबली पूरी होने के बाद सभी बच्चे पंक्तिबद्ध तरीके से अपनी-अपनी कक्षा में गए। अटेंडेंस प्रक्रिया के बाद कोमल दीदी आयी। वैसे तो मैं कक्षा को अच्छे से डील (deal) कर लेती हूँ। परन्तु आज मुझे थोड़ी टेंशन हो रही थी। टेंशन के कारण समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूँ और क्या ना करूँ? 


ऐसा भी लग रहा था कि मुझे कुछ आता ही नहीं है!
लेकिन फिर भी कोशिश कर रही थी। पर कुछ हो ही नहीं रहा था।
मुझे बहुत खराब महसूस हो रहा था। 

फिर कोमल दीदी ने वर्ण समूह पद्धति के माध्यम से मॉडलिंग करके बताया। जिससे मुझे बहुत अच्छा लगा और मैं भी सीख पायी। कुछ देर बाद कोमल दीदी, वर्षा की कक्षा में गयी तो हमने बच्चो का क्लासवर्क (classwork) चेक किया और इतने में ही घर आने का समय हो गया।

टिंकी 
बैच-10, गया 

मैं विद्यालय में 3 बजे तक रुकी

 प्रिय दोस्तों,

मैं आप सभी के साथ स्कूल का अनुभव साझा करना चाहती हूँ। आज मेरे स्कूल में बहुत ही कम शिक्षक आये थे। या यूँ कहूँ कि एक ही शिक्षक आये थे। जिसके कारण हमें आज काफी चुनौतियों का सामना करना पड़ा।

आज अकेले 1,2,3 और पाँचवी कक्षा के विद्यार्थियों को, मुझे ही पढाना पड़ा। सब बच्चे बोलने लगे कि आज हम दीदी से ही पढेंगें। सब बच्चे मेरे पास आ गये, इसलिए मैं उन सब को मना नहीं कर पायी।

पहले तो मैडिटेशन  करवाये। इसके बाद मॉर्निंग सर्कल किये। फिर होम वर्क चेक किया और सभो बच्चो को होम वर्क भी दिया। फिर उन सभी की रुचि के अनुसार हिन्दी पठन कराये। एकल स्तर कर के कुछ जो बच्चे आगे नही आते थे पर आज खुद आगे आये। आज मेरे स्कूल में मेरी बडी, स्वाति दीदी भी आयी थी। उन्होंने भी आज बच्चो को बाल गीत कराया, जिससे कि सारे बच्चे जुड़ पाए और समझ भी बन पाए। 

बालगीत करने के बाद सभी अपने-अपने स्तर के अनुसार ग्रुप में बैठे और कॉपी में लेख, वाक्य, शब्द लिखे। सारे बच्चे एक-दूसरे की कॉपी जाँच भी कर रहे थे और हेल्प भी कर रहे थे।

स्वाति दीदी और हमें यह सब देख कर बहुत खुशी हुई। लंच के बाद दीदी के साथ हमने डीब्रीफ किया। आज मैं 3 बजे तक विद्यालय में रुकी क्योंकि प्रधानाध्यापिका ने बोला था कि आज हम अकेले हैं। 
आज भी रुक जाओ न? तो हम रुक गए।

लंच के बच्चो को सँभालने में हमें थोड़ी समस्या तो हो रही थी। हमने ड्राइंग और गतिविधि का सहारा लिया। परन्तु बच्चो की संख्या बहुत अधिक थी। अंत तक हम बच्चो को सँभालते-सँभालते काफी थक गए थे।

रूमाना परवीन
बैच-10, गया

राजस्थान के Field Practice का विवरण

नमस्ते दोस्तों

मैं आप सभी के साथ अपना राजस्थान के अबू रोड, सिरोही के फील्ड  प्रैक्टिस का अनुभव साझा कर रही हूँ। 

परिचय:

फील्ड प्रैक्टिस का  स्थान सिरोही  जिले का अबु रोड था और मैंने दो शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय और एक शासकीय प्राथमिक सरकारी विद्यालय का दौरा किया  और शिक्षकों, मुख्य शिक्षकों, बच्चों और अभिभावकों से बातचीत की। मैंने उनके काम और चुनौतियों के बारे में जाना, शिक्षकों की शिक्षण विधियों का अवलोकन किया और शिक्षा पर उनके विचारों को समझने के लिए बातचीत की। 

प्रत्येक स्कूल में सामान्य कारक शिक्षक की आवश्यकता और शिक्षक को शिक्षण के अलावा अन्य कार्यों में भी शामिल करना। हमारा उद्देश्य था कि सरकारी स्कूलों में शिक्षण-अधिगम माहौल का निरीक्षण करना और शिक्षा प्रणाली में शिक्षक का  रवैया, शिक्षक के पढ़ाने का तरीका, एजुकेशन के लिए किस-किस तरीके के योजनायें काम करती हैंस्कूल का भौतिक  वातावरण के बारे में जाने

समुदाय के लोगो से मिलना और समझ बनाना कि वो शिक्षा को किस तरीके से देखते हैं और स्कूल और समुदाय के लोगो का एक-दूसरे के साथ रिश्ता कैसा है और उनके कार्यों को समझना था। इसके अलावा हमने उन संस्थाओं के टीम  से मुलाकात की  और बात किया  जो स्कूल और समुदाय के लिए शिक्षा पर काम करती हैं जैसे प्रदान, दूसरा दशक- जो स्कूल और समुदाय के बच्चे के शिक्षा और और जागरूकता पर काम करती है। हम, डमरो की फली में भील आदिवासी और भाकर में गरासिया आदिवासी के लोगो से मिले।

हम अबु रोड  के जिन  स्कूल और समुदाय में गये थे वहाँ ग्रासिया और भील समुदाय के लोग रहते थे। जिसमें अधिकांश लोग खेती और  नरेगा से जुड़े हैं और उनके व्यवसाय हैं जैसे सब्जियां बेचना, गाय को पहाड़ो के बीच चराने जाना और नरेगा में मजदूरी, और भी बहुत कुछ। यह क्षेत्र हरा-भरा और पहाड़ो के बीच में है।

स्कूल का भौतिक वातावरण:

गणका और आकरा भट्टा स्कूल अधिकांश कक्षाएँ बहु-स्तरीय थीं।  उच्चतर माध्यमिक विद्यालय गणका का इंफ्रास्ट्रक्चर पुराना था। स्कूल  में शौचालय और पानी उपलब्ध था, लेकिन वे अच्छी दशा में नहीं थे।

शिक्षको के पढ़ाने में सहायक संसाधन उपलब्ध थे, जिससे बच्चों को स्कूल में किसी तरह की समस्याओं का सामना करना नहीं पड़ रहा था वह अच्छे तरीके से पढ़ाई कर रहे थे।

प्राथमिक विद्यालय जोडफली में सही तरीके से क्लासरूम भी नहीं थे। १-५ तक के बच्चे को एक ही क्लासरूम में बैठाये हुए थे, जिसके कारण शिक्षक को भी बहुत दिक्कते आ रही थी। ना ही वहां पर शौचालय और पीने का पानी की व्यवस्था थी। आवश्यक संसाधन नहीं होने के कारण इसका प्रभाव बच्चों के पढ़ाई पर पड़ रहा था क्योंकि बहुत सारे बच्चे इस कारण भी स्कूल नहीं आ रहे थे कि स्कूल में शौचालय नहीं है और किसी को शौचालय लगता था तो वह घर जाते थे और घर में उनको ज्यादा समय लग जाता था तो उनके पढ़ाई पर उसका प्रभाव पड़ता था। 

बच्चे की शिक्षा और मिड-डे मील:  

तीनों स्कूल में बच्चों को पोषण आधारित मध्याह्न भोजन  मिल रहा था और उनके भोजन में ज्यादातर दिन दाल-रोटी था। क्योंकि दाल रोटी एक पौष्टिक आहार है और बच्चे जिस कम्युनिटी के थे उनको सही से पोस्टिक आहार भी नहीं मिलता है। घर में खाने के लिए न हो और यदि बच्चे का पेट नहीं भरा हो तो बच्चे को पढ़ने में मन नहीं लगता है। बच्चे सही से पढ़ाई नहीं कर पाते हैं इस कारण वहाँ के सभी स्कूलों में बच्चों को वही खाना दिया जा रहा था जो कि उसके लिए फायदेमंद हो और बच्चे स्वस्थ रहें, उनका पढ़ाई में मन लगे।

तीनों स्कूल के क्लास पहले से आठवीं तक के बच्चे को बाल गोपाल योजना के तहत 200  ग्राम दूध भी पीने के लिए मिलता था। यह इसलिए मिलता था क्योंकि आदिवासी समुदाय के बहुत बच्चे वैसे थे जिनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी तो वह रात में खाना नहीं खाते थे। और खाना खाकर भी नहीं आते थे तो उन्हें उतने दूध से उनको थोड़ी राहत मिले और वह पढ़ाई में फोकस कर पाए इसलिए उनको दूध दिया जाता था।

हमने CDL में पढ़ा कि बच्चे का Physical Development बहुत जरुरी होता है नहीं तो उनका Cognitive Development नहीं हो पाएगा, तो सही तरीके से पढ भी नहीं पाएगा।

शिक्षकों के पढाने का तरीका:

जब मैं शासकीय प्राथमिक जोडफली गई थी, वह स्कूल १-५ कक्षा तक का था। एक ही शिक्षक थे। मैंने देखा कि वहाँ के शिक्षक बच्चे को खेल के माध्यम से पढा रहे थे, क्योंकि वो स्कूल बहुत सालों से बंद था तो बच्चों को पढाई से जोड़ने के लिए उन्हें नये-नये खेल और गतिविधि से पढा रहे थे।

ताकि बच्चे का पढने में मन लगे। वह पढाई से बोर महसूस ना करे और जब शिक्षक लाइब्रेरी की किताब से पढा रहे थे तो वो बच्चों को, उनके दैनिक जीवन में होने वाले चीजों से जोड़ कर पढ़ा रहे थे।

जिससे बच्चों को मज़ा आ रहा था। उनका क्लासरूम प्रिंटरिच था बच्चों और शिक्षकों के द्वारा बनाये गए बहुत से TLM क्लासरूम में लगे हुए थे और शिक्षक को सभी बच्चों का नाम पता था।

लेकिन, तीनों स्कूलों में अंग्रेजी एक बड़ा मुद्दा था। बच्चों को अंग्रेजी पढना और लिखना नहीं आ रहा था।

तो शिक्षक उसे पर जोर दे रहे थे कि बच्चे इंग्लिश भाषा सीखें, क्योंकि शिक्षक को लगता था कि अंग्रेजी भाषा ज्यादा महत्वपूर्ण है तो बच्चों को अंग्रेजी आनी चाहिए।

यही बात हम यदि गणका स्कूल की करें तो वहाँ पर बच्चों को पुराने तरीके से पढाया जा रहा था। “उनको ब्लैक बोर्ड से देखकर लिखना था। वो खुद से कुछ नया नही कर पा रहे थे क्योंकि शिक्षक का कहना था कि जो मैं बोल रही हूँ, चुपचाप तुम सब वही लिखते जाओ। बिना आवाज किये”।

जैसे कि हमने philosophy में R.S. Peter के सिद्धांत में पढा है कि बच्चे को सोचने का मौका देना चाहिए ताकि बच्चा critical thinking कर पाए लेकिन यहाँ पर बच्चे को ये मौका नही दिया जा रहा है।

तीनों स्कूल में राजस्थान के सरकारी पाठ्यपुस्तक का ही इस्तेमाल किया जा रहा था। जब मैंने पुस्तक देखी तो वह पुस्तक पूरी गतिविधि से ही भरी हुई थी। जिससे बच्चों को बहुत ज्यादा पढने में मजा आ सकता था, लेकिन शिक्षक उसे तरीके से नहीं पढा रहे थे, जिस तरीके से पुस्तक को तैयार किया गया है।

उच्च माध्यमिक विद्यालय आगरा भट्ट में मैंने देखा कि बच्चे अपनी किताब लेकर स्कूल नहीं आए थे, तो शिक्षक उन सभी बच्चों को बहुत बुरी तरीके से मोटे डंडे से पीट रहे थे। बच्चा रो रहा है लेकिन शिक्षक लगातार पीटते जा रहे है। यदि हम बच्चे को शारीरिक दंड देते हैं तो उसका बुरा प्रभाव  बच्चों की पढ़ाई पर पड़ता है।

जैसे कि हमने CDL में पढ़ा कि Emotions के १० सिद्धांत में  Negative emotions and learning सिद्धांत आ रहा हैं क्योंकि इसमें शिक्षक अपने नेगेटिव इमोशन बच्चे पर दिखा रहे हैं।

गणका स्कूल के शिक्षक अन्य कामों में व्यस्त थे तो वो बच्चे को ही पढ़ाने के लिए बोले। बच्चे, वयस्क की भूमिका निभा रहे थे। गणका स्कूल में बच्चों को खेलने का समय नही दिया जाता था। बच्चे लंच कर लें तो तुरंत क्लास में बैठने को बोल देते थे।

गणका स्कूल के एक शिक्षक का कहना था “ये आदिवासी बच्चे हैं ज्यादा पढ कर क्या करेंगें?”

“आखिर में तो इसको भी गाय ही चराना है।

और ये आदिवासी बच्चे पढते थोड़ी न हैं?”

सब वैसे ही हैं।

जैसा कि हमने sociology of education में पढा कि कैसे लोगों की विचारधाराएँ ऐसी बनाई गई हैं कि अगर कोई  नीची जाति का है तो पढ नहीं सकता, आगे नहीं बढ सकता”!

स्कूली योजनाएँ:

  • इन तीनों स्कूलों में बहुत सारी वैसी योजनाएँ भी थीं, जो बच्चों को शिक्षा से जोड़ने में बहुत ज्यादा मदद कर रही थीं। जैसे बाल-गोपाल योजना बच्चों को दूध प्रदान करती है ताकि उन्हें पढने में मन लगे।

  • लड़कियों के लिए “उड़ान योजना” जो कक्षा छठी से 12वीं तक लड़कियों को नैपकिन देती है ताकि स्कूल में पढने के दौरान उन्हें महावारी आ जाए तो उन्हें किसी तरह की दिक्कतों का सामना न करना पड़े और वह उसका इस्तेमाल करें।
  • “परिवहन वाउचर योजना” यह  पहली से पांचवी तक के बच्चों को ₹10 देती है जिनके घर की दूरी 3 किलोमीटर के आसपास हो स्कूल से और छठी से 12वीं कक्षा के बच्चे को ₹20 देती है जिनकी दूरी 5 किलोमीटर के आस पास हो। ताकि कोई भी अभिभावक यह सोचकर अपने बच्चों को शिक्षा ना दे कि मेरे गांव में स्कूल नहीं है, स्कूल बहुत दूर है, सभी बच्चे शिक्षा ग्रहण करें, इसीलिए या योजना चलाई गई है। 

समुदाय और शिक्षा:

भील और गरासिया समुदाय पूरा आदिवासी समुदाय है और जब उनसे मिलकर बात की तो ये पता चला कि उनके जो बच्चे स्कूल में पढ रहे हैं वो सब पहली पीढी के हैं। जो पढने के लिए स्कूल जा रहे हैं और इनका जीवनयापन रोज मजदूरी करने से होता है। ये पहाड़ों के नीचे गाय, बकरी चराते हैं या तो खेतों में काम करते हैं। इस कम्युनिटी के बहुत सारे लोग वैसे थे जो कि घर में शराब बनाने का काम करते थे।

भील और गरासिया समुदाय के लोग मौसम के अनुसार स्थानान्तरित हो जाते थे। क्योंकि जब राजस्थान में बारिश नहीं होती है तो उन्हें जीवनयापन करने में बहुत दिक्कतें होती हैं। उनका खेती करके घर चलता है इसलिए वो पास के राज्य गुजरात में खेत में काम करने चले जाते हैं और जब जाते हैं तो अपने साथ अपने बच्चे और पूरे परिवार को साथ में ले कर जाते हैं।

इस कारण बच्चे को स्कूल छोड़ना पड़ता है और उसका बहुत बुरा प्रभाव बच्चों की शिक्षा पर पड़ता है। बहुत से बच्चे इसके कारण भी आगे नही पढ पाते हैं।

जैसा कि हमने ISSI के कोर्स में पढ़ा कि बच्चे अपने माँ बाप के साथ काम की वजह से माइग्रेट हो जाते हैं और जिससे उनकी पढाई पर बहुत  फर्क पड़ता है।

भील और गरासिया कम्युनिटी के लोगों की आर्थिक स्थिति दयनीय होती है। उनके परिवार की संख्या ज्यादा होती है और उनके घर में काम करने वाले एक व्यक्ति हों और उनके बच्चे स्कूल में पढ़ते हैं तो अभिभावक अपने बच्चों को अपने साथ खेतों में काम करने या गाय को चराने के लिए बच्चों को ही भेज देते हैं। बच्चे बहुत कम उम्र में बाल मजदूरी करते हैं। बच्चे कमाना शुरू करते हैं, अपने आर्थिक स्थिति के कारण स्कूल जाना बंद कर देते हैं और यदि वह स्कूल जाना बंद कर देते हैं तो उनकी शिक्षा वहीं पर रुक जाती है।

जब मैं निचलागढ़ आदिवासी समुदाय गई और वहाँ पर मैंने नरसाराम जी जो कि “दूसरा दशक संस्था” में काम करते हैं उनसे मिली। दूसरा दशक बच्चों को स्कूल  से जोड़ने का काम करती है, जैसे कोई बच्चा आगे नहीं पढ पाता है तो यह बच्चों को शिक्षा को लेकर प्रोत्साहित और जागरूक करते हैं। ताकि वह शिक्षा से जुड़ पाए, फिर बच्चे को स्कूल से जोड़ती हैं और समाज के लोगों में जो अंधविश्वास है उसको जागरूक करती है। ताकि वह किसी अंधविश्वास का शिकार न हो पाए जैसे- बकरा बलि, घर में कोई बीमार है तो हमें बकरे की बलि देनी है और जब तक जो बीमार सदस्य हैं वह ठीक ना हो जाए तब तक बलि देते ही रहना है। जिसके कारण जिनकी आर्थिक स्थिति कमजोर रहती है, वह इंसान बकरे की बलि देते रहता है और जिससे उनकी आर्थिक स्थिति और ज्यादा कमजोर हो जाती है।  तो ऐसे ही और भी कई अंधविश्वास हैं उसे कम करने के लिए वहाँ के लोगो के साथ मिलकर काम करती है।

मेरा एक अनुभव सबसे अलग था। मैंने भारतीय स्कूलों तक पहुंच, विविधता और सहभागिता में पढा है और हमने अनुभव भी किया है कि ज्यादातर स्कूल में लड़कियों की संख्या बहुत कम रहती है और लड़के ज्यादा संख्या में स्कूल में रहते हैं। लेकिन यहाँ पर पूरा विपरीत ही रहा कि यहाँ लड़कियों की संख्या बहुत ज्यादा थी। क्योंकि वहाँ पर जो लड़के होते हैं वह बहुत कम उम्र में अपने अभिभावक की मदद के लिए खेतों में काम करने या नरेगा में काम करने के लिए चले जाते हैं और लड़कियाँ घर पर रहती हैं एक कारण यह भी है।

जैसे कि हमने sociology  में जेंडर स्ट्रेटिफिकेशन और इनिक्वालिटीज में  पढा है कि लडकियों और महिलाओं के साथ भेदभाव किया जाता है। लेकिन  यहाँ मैंने  कुछ और ही देखा, आदिवासी कम्युनिटी में लड़कियों को लेकर कोई भेदभाव नहीं होता हैं ये मुझे उनसे बात करते पता चला कि  लड़कियों के पास ये अवसर होता है कि उन्हें कब शादी करनी है? और कितनी कक्षा तक पढ़ना है? क्योंकि उनके अभिभावकों को ये टेंशन नहीं रहती है कि मुझे अपनी बेटी की शादी करनी है। वहाँ की लड़कियाँ अपने पसंद के लड़कों से शादी कर सकती हैं, उनसे कोई दहेज नहीं लिया जाता, इसलिए वहाँ की लड़कियाँ स्वतंत्र महसूस करती हैं।

सीख:

  • मैंने सीखा कि जब हम समुदाय में जाएँ तो अपनी बातचीत करने का तरीका क्या हो सकता है? हम उनसे ही उनकी भाषा में कैसे अपनी बातो को समझा सकते हैं? 
  • हम किसी भी स्तर के बच्चों को लाइब्रेरी से कैसे जोड़ सकते हैं?
  • बच्चे अपनी स्थानीय भाषा के साथ जुड़कर पढते हैं तो वो आसानी से सीखते हैं।

निष्कर्ष:

मैं बच्चों के बारे में जो भी जानती थी कि एक बच्चा कैसे धीरे-धीरे अपनी उम्र के अनुसार सीखता है। उसको फील्ड में जा कर देख पाए कि हर उम्र के समूह के बच्चों के सीखने का तरीका क्या है? ये जानती थी कि बच्चे गतिविधि के माध्यम से जल्दी सीखते हैं तो मैंने जोडफली स्कूल में ये देखा और अनुभव भी किया कि सच में बच्चे खेल के माध्यम से ज्यादा सीखते हैं। 

एक स्कूल प्रणाली कैसे कार्य करती है, स्कूल को चलाने के लिए क्या-क्या चीजें अहम भूमिका निभाती हैं, ये अनुभव कर पायी। समुदाय, शिक्षा के लिए कितना जरुरी और महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है इसे फील्ड में जा कर देख पायी। 

राजमणि कुमारी
अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी, भोपाल